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मानवाधिकार का उल्लंघन कब होता है?

संदीप पांडेय
यदि हम गौर से देखें तो मानवाधिकार उल्लंघन तब होता है जब एक इंसान दूसरे इंसान को किसी न किसी आधार पर अपने से कम आंकता है. आइए देखें इंसान ने आपस में एक दूसरे से फर्क करने के क्या क्या आधार बना रखे हैं?

शायद फर्क करने का सबसे पहला आधार रहा होगा लिंग का. आदमी ने अपने आप को औरत से ज्यादा ताकतवर होने के कारण न सिर्फ शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी श्रेष्ठ मान लिया. इस आधार पर महिलाओं का यौन व अन्य प्रकार से शोषण होता रहा.

नस्ल के आधार पर भी इंसान ने एक दूसरे से फर्क किया है. इतिहास का घटनाक्रम कुछ ऐसा रहा कि गोरे लोगों के देशों में औद्योगिक क्रांति पहले हो गई जिससे वे धनी हो गए और सैन्य रूप से वे ज्यादा शक्तिशाली हो गए. इसके बल पर उन्होंने अपने साम्राज्य स्थापित किए और यह मान लिया कि गोरी नस्ल दूसरों से श्रेष्ठ है. स्थिति इतनी विषम हो गई कि उन्होंने काले लोगों को दास तक बना डाला. अभी बहुत दिन नहीं हुए जब दक्षिण अफ्रीका में रंग भेद की प्रथा जिंदा थी.

सम्पत्ति के बंटवारे से धीरे धीरे अमीर और गरीब का फर्क भी पैदा हो गया. वर्ग के आधार पर भेदभाव तो पूरी दुनिया में है. सम्पन्न लोग दुनिया के संसाधनों का ज्यादा फायदा उठाते हैं और गरीबों को जानबूझ कर उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से भी वंचित रखा जाता है. अमीर गरीब से दूरी बनाए रखते हैं. आर्थिक नीतियां ऐसी बनाई जाती हैं कि यह दूरी कम होने के बजाए और बढ़े. अमीर लोग गरीब लोगों के साथ साफ तौर पर भेदभाव करते हैं जिसे कई परिस्थितियों में देखा भी जा सकता है.

दुनिया के विभिन्न इलाकों में अलग-अलग संस्कृतियां विकसित हुईं. सांस्कृतिक आधार जिसका एक अंग भाषा है पर भी भेदभाव होने लगा. कुछ लोग अपने खान-पान, रहन-सहन, भाषा-बोली के आधार पर दूसरों से खुद को श्रेष्ठ मानने लगे और प्रयास करते हैं कि दूसरों के ऊपर अपनी संस्कृति थोपें.

दुनिया में कई धर्म पनपे. धर्म आस्था से जुड़ा मामला है. कई लोग आस्था में इतने अंधे हो जाते हैं कि उन्हें और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता. ऐसे ही लोग धर्म को कट्टरपंथी बना देते हैं और दूसरे धर्म के मानने वालों से उनका मतभेद हो जाता है. धर्म के नाम पर दुनिया ने बहुत हिंसा भी देखी है. कुछ धर्मावलम्बी अपने धर्म को दुनिया में स्थापित करने की प्रक्रिया में दूसरों के साथ ज्यादती करते हैं.

अपने देश में जाति प्रथा में तो गैर-बराबरी उसका अभिन्न हिस्सा है. उंची जाति के लोग अपने को श्रेष्ठ मानते हैं और अपने से नीचे जाति के लोगों के साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहते. दो भिन्न जाति के लोग साथ में बैठ कर खा भी नहीं सकते. अपने देश में जाति के नाम पर कई अमानवीय परम्पराएं प्रचलन में रहीं हैं. जाति व्यवस्था जैसा संस्थागत भेदभाव का तरीका वाकई में मानवीय गरिमा के लिए एक कलंक है.

राष्ट्रीयता की भावना ने भी मनुष्यों को एक दूसरे से युद्ध के लिए प्रेरित किया है. इतिहास ने राष्ट्रवाद को फासीवाद में तब्दील होते भी देखा है जिसमें हिटलर ने दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहार किया. आज पुनः दुनिया में राष्ट्रवाद की संकीर्ण दृष्टि जगह जगह अपना सर उठा रही है. कई लोग जो धर्म और जाति के नाम पर इंसानों के बंटवारे को गलत मानते हैं राष्ट्रवाद को एक सकारात्मक विचार मानते हैं और उसके प्रति समर्पित रहते हैं. किंतु ध्यान से देखने पर समझ में आएगा कि राष्ट्रवाद भी धर्म और जाति की तरह ही इंसान को बांटने का ही काम ज्यादा करता है. राष्ट्रवाद का जो सकारात्मक पक्ष है वह समाज को मानने से भी पूरा हो जाता है. राष्ट्र एक कृत्रिम अवधारणा है जबकि समाज एक प्राकृतिक व्यवस्था है.

शिक्षा ने भी भेदभाव पैदा किया है. शिक्षित लोगों में एक अहंकार पैदा हो जाता है. वे अपने आप को अनपढ़ लोगों से श्रेष्ठ समझने लगते हैं. देखा जाए तो भारत में शिक्षित लोगों ने शिक्षा का फायदा सिर्फ अपने लिए उठाया है और शिक्षा का ज्यादा इस्तेमाल भ्रष्टाचार करने के लिए किया है. ज्यादा पढ़े लिखे लोगों ने कम पढ़े लिखे अथवा अनपढ़ लोगों के संसाधनों को लूटने का काम किया है.

पारम्परिक समाज में उम्र के आधार पर भी भेदभाव होता है. बुजुर्ग युवा पर अपना हुक्म चलाते हैं और सोचते हैं कि अधिक उम्र होने के कारण वे अपनों से छोटे उम्र के लोगों से अधिक समझदार हैं. उम्र के आधार पर वे अपेक्षा करते हैं कि उनसे छोटे लोग उनका सम्मान करेंगे. जबकि व्यक्ति का सम्मान उसकी समझदारी, व्यवहार व अन्य गुणों के कारण होता है. उम्र तो सिर्फ एक पहलू होता है.

एक और भेदभाव करने की वजह सत्ता होती है. सत्ता में बैठे लोग सत्ता से वंचित लोगों के साथ भेदभाव करते हैं. दुनिया भर में सत्तासीन लोगों द्वारा विरोध कर रही जनता के दमन के उदाहरण देखे जा सकते हैं.

इस तरह हम देखते हैं कि इंसान ने इंसानों के बीच भेदभाव के कई तरीके निर्मित कर लिए हैं और ये सभी कृत्रिम हैं यानी उसकी दिमाग की उपज हैं न कि प्रकृति की देन. देखा जाए तो सभी इंसान बराबर हैं और जिन इंसानों को हम अलग उम्र, शैक्षणिक योग्यता, वर्ग, धर्म, जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, संस्कृति का होते हुए भी चाहते हैं उनके साथ भेदभाव नहीं करते. इससे भी यही साबित होता है कि इंसानों को बांटने वाली उपर्युक्त सभी श्रेणियां कृत्रिम हैं. जैसे इंसान इन्हें निर्मित करता है वैसे ही इन्हें तोड़ भी सकता है. दुनिया ने दो जर्मनियों के बीच दीवार को गिरते देखा है.

दुनिया में सारा मानवाधिकार उल्लंघन इन्हीं श्रेणियों की मौजूदगी से होता है. इन श्रेणियों के आधार पर जब हम भेदभाव करते हैं तो मानवाधिकार हनन उसका स्वाभाविक परिणाम है. यानी जब तक हम इंसानों के बीच भेदभाव के तरीकों को जिंदा रखेंगे तब तक मानवाधिकार उल्लंघन होते रहेंगे.

*लेखक मैगसेसे से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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