ट्रंप-किम की ‘ऐतिहासिक मुलाकात’
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और उत्तरी कोरिया के चेयरमैन किम जोंग-उन की 12 जून, 2018 को सिंगापुर में हुई मुलाकात के बाद जो साझा बयान जारी हुए, उसमे इस बातचीत को ऐतिहासिक बताया गया. मीडिया की राय भी यही है. लेकिन यह देखते हुए कि अमरीकी राष्ट्रपति और उत्तर कोरिया के शीर्ष नेता के बीच यह पहली मुलाकात थी, यह कहना सही होगा कि बहुत सवाल अब भी अनुत्तरित हैं. ट्रंप ने सुरक्षा की गारंटी की बात की तो किम ने परमाणु निरस्त्रीकरण की.
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मूल जे-इन के साथ अप्रैल, 2018 में हुई वार्ता ने भी किम ने यही बात कही थी. 27 अप्रैल को पानमुनजोम घोषणा के तीसरे अनुच्छेद में दोनों नेताओं ने इस बात की प्रतिबद्धता जाहिर की थी कि कोरियाई प्रायद्वीप का पूर्णतः निरस्त्रीकरण करेंगे. इसके लिए दोनों कोरिया ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सक्रिय मदद लेने की बात भी कही थी. यही बात सिंगापुर में भी किम ने दोहराई.
बैठक के बाद प्रेस वार्ता में ट्रंप ने कहा कि वे इस बात के लिए तैयार हैं कि अमरीका दक्षिण कोरिया के साथ सैन्य अभ्यास बंद करे. इससे उत्तरी कोरिया पर हमेशा युद्ध का खतरा बना रहता है. ट्रंप ने यह भी कहा कि वे आने वाले समय में दक्षिण कोरिया में तैनात 32,000 अमरीकी सैनिकों को वापस बुलाना चाहते हैं. अमरीकी रक्षा सचिव जिस तरह से त्वरित परमाणु निरस्त्रीकरण की बात कर थे, उसे पहली मुलाकात से ही हासिल करने की बात नहीं कही गई. पहली बार साम्राज्यवादी अमरीका ने माना है कि उत्तर कोरिया की सुरक्षा चिंताएं वाजिब हैं. हालांकि, उत्तरी कोरिया के गरीब लोगों को परेशान करने वाले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रतिबंधों पर अमरीका को अभी अपना पक्ष स्पष्ट करना है.
अमरीका ने उत्तरी कोरिया के लोगों को खाना नहीं उपलब्ध कराने को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. उत्तर कोरिया के पास खेती लायक जमीन कम है, इसलिए आयात पर इसकी काफी निर्भरता है. लेकिन प्रतिबंधों की वजह से इसका 90 फीसदी तक राजस्व प्रभावित हुआ है जिससे वह खाद्यान्न आयात करता. इसका उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम से क्या संबंध है? कोई भी यह पूछ सकता है. अमरीका के बदले की रणनीति की कोई सीमा नहीं है.
हमें यह फिर से याद करने की जरूरत है कि अमरीकी राष्ट्रपति ने 30 नवंबर, 1950 को यह घोषणा की थी कि अमरीका कोरिया में परमाणु हथियार इस्तेमाल करने को तैयार है. जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी में अगस्त, 1945 के परमाणु हमले के पांच साल बाद ही अमरीका फिर से ऐसी बातें कर रहा था. इसने कोरियाई प्रायद्वीप को 1958 में परमाणु हथियारों से लैस करने के बाद ‘प्रतिरोध’ की रणनीति अपनाया. इस वजह से उत्तर कोरिया ने परमाणु हथियार विकसित करना शुरू किया.
इसके बाद 2006, 2009, 2013 और 2016 में उत्तर कोरिया ने परमाणु परीक्षण किया. इससे ‘आपसी प्रतिरोध’ की रणनीति सामने आई. अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश 2002 में उत्तर कोरिया और ईरान को शैतानी ताकत कहते हुए पूरी दुनिया में हस्तक्षेप के लिए समर्थन जुटा रहे थे और ये दोनों देश इस आशंका में जी रहे थे कि पता नहीं कब उन पर अमरीकी हमला हो जाए. लेकिन उत्तरी कोरिया ने बार-बार यह कहा कि अगर अमरीका बातचीत करना चाहेगा तो वह परमाणु कार्यक्रम बंद करने आर्थिक विकास पर जोर देने के लिए तैयार है.
अमरीकी साम्राज्यवाद ने बार-बार उत्तर कोरिया को बेईज्जत करने का काम किया. लेकिन आपसी प्रतिरोध ने दोनों देशों को शांति वार्ता की मेज पर आने को बाध्य किया. शांति प्रक्रिया में दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून के योगदान को हमें नहीं भूलना चाहिए. अब यह अमरीका पर निर्भर करता है कि अब वह उत्तर कोरिया के साथ अपने रिश्तों को कैसे सामान्य बनाता है. उत्तर कोरिया पर ट्रंप की नीतियों में बदलाव की आलोचना डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से हो रही है. न्यूयॉर्क टाइम्स में यह लिखा गया कि ट्रंप सिंगापुर में चतुराई में मात खा गए. हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की अल्पमत नेता नैन्सी पेलोसी ने लिखा कि ट्रंप ने उत्तर कोरिया को बराबरी की जगह देकर और वहां यथास्थिति बनाए रखने पर सहमति देकर ठीक नहीं किया.
कोरिया के मामले में अमरीका ने जिस तरह की साम्राज्यवादी नीति 1950 से अपनाई है, उसे देखते हुए उत्तर कोरिया को आगे की बातचीत में सावधान रहने की जरूरत है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय