यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम की मुश्किल राह
जेके कर | रायपुर: छत्तीसगढ़ में केन्द्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना बंद होगी. राज्य सरकार इसकी जगह अगस्त से यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम लागू करने की बात कर रही है.
छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव का कहना है कि आयुष्मान भारत योजना के तहत छत्तीसगढ़ को 180 करोड़ रुपये देने पड़ेंगे. जबकि इतनी राशि में राज्य की 80 फीसदी आबादी को नि:शुल्क दवा तथा इलाज उपलब्ध कराया जा सकता है.
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना दरअसल में स्वास्थ्य बीमा योजना है न कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओँ का विस्तार है. जाहिर है कि आयुष्मान भारत योजना के तहत करदाताओँ के पैसे को बीमा कंपनियों के माध्यम से निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य संस्थानों को ही लाभ होने दिया जा रहा है.
इसलिये छत्तीसगढ़ सरकार का जनता के टैक्स के पैसों से निजी क्षेत्र को लाभ पहुंचाने की योजना का विरोध करना काबिले तारीफ है. लेकिन असंभव न होने पर भी यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम को जमीनी स्तर पर लागू कर पाना उतना ही कठिन काम है.
इसका सबसे बड़ा कारण, उदारीकरण के युग में बना दी गई सरकारी अस्पतालों खस्ता हालत है. यही कारण है कि ज्यादातर लोग सरकारी अस्पतालों में जाने से ही परहेज करते हैं.
सरकारी अस्पताल जाता कौन है?
साल 2015-16 में कराये गये नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार बीमार पड़ने पर छत्तीसगढ़ के 37.6 फीसदी शहरी तथा 54.6 फीसदी ग्रामीण ही सरकारी अस्पतालों में जाते हैं. इस तरह से आबादी का 50.5 फीसदी ही सरकारी अस्पतालों में जाता है.
दूसरी तरफ 59.7 फीसदी शहरी तथा 33.3 फीसदी ग्रामीण निजी चिकित्सा संस्थानों की शरण लेते हैं. इस तरह से आबादी का कुल जमा 39.6 फीसदी निजी क्षेत्र में इलाज करवाने जाता है. जबकि आबादी का 2 फीसदी शहरी तथा 9.3 फीसदी ग्रामीण, कुल मिलाकर 11.6 फीसदी लोग या तो दुकान से खरीदकर दवा खा लेते हैं या घरेलू इलाज करते हैं.
इस तरह से यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम कितना सार्वभौमिक हो पायेगा उसे समझा जा सकता है. लेकिन जो सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाते हैं उन्हें यदि मुफ्त में स्वास्थ्य सेवा दी जाये तो भी वह अपने आप में एक बड़ी बात होगी. बेशक, यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम एक सर्वे ही है परन्तु इसे ही प्रस्थानबिंदु मानकर पड़ताल शुरू की जा सकती है.
सबसे पहले राज्य के सरकारी चिकित्सा सेवा के आधारभूत संरचना पर एक नज़र डाल लें.
सुविधाओं का कबाड़खाना
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017 के अनुसार छत्तीसगढ़ में 1 मार्च 2016 की स्थिति में 155 सामुदायिक चिकित्सा केन्द्र, 790 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तथा 5186 उप-स्वास्थ्य केन्द्र हैं. इसके अलावा 1 जनवरी 2016 की स्थिति में छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी अस्पतालों में मरीजों के लिये 5070 तथा शहरी क्षेत्र के अस्पतालों में 4342 बिस्तर हैं.
कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ के सरकारी अस्पतालों में मरीजों के लिये 9412 बिस्तर हैं. इस तरह से 2647 की आबादी के लिये मात्र 1 बिस्तर उपलब्ध है. जबकि विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के मानकों के अनुसार प्रति 1000 की आबादी के लिये अस्पताल (सभी को मिलाकर) में 5 बिस्तर होने चाहिये.
उसी तरह से विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के मानकों के अनुसार प्रति 1000 की आबादी के लिये 1 चिकित्सक (सभी को मिलाकर) होना चाहिये. जबकि जमीनी हकीकत यह है कि छत्तीसगढ़ के सरकारी अस्पतालों में कुल 1626 एलोपैथी के चिकित्सक हैं. इस तरह से 15916 की आबादी के लिये सरकार के पास मात्र 1 चिकित्सक है.
यदि पूरी आबादी का सरकारी अस्पताल में इलाज करना है तो चिकित्सकों की संख्या को करीब 16 गुना बढ़ाकर 26 हजार के बराबर लाना होगा. यदि यह भी माना जाये कि आबादी के मात्र 50 फीसदी लोग जो सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, उन्हीं के लिये चिकित्सा सेवा का विस्तार करना है तो भी चिकित्सकों की संख्या करीब 13 हजार के करीब करनी पड़ेगी.
इसी तरह से सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या को भी 12 से 13 गुना बढ़ाना पड़ेगा. जाहिर है कि इसी अनुपात में नर्सो तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ानी पड़ेगी. क्या सरकार के बजट में इतनी धनराशि का प्रावधान किया जा सकता है?
छत्तीसगढ़ सरकार के साल 2019-20 के बजट प्रस्तावों के अनुसार स्वास्थ्य पर बजट का 5.2 फीसदी खर्च किया जायेगा. बजट का कुल व्यय 90,910 करोड़ रुपये का है. अर्थात् स्वास्थ्य पर 4708.18 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे.
दवा की बीमारी
सरकारी अधोसंरचना के बाद बात आती है दवाओँ की. यूपीए-2 सरकार द्वारा सबके लिये मुफ्त दवा की योजना को शुरू किये जाने के बाद से छत्तीसगढ़ मेडिकल सर्विसेस कॉर्पोरेशन का गठन किया गया है. यह संस्था टेंडर के माध्यम से कम कीमत में दवायें खरीदती है. लेकिन दवाओं की खरीदी में होने वाला करोड़ों का भ्रष्टाचार क्या इस बात की इजाजत देगा कि कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जाये?
उदाहरण के लिये गुजरात के वदोदरा स्थित तथा गैर-सरकारी संगठन द्वारा संचालित लोकास्ट थेरेपेटिक्स उच्च मानकों वाली तथा अत्यंत कम कीमत की दवायें बनाती है. बिलासपुर के गनियारी स्थित जन-स्वास्थ्य सहयोग द्वारा संचालित अस्पताल में यहीं से दवाईयां खरीदी जाती हैं. इस तरह के दूसरे विकल्प भी हो सकते हैं. लेकिन राज्य में जिस तरीके से सरकारी दवा खरीदी के नाम पर करोड़ों की बंदरबांट होती है, क्या सरकार उससे मुक्ति पाना चाहेगी, यह सबसे बड़ा सवाल है.
हर बात पर एसआईटी बनाने वाली सरकार, पिछले 10 साल या 15 साल में राज्य में चिकित्सा क्षेत्र में होने वाली खरीदी को लेकर ही कोई जांच करवा दे तो चिकित्सा सेवा की बदसूरत तस्वीर सामने आ जायेगी.
यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम के कथनी और करनी में फर्क किये बगैर उसे अमलीजामा पहनाया जाता है तो उसका विरोध कॉर्पोरेट अस्पतालों तथा दवा-सर्जिकल कंपनियों से होगा. ये लोग कभी नहीं चाहेंगे कि सरकार मुफ्त में उच्च स्तर की स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाये.
अभी भी छत्तीसगढ़ की आबादी का 39.6 फीसदी हिस्सा निजी क्षेत्र में ही इलाज करवाता है. वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनके मरीज उर्फ कस्टमर, सरकारी क्षेत्र की ओर आकर्षित हों.
बता दें कि स्वास्थ्य, संविधान की समवर्ती सूची में आती है, इसलिये यह राज्य तथा केन्द्र सरकार दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी है. यही कारण है कि आयुष्मान भारत योजना की 60 फीसदी धनराशि केन्द्र द्वारा दी जा रही है. लेकिन आयुष्मान भारत योजना बंद करने वाले राज्यों से केंद्र ने यह धनराशि वापस मांग ली है. जाहिर है, एक बड़ी चुनौती बजट की भी होगी.
अधोसंरचना से लेकर बजट और फिर निजी चिकित्सा क्षेत्र के मकड़जाल से निकल पाना छत्तीसगढ़ के लिये सबसे बड़ी चुनौती होगी. लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति हो तो इन सबसे निपट पाना असंभव भी नहीं है.