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मोदी सरकार, दो साल बुरा हाल

राजेंद्र शर्मा
सरकार के दो साल पूरे होने के मौके पर दो बड़े गिफ्ट नरेंद्र मोदी की झोली में आ चुके हैं. इनमें पहला गिफ्ट है, दो-महीने की रस्साकशी के बाद, उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार की वापसी. पहले अरुणाचल और उसके बाद उत्तराखंड में दलबदल के जरिए कांग्रेस की सरकार गिराकर, अपनी या अपने मनमाफिक सरकारें बैठाने की कोशिशों ने, न सिर्फ राजनीतिक नैतिकता के मोदी-शाह जोड़ी की भाजपा के दावों को मजाक की चीज बना दिया है बल्कि मोदी सरकार के ‘‘सहकारी संघवाद’’ के नारे को भी हास्यास्पद बना दिया है. हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, हरेक अदालत ने संघीय व्यवस्था के खिलाफ मोदी सरकार के तानाशाहीपूर्ण हमले को न सिर्फ गलत ठहराया है बल्कि उसे मजबूती से विफल कर, उसे तगड़ा झटका भी दिया है.

दूसरा गिफ्ट उस सोशल मीडिया से मिला है, जो न सिर्फ 2014 के आम चुनाव की बहुत लंबी पूर्व-संध्या में बल्कि चुनाव के बाद की वैसी ही लंबी खुमारी में भी, प्रचंड रूप से मोदी भक्त बना रहा था. उसी सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री का खासतौर पर केरल में चुनाव प्रचार के दौरान किए गए उनके एक बेतुके दावे के लिए, जमकर मजाक उड़ाया जा रहा था. चुनावी भाषण, प्रधानमंत्री बनने के बावजूद नरेंद्र मोदी का स्थायी भाव बना रहा है और चरम-अतिरंजना, उनके चुनावी भाषण का स्थायी भाव. अचरज नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी ने केरल में अपने चुनावी भाषण में इस राज्य में आदिवासियों के बीच नवजात शिशु मृत्यु दर, सोमालिया से ज्यादा होने का दावा किया था जबकि सचाई यह है कि केरल में यह दर, न सिर्फ मोदी राज के राष्ट्रीय औसत से तिहाई से भी कम है बल्कि देश के दूसरे सभी राज्यों से ही नहीं, अनेक विकसित माने जाने वाले देशों से भी कम है.

वास्तव में नवजात मृत्यु दर के मामले में ही नहीं, दूसरे तमाम सामाजिक मानकों के मामले में भी प्रधानमंत्री मोदी ने केरल में ऐसे ही ऊल-जलूल दावे किए थे. वह दिखाने तो यह चले थे कि कांग्रेसी और वामपंथी सरकारों ने केरल को कितना पिछड़ा रखा था, लेकिन सोशल मीडिया पर और जाहिर है कि जनता के बीच भी, दिखा यह गए कि यह स्वयंसेवक प्रधानमंत्रित्व की किसी मर्यादा से बंधा नहीं है और शब्दश: कुछ भी दावा कर सकता है.

वास्तव में चुनाव प्रचार के इसी चक्र में तमिलनाडु में अपनी चुनाव सभाओं में खुद प्रधानमंत्री मोदी की कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गांधी को अगस्ता हैलीकोप्टर घूसखोरी में लपेटने की कोशिश को भी ऐसा ही मामला कहा जाएगा, हालांकि उस पर सोशल मीडिया से ज्यादा प्रतिक्रिया राजनीतिक दुनिया में ही हुई है. सुब्रमण्यम स्वामी के नामजद कर राज्यसभा में लाए जाने को भी प्रधानमंत्री के इसी रुख के संकेतक के रूप में देखा जा रहा है.

सरकार के दो साल पूरे होने पर नरेंद्र मोदी को मिले ये दोनों गिफ्ट, न सिर्फ संयोग से मिले हैं और न अकेले-अकेले आए हैं. उल्टे ये गिफ्ट तो देश के संघीय, जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रावधानों और उनसे जुड़ी आम अपेक्षाओं तथा मर्यादाओं से, मोदी सरकार के बराबर टकराने को ही दिखाते हैं. इनमें एक उदार-धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के तकाजों से मोदी सरकार तथा उसके संरक्षण में संघ परिवार की सीधी टक्कर से लेकर, समाज कल्याण की व्यवस्थाओं से लेकर श्रम कल्याण की व्यवस्थाओं तक के साथ उसकी टक्कर शामिल है. यह संयोग ही नहीं है कि प्रधानमंत्री ने लोकसभा में अपने पहले ही महत्वपूर्ण भाषण में मनरेगा का खुलेआम मजाक उड़ाया था, हालांकि उन्हें ग्रामीण गरीबों के लिए एक हद तक रोजगार की गारंटी करने वाले इस कार्यक्रम को न चाहते हुए भी तथा काफी कतर-ब्योंत करने के बावजूद न सिर्फ जारी रखना पड़ा है बल्कि देश के बड़े हिस्से में पड़ रहे सूखे के संदर्भ में, इसका दायरा बढ़ाने के भी एलान करने पड़े हैं.

इसी प्रकार, देश के अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के खिलाफ मोदी सरकार ने बाकायदा जंग ही छेड़ रखी है. इस सब को देखते हुए, दूसरी सालगिरह के जश्न से ऐन पहले मोदी सरकार को अगर एक तीसरा गिफ्ट भी मिल जाए तो अचरज की बात नहीं होगी.

हमारा इशारा 19 मई को आने वाले विधानसभाई चुनाव के नतीजों की ओर है. यह संयोग ही नहीं है कि पांच में से चार विधानसभाओं के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जबर्दस्त चुनाव प्रचार के बावजूद, शुरू से ही भाजपा को मुख्य मुकाबले से बहुत दूर मानकर चला जा रहा था. इन सभी राज्यों में भाजपा, विधानसभा में ‘प्रवेश’ पाने के लिए लड़ रही है.

अगर बंगाल में उसका 2014 के संसदीय चुनाव के अपने वोट से काफी नीचे खिसकना तय है, तो केरल में जातिवादी हिंदू संगठनों के साथ गठजोड़ के बावजूद, उसका इस बार भी विधानसभा में खाता खोल पाना मुश्किल है. इस चक्र में एक असम ही है जहां भाजपा, एक ओर अगप तो दूसरी ओर बोडोलैंड पार्टी के साथ गठजोड़ के बल पर, सत्ता में पहुंचने का प्रयास कर रही है.

बहरहाल, व्यापक अनुमानों के अनुसार असम में त्रिशंकु विधानसभा आने वाली है. यानी सरकार के दो साल पूरे होने की पूर्व-संध्या में भाजपा को बड़े से शून्य का भी उपहार मिल सकता है. यह विधानसभाई चुनावों में हार के उस सिलसिले का मोदी के राज के पूरे दूसरे साल में जारी रहना होगा, जिसकी शुरूआत उसके पहले साल के आखिर में ही, दिल्ली से हो गयी थी. 2014 की मोदी लहर के उतार की जो प्रक्रिया पहला साल पूरा होने से पहले ही शुरू हो चुकी थी, दूसरे साल के अंत तक निश्चित हार के रुझान का रूप लेती नजर आती है.

बेशक, हमारे देश में यह कोई पहला मौका नहीं है जब दो साल में ही सरकार से जनता का मोहभंग होने के स्पष्ट लक्षण दिखाई देने लगे हैं. फिर भी मोदी सरकार के मामले में मोहभंग की रफ्तार और ज्यादा है क्योंकि भाजपा तथा संघ परिवार के आम राजनीतिक प्रभाव से बाहर, जनता के एक बड़े हिस्से को जिन वादों से नरेंद्र मोदी ने मोहित किया था, दो साल में उनकी सरकार का आचरण उससे उल्टा ही रहा है.

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अपनी वफादारी में मोदी सरकार, तरह-तरह से विश्व पूंजीवादी संकट का भारत में आयात करने में ही लगी हुई है और इसमें बेरोजगारी का आयात भी शामिल है. इस संकट से निकलने के लिए उसे देशी-विदेशी वित्तीय पूंजी को और रियायतें देने तथा जनता के लिए कल्याणकारी व्यवस्थाओं को समेटने के सिवा और कुछ उसे सूझता ही नहीं है, जबकि यह मेहनतकश जनता के हाथों में क्रय शक्ति घटाने के जरिए, रोजगार के संकट समेत आर्थिक संकट को और बढ़ाने का ही काम कर रहा है.

इस पर जनता की बढ़ती बेचैनी से निपटने की कोशिश में और खासतौर पर उसे राजनीतिक विरोध तक पहुंचने से रोकने की कोशिश में, बड़ी ताकतों में पहचान के दयनीय स्वांग, सांप्रदायिक विभाजन व ध्रुवीकरण बढ़ाने वाले मुद्दों और तानाशाही के राजनीतिक चलनों का, बढ़ते पैमाने पर सहारा लिया जा रहा है. लेकिन, यह मोदी सरकार के लिए आम स्वीकृति को तेजी से खत्म कर रहा है और ध्रुवीकरण व तानाशाही की लगातार बढ़ती खुराक की मांग पैदा करता है.

दो साल के आखिर में मोदी सरकार एक ऐसे तीखे ढलान पर पहुंच गयी है, जो उसे तेजी से गहरी खाई की ओर धकेल रहा है.

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