BJP के मांझी बनेंगे कल्याण?
भाजपा के कल्याण के लिए कल्याण सिंह क्या विधानसभा चुनाव-2017 में भाजपा का चेहरा होंगे? अभी यह महज कयास है, मगर कुछ दिनों में कयासों का बादल छंट जाएगा. बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जहां बिहार के विकास का मुद्दा उछालने के साथ ‘जंगलराज-2’ से बिहार को बचाने का नारा देकर चुनाव लड़ा, वहीं लालू-नीतीश की जोड़ी ‘मंडलराज-2’ व आरएसएस प्रमुख भागवत के आरक्षण की समीक्षा संबंधी बयान पर यह कहकर पिछड़ों-दलितों को गोलबंद किया कि भाजपा की सरकार बनी तो आरक्षण का खतरा आ जाएगा. भाजपा के जोरदार प्रचार, बेहिसाब खर्च व मीडिया प्रबंधन का असर बिहार के पिछड़ों-अत्यंत पिछड़ों, दलितों पर बिल्कुल नहीं पड़ा.
इंजीनियर नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग व लालू की जातीय गोलबंदी ने ऐसा असर दिखाया कि भाजपा चारो खाने चित्त हो गई. दिल्ली के बाद बिहार में बुरी पराजय का दंश झेलने के बाद भाजपा को पिछड़ों, विशेषकर अतिपिछड़ों की ताकत का पता चल गया है.
वर्ष 2017 में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को काफी गंभीरता से लेने की संजीदगी में भाजपा गंभीर मंथन में जुटी हुई है. उसे अच्छी तरह पता चल गया है कि बिना पिछड़ों के भाजपा की चुनावी नैया पार होने वाली नहीं है, ऐसे में भाजपा नेतृत्व व उसका मातृ संगठन आरएसएस उत्तर प्रदेश की चुनावी समर के लिए पिछड़े वर्ग से एक ‘मांझी’ की तलाश में जुट गई है और वह राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह को मिशन-2017 के लिए भाजपा के चेहरे के रूप में उतारने का मन बनाते दिख रही है.
वजह यह कि कल्याण सिंह पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधि और हिंदूवादी चेहरा हैं. ये जिस लोधी/किसान बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं, वह प्रदेश की 60-65 विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक स्थिति में हैं और कल्याण के रिश्ते निषादों में होने के कारण इस वर्ग का ध्रुवीकरण भी हो सकता है.
बिहार व उप्र का वर्गीय व जातीय सामाजिक समीकरण लगभग एक समान है और अतिपिछड़ा वर्ग की संख्या बिहार से उप्र में अधिक, लगभग 38 प्रतिशत है. पिछड़ों-अतिपिछड़ों के समीकरण को ध्यान में रखकर ही भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के साथ-साथ मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पिछड़े/अतिपिछड़े वर्ग को आगे कर माया व मुलायम के सामाजिक समीकरण से टक्कर लेने की तैयारी कर रही है.
भाजपा सूत्रों के अनुसार, पार्टी नेतृत्व को अच्छी तरह पता चल गया है कि बिना पिछड़े वर्ग के भाजपा का कल्याण होने वाला नहीं है. जब कल्याण सिंह उप्र में सक्रिय रहे तो पिछड़ा-अतिपिछड़ा वर्ग भाजपा का बेस वोट बैंक बन गया था. लोधी के साथ निषाद, बिंद, केवट, समाज तो पूरी तरह भाजपा के रंग में रंगा था, पर कल्याण के भाजपा छोड़ने पर अतिपिछड़ा तबका के साथ जातीय गुटबंदी कम हुई तो भाजपा भी कमजोर हो गई.
भाजपा ने कल्याण के बाद विनय कटियार व ओम प्रकाश सिंह को पिछड़ा वर्ग के चेहरा के रूप में आगे किया, पर पिछड़े तो दूर, इनकी कुर्मी बिरादरी भी इन्हें नेता के रूप में स्वीकार नहीं कर पाई.
भाजपा नेतृत्व को अच्छी तरह पता है कि सवर्णो की बदौलत उत्तर प्रदेश जैसे जातिवादी प्रदेश में भाजपा मुलायम सिंह यादव व मायावती के सामाजिक समीकरण का मुकाबला नहीं कर सकती. भाजपा एक ऐसे चेहरे की तलाश कर रही है, जो मुलायम और मायावती की जातीय गोलबंदी को जवाब दे सके. उत्तर प्रदेश में भाजपा का मुकाबला सपा व बसपा से ही होने वाला है. ऐसी स्थिति में कल्याण सिंह ही इस कसौटी पर खरे उतर सकते हैं.
कल्याण सिंह सरकार ने पिछड़ों, दलितों के साथ अल्पसंख्यकों के कल्याण के साथ स्वच्छ प्रशासन व निष्पक्ष भर्तियों का जैसा नमूना पेश किया, वैसा अन्य नहीं कर पाए. मायावती व मुलायम सिर्फ ‘एक जाति’ को ही बढ़ावा देने में मस्त रहे.
उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण पर नजर डालें तो इनमें अनुसूचित जातियां-20.53 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियां-0.57 प्रतिशत, अल्पसंख्यक-16.60 प्रतिशत, ब्राह्मण-5.25 प्रतिशत, राजपूत-5 प्रतिशत, भूमिहार/त्यागी/कायस्त व वैश्य-3.25 प्रतिशत, हिंदू पिछड़ा वर्ग-48.50 प्रतिशत हैं. हिंदू पिछड़ों में यादव-8.6 प्रतिशत, कुर्मी-4.10, जाट-1.65, गूजर-1.05, काछी/कोयरी/सैनी/मौर्य-4.85, लोधी/किसान-3.60, निषाद (मल्लाह, केवट, बिंद, कश्यप, धीवर, रायकवार, मांझी आदि)-10.25, पाल/बघेल-2.90, कुम्हार/प्रजापति-1.05, नोनिया/चैहान-1.05, राजभर-1.10, नाई/सविता-0.35, कानू/भुर्जी-0.80, साहू/तेली-1.60, बढ़ई/लोहार-1.75, कलवार-0.45, बरई-0.30, बियार, कंडेरा, अरख, गोसाईं, जोगी, बंजारा, सोनार आदि 1.35 प्रतिशत हैं.
इसके साथ ही सामाजिक न्याय समिति-2001 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियां 24.94 प्रतिशत, जनजातियां-0.06, अन्य पिछड़ा वर्ग-54.05 व सामान्य जातियां (हिंदू, मुस्लिम)-20.95 प्रतिशत तथा अनुसूचित जातियांे में जाटव/चमार-55.70 प्रतिशत, पासी/तड़माली-15.91 प्रतिशत, धोबी-6.51, कोरी-5.39, वाल्मीकि-2.96, खटिक-1.83, धानुक-1.57, गोड़-1.05, कोल-1.11 प्रतिशत व अन्य अनुसूचित जातियां -7.78 प्रतिशत थीं.
चमार/जाटव बिरादरी तो मायावती का लगभग अटूट वोट बैंक है और अन्य दलित जातियां भाजपा, बसपा, कांग्रेस, सपा आदि में बंटती रहती हैं. उत्तर प्रदेश में सामाजिक समीकरण को साधने के लिए भाजपा पिछड़े-अतिपिछड़े पर दाव लगाने के साथ-साथ राजनाथ सिंह के आरक्षण फार्मूले को मुद्दा बनाएगी.
अतिपिछड़ा वर्ग चिंतक लौटन राम निषाद ने कल्याण सिंह को भाजपा का चेहरा बनाए जाने के मुद्दे पर कहा कि इनके नाम पर लोधी, किसान को भाजपा के साथ जा सकता है, पर अन्य पिछड़े किस अनुपात में भाजपा के साथ जुटेंगे, वह अभी तय नहीं किया जा सकता. यदि सपा ने समय रहते 17 अतिपिछड़ी जातियों को आरक्षण कोटा व निषाद, पाल, चौहान, सविता, भुर्जी, साहू, जैसी अत्यंत पिछड़ी जातियों को राजनीति सम्मान के साथ साध लिया तो कल्याण भाजपा का कल्याण नहीं कर पाएंगे.
भाजपा सूत्र यह भी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा नेतृत्व व आरएसएस प्रचारक मायावती व मुलायम के वर्चस्व को कमजोर करने के लिए काफी गंभीरता से जुटा है, पूरी संभावना है कि अतिपिछड़ों में सर्वाधिक प्रभावशाली निषाद, जाति को जोड़ने के लिए प्रखर हिंदूवादी नेत्री साध्वी निरंजन ज्योति या पाल/बघेल/धनगर समाज के पूर्व संगठन मंत्री प्रकाश पाल को प्रदेश की कमान सौंपने का निर्णय ले सकती है.
अध्यक्ष पद की दौड़ में वैसे तो स्वतंत्र देव सिंह, केशव मौर्य, धर्मपाल सिंह आदि भी हैं, पर ये प्रदेश में वर्गीय या जातीय पहचान नहीं रखते. वैसे भाजपा उत्तर प्रदेश में तभी कमाल कर सकती है, जब अतिपिछड़ा वर्ग बहुमत के साथ उसके साथ जुड़े, क्योंकि उत्तर प्रदेश में अतिपिछड़ा वर्ग ही गेम चेंजर व किंग मेकर की स्थिति में है, जो इस समय सपा से खुन्नस खाए बैठा है.
जातिवाद व लचर कानून व्यवस्था के कारण सपा की स्थिति वास्तव में काफी कमजोर है. यही वजह है कि वर्ष 2007 की तरह गैर यादव जातियां सपा से खुन्नस खाए बैठी हैं, ऐसे में भाजपा व बसपा में कौन सपा का मुख्य प्रतिद्वंदी होगा, यह भविष्य के गर्भ में है. हां, इतना तो तय है कि चुनाव में अतिपिछड़ों की ही भूमिका अहम होगी.