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उप्र में जनता का चुनाव

उर्मिलेश

यूपी में इस बार दल और नेता नहीं, जनता ही सत्ताधारियों से चुनाव लड़ रही है. पिछले कुछ दिनों में मैने प्रदेश के विभिन्न हिस्सों के अनेक लोगों से बातचीत की. ये सभी मेरे परिचित हैं. लेकिन इन सबके विचार एक जैसे नहीं हैं. इनमें ज्यादातर को मालूम है कि मैं ‘संविधान-विरोधी समूहों और जनविरोधी-तत्वों’ का मुखर आलोचक हूँ पर किसी पार्टी या किसी नेता का समर्थक नहीं हूँ. शायद इसीलिए, वे मुझसे खुलकर अपनी बात कहते हैं.

इन लोगों से हुई बातचीत के आधार पर कह सकता हूँ कि इस चुनाव में यूपी के सत्ताधारी दल का असल मुकाबला किसी दल या गठबंधन से नही है. इस बार उसका मुख्य मुकाबला जनता से है, आम लोगों से है!

आम लोग तभी हारेंगे, जब कुछ खास ‘जुगत’ भिड़ाई जाये! ‘जनादेश’ से तो जनता हारने से रही! जनता अपने ही खिलाफ कैसे कोई फैसला करेगी। कुछेक कस्बों को छोड़ दें तो पिछली बार की तरह सूबे की जनता ‘हिन्दू-मुसलमान’ भी नहीं बन रही है. जनता में बेरोजगार, बेहाल और परेशान लोगों की संख्या बहुत ज्यादा हो गयी है. ऐसे में वे ‘हिन्दू-मुस्लिम’ क्या और क्यों बनेंगे?

लोगों का आदमी के रूप में ठीक से जीना मुश्किल हो गया है! कुछ लोग कह सकते हैं कि हरेक को पांच कि.ग्राम अनाज और कुछ रूपये मिल रहा है. फिर क्या परेशानी? क्या इक्कीसवीं सदी में लोगों की जिंदगी महज पांच कि. ग्राम अनाज और एक बोतल तेल है? अगर लोगों की जिंदगी के हर पहलू सिर्फ मुट्ठी भर सत्ताधारी ही तय करने लगें तो उकताहट का होना स्वाभाविक है.

खाने को अनाज देकर वे ख़ुश हो सकते हैं कि इसके बदले लोग उन्हें वोट देंगे. हो सकता है, लोगों का एक हिस्सा ऐसा करे. पर लोग क्या बेरोजगारी, बेहाली, अशिक्षा और शासन का आतंक, सबकुछ भूल जायेंगे? क्या इन सबका लोगों के मानस पर कोई असर नहीं होगा?

कभी कहा गया, महामारी आने वाली है, ताली-थाली बजाओ, वह दरवाज़े से भाग जायेगी. लोगों ने जमकर बजाई ताली-थाली. महामारी घर के अंदर घुस आई और फिर जो हुआ, वह पूरी दुनिया ने देखा. हमारे श्मशानो और कब्रिस्तानो की तस्वीरें यूरोप और अमेरिका के लोगों को भी आतंकित करती रहीं. पर हमारे यहां आंकड़े छुपाये जाते रहे. महामारी के बीच टीवीपुरम् से तरह-तरह के ‘करतब’ कराये जाते रहे. लोगों के घर-बार उजड़ते रहे और सरकार-बहादुर के दोस्त अरबपतियों-खरबपतियों की सम्पत्ति सौ से दो सौ गुना बढ़ती रहीं.

एक तरफ, स्कूल-कालेज सब ठप्प करा दिये, दूसरी तरफ पहले के भव्य सरकारी भवनों को गिराकर ‘हिन्दुत्व शैली वाले नये-नये भवन’ बनाने का काम चलता रहा. लोगों की नौकरियां छिनती रहीं पर सरकारी कंपनियां बिकती रहीं. सरकारी संस्थान और उपक्रम पसंदीदा अरबपतियों को बेचे जाते रहे. यही अरबपति अपने पसंदीदा दलों को ‘चुनावी बांड’ थमाते रहे.

छुट्टा पशुओं से खेत और फसलों की बर्बादी के किसानों के दर्द पर सत्ताधारी जिस तरह उदासीन रहे, उससे भी जनाक्रोश में इज़ाफा हुआ है.

यह बात सही है कि टीवीपुरम् ने जन-समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाने की हर संभव कोशिश की है. लोगों को अज्ञान के अंधकार में और ढकेला है. उनके पास सही सूचनाएं नहीं पहुंचती. पर लोगों को रह-रह कर अपनी बेहाली और बर्बादी का दर्द तो महसूस होता ही है! इस दर्द को किसी नेता का भाषण या टीवीपुरम् का मायाजाल कैसे मिटायेगा?

चुनावी राज्यों, खासकर यूपी के जिन-जिन लोगों से इधर मेरी बातचीत हुई है, उनमें ज्यादातर का कहना है कि लोग अपना दर्द भुला नहीं पा रहे हैं! वोटर लिस्ट से बहुतों के नाम काटे गये हैं पर जिनके बचे हुए हैं, वे मतदान के लिए जरूर पहुंच रहे हैं. मशीनें वहां उन्हें कुछ डराती हैं पर वे मतदान की मशीनी-आवाज सुनने के बाद ही वहां से हटते हैं.

हम नहीं जानते, इसका नतीज़ा क्या होगा पर इतना जरूर जानते हैं: ‘ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है!’

(इसे मेरी चुनाव-रिपोर्टिंग के तौर पर न देखा जाय, यूपी के विभिन्न जिलों के रहने वाले अलग-अलग ढंग और विचार के कुछ समझदार लोगों से बातचीत के आधार पर बनाया मेरा आकलन या इम्प्रेशन भर है. मतदान के अगले चरणों में मिलने वाले फ़ीडबैक के बाद इस आकलन में बदलाव भी हो सकता है. दिनांक 18.02.2022)

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