जेंडर समानता पर ट्रम्प की नीतियों का खतरा
शोभा शुक्ला | सीएनएस
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने शपथ लेते ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (संयुक्त राष्ट्र की सर्वोच्च आयुर्विज्ञान और स्वास्थ्य संस्था) से हाथ खींच लिया, अमरीकी सरकार द्वारा पोषित विश्व के अनेक देशों के स्वास्थ्य कार्यकमों पर आर्थिक रोक लगा दी, रोग नियंत्रण और रोग बचाव के लिए अमरीकी वैश्विक संस्था सीडीसी को विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ कार्य करने से प्रतिबंधित किया और अनेक ऐसे कदम उठाये जिनका नकारात्मक प्रभाव वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा और जेंडर समानता पर पड़ा.
उदाहरण के लिए एक नीति यह है: जो भी देश अमरीका से आर्थिक सहायता लेगा वह न तो अमरीकी धनराशि से और न ही किसी अन्य स्रोत से आए अनुदान से, सुरक्षित गर्भपात की सेवाएं प्रदान नहीं कर सकता है.
अनेक देशों के युवाओं की माँग है कि युवा समेत सभी आयु के लोगों को समस्त आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं मिलनी चाहिए. प्रजनन स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है कि क़ानूनी रूप से सुरक्षित गर्भपात की सेवा सभी ज़रूरतमंद महिलाओं को मिले. प्रत्येक 10 में से 6 बिना नियोजन के हुए गर्भधारण, गर्भपात की ओर जाते हैं और इनमें से लगभग आधे (45%) असुरक्षित गर्भपात होते हैं.
विश्व की सभी सरकारें आगामी मार्च में संयुक्त राष्ट्र में मिल कर 1995 में पारित हुए बीजिंग घोषणापत्र पर हुई प्रगति का मूल्यांकन करेंगी. इस बीजिंग घोषणापत्र में सुरक्षित गर्भपात का वायदा भी शामिल है. बीजिंग घोषणापत्र में यह भी संकल्प है कि सभी को यौनिक और प्रजनन सेवाएं मिलेंगी जिससे कि गर्भपात जैसी स्थिति ही न आए, और यदि आए तो सुरक्षित और कानूनी गर्भपात सेवा सब इच्छुक महिलाओं को मिले.
यूथ लीड वॉयसेज़ की समन्वयक और एचआईवी के साथ जीवित लोगों के राष्ट्रीय नेटवर्क (नेशनल कोएलिशन ऑफ़ पीपल लिविंग विथ एचआईवी) की महासचिव पूजा मिश्रा ने कहा कि भारत में औसतन लगभग 50% महिलाएं गर्भ निरोधक का उपयोग करने में असमर्थ हैं. मातृत्व मृत्यु दर और नवजात शिशु मृत्यु दर में पिछले वर्षों में कुछ कमी तो आई है परंतु स्थिति अभी भी चिंताजनक है. 15-49 वर्ष की लगभग एक-तिहाई महिलाओं ने शारीरिकया या यौनिक हिंसा झेली होती है. भारत में अनुमानतः प्रति वर्ष लगभग 15 लाख लड़कियों का विवाह 18 साल की उम्र से पहले हो जाता है. कम उम्र में विवाह होने और महिला हिंसा के कारण एचआईवी से संक्रमित होने का खतरा बढ़ता है.
पूजा मिश्रा ने ‘शी एड राइट्स’ सत्र में कहा कि ग्रामीण क्षेत्र में एचआईवी के साथ जीवित अनेक युवाओं, विशेषकर लड़कियों और महिलाओं को, यौनिक और प्रजनन स्वास्थ्य संबंधित उपलब्ध सेवाओं के बारे में जानकारी ही नहीं है. साथ ही उन्हें स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के असंवेदनशील व्यवहार का भी डर रहता है, जो उनके द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं लेने में बाधक होता है.
जो युवा एचआईवी के साथ जीवित हैं वे अक्सर डिप्रेशन, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझते हैं, और इनके चलते स्वास्थ्य सेवाओं से लाभान्वित होने से वंचित रह जाते हैं. ग्रामीण या दूर दराज क्षेत्रों में रहने वाले लोग आर्थिक तंगी के कारण भी एचआईवी संबंधी सेवाओं का लाभ उठाने के लिए शहर आने में सक्षम नहीं हो पाते.
मनोज परदेशी ने एचआईवी के साथ जीवित लोगों के अधिकारों के लिए एक लंबे अरसे से संघर्ष किया है. उन्होंने 2006 में ताल फार्मेसी हेल्थकेयर नाम की सेवा शुरू की थी जिससे कि जरूरतमंद लोग सम्मान और अधिकार के साथ, अपनी निजता सुरक्षित रखते हुए, स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठा सकें. इन सेवाओं में एचआईवी एंटीरेट्रोवायरल दवाएं, टीबी दवाएं, हेपेटाइटिस दवाएं, यौन रोग के इलाज, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं आदि सब शामिल हैं. ऑनलाइन फार्मेसी के ज़रिए अनेक सेवाएं लोगों के घर तक पहुँच रही हैं.
मनोज परदेशी ने कहा कि स्वास्थ्य सेवाएं तो हैं परंतु सभी जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच रही हैं. उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य संबंधी जानकारी है, पर सभी जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंचती. एचआइवी से बचने के अनेक साधन हैं परंतु अनेक युवा और अन्य लोग एचआईवी से संक्रमित हो रहे हैं. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी जरूरतमंद लोग उपलब्ध सेवाओं से सम्मान और अधिकार के साथ लाभान्वित हो सकें.
फिलीपींस की लेडी नैन्सी लिसोंड्रा, जो इंटरनेशनल प्लैंड पेरेंटहुड फेडरेशन (आईपीपीएफ) में कार्यरत हैं, ने बताया कि एशिया पसिफ़िक क्षेत्र के देशों में ग़ैर-बराबरी तथा भेदभाव और शोषण के कारण अनेक लोगों के स्वास्थ्य और जीवन पर ख़तरा मंडराता रहता है. पुरुषों की तुलना में महिलाओं और लड़कियों को समान शिक्षा और रोज़गार के अवसर बहुत कम मिलते हैं ,जिसके कारण वे अपनी बुनियादी ज़रूरतों को भी पूरा नहीं कर पाती हैं – जैसे कि महावारी स्वच्छता अनेक महिलाओं और लड़कियों की पहुँच के बाहर है. बहुत सी लड़कियां केवल इसलिए स्कूल नहीं जा पातीं क्योंकि वे सम्मानपूर्वक तरीके से मासिक धर्म भी नहीं कर पाती.
लेडी लिसोंड्रा का कहना है कि हालांकि एशिया पसिफ़िक क्षेत्र के तीन-चौथाई देशों में ऐसे क़ानून हैं जो लोगों को यौनिक और प्रजनन जानकारी और सेवाएँ लेने का अधिकार देते हैं, परंतु ये क़ानून परिवर्तित हो रहे हैं. उदाहरणार्थ फ़िलीपींस देश में गर्भपात सबके लिए नहीं उपलब्ध है. युवाओं को यौनिक और प्रजनन संबंधी सेवाएँ लेने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है- जैसे कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा का अभाव, आर्थिक रूप से इन सेवाओं का व्यय न उठा पाना, अथवा मातापिता या अभिवाभक की संस्तुति के बिना सेवा न मिल पाना.
जब चावल की क़ीमत और माहवारी स्वच्छता के लिए आवश्यक सामान की क़ीमत समान होगी तो अनेक लड़कियाँ और महिलाएँ आर्थिक तंगी के चलते अपनी यौनिक और प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों को प्राथमिकता न दे पाने को मजबूर हो जाती हैं, ख़ासकर वे जो जीविकोपार्जन के लिए कुछ भी नहीं कमा रही हों.
जो महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं अक्सर उनके भी आर्थिक निर्णय और नियंत्रण पुरुषों के हाथ में होते हैं. ‘शी एंड राइट्स’ की समन्वयक शोभा शुक्ला ने कहा कि सभी लड़कियों को, बिना लैंगिक और यौनिक भेदभाव के, पूर्ण शिक्षा अधिकार स्वरूप मिलनी चाहिए, रोज़गार में पुरुष के समान भागीदारी होनी चाहिए, आर्थिक स्वतंत्रता और आर्थिक निर्णय और नियंत्रण भी महिलाओं का होना चाहिए, ज़मीन-जायदाद पर समान अधिकार मिलना चाहिए. जब तक पित्रात्मकता को नारीवादी मानवीय व्यवस्था से नहीं पलटा जाएगा तबतक सबको जेंडर समानता और स्वास्थ्य सुरक्षा कैसे मिलेगी?
दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में बाल विवाह की दर भी चिंताजनक है और कम उम्र में लड़कियों के गर्भवती हो जाने की दर में भी बढ़ोतरी हुई है, जिसके कारण उनकी शिक्षा और रोज़गार-दोनों में भागीदारी बहुत कम हो जाती है.
अनेक सरकारी वायदों के बावजूद एशिया पसिफ़िक के सभी देशों में एक समान व्यापकयौन शिक्षा (कंपलसरी सेक्सुअलिटी एजुकेशन- सीएसई) तक नहीं है. सीएसई में कुछ सुधार ज़रूर हुआ है परंतु सब जगह एक समान सा बदलाव नहीं हुआ है.
वाई-पीयर एशिया पसिफ़िक की मारिया इक़बाल शाह का मानना है कि “कोई भी स्वास्थ्य सेवा सभी लोगों के लिए स्वीकार्य, उपलब्ध, सुलभ और उच्च गुणवत्ता वाली होनी चाहिए. पाकिस्तान में सांस्कृतिक और धार्मिक वर्जनाओं के कारण यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं को बहुत कम स्वीकृति मिलती है. बाल विवाह के कारण लड़कियां कम उम्र में ही गर्भधारण कर लेती हैं, जिसके परिणामस्वरूप मातृ मृत्यु दर और रुग्णता अधिक होती है. साथ ही उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है. कम उम्र में विवाह का लड़कियों की शिक्षा पर भी सीधा असर पड़ता है. पितृसत्तात्मक और पुरुष प्रधान समाज के चलते, सम्मान रक्षा हेतु हिंसा या हत्या (ऑनर किलिंग) भी होती है. युवतियों के लिए गर्भपात को अपराध माना जाता है जो उनके यौन और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है.
“आज फिलीपींस में सबसे जटिल समस्याओं में से एक है फिलीपीन युवाओं के लिए व्यापक यौन शिक्षा का अभाव”- ऐसा मानना है मसबाते फ़िलीपींस के परिवार नियोजन संगठन (फ़ैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ़ फिलीपींस) की उपाध्यक्ष ग्रेसा पेपिटो का.
उन्होंने बताया कि फिलीपींस के अनेक युवा असुरक्षित यौन संबंध, एक से अधिक यौन साथी, लेन-देन संबंधी यौन संबंध, और यहां तक कि बलपूर्वक/ हिंसक यौन संबंध जैसे व्यवहार में संलग्न हैं. ये जोखिम भरे कार्य उन्हें अनपेक्षित गर्भधारण, यौन संचारित संक्रमण और भावनात्मक आघात के अधिक खतरे में डालते हैं. सेक्स के बारे में सटीक और विश्वसनीय जानकारी का अभाव एक बहुत बड़ी बाधा है. कई युवा जानकारी के लिए सोशल मीडिया या साथियों पर निर्भर रहते हैं, जिससे व्यापक रूप से सेक्स संबंधी गलत सूचना फैलती है.
सेक्स से जुड़े विषयों पर घर पर शायद ही कभी खुलकर चर्चा की जाती है, जिससे हमारे युवाओं के लिए सटीक जानकारी प्राप्त करना और भी मुश्किल हो जाता है. इन सब कारणों से किशोरावस्था में और अनियोजित गर्भधारण में वृद्धि हुई है. यह सब स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि व्यापक यौन शिक्षा अब एक विकल्प मात्र नहीं है- यह एक आवश्यकता है. उचित शिक्षा के माध्यम से हम युवाओं को सही निर्णय लेने, अपने अधिकारों की वकालत करने और अपने मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए सशक्त बना सकते हैं.
“फिलीपींस का किशोर गर्भावस्था रोकथाम विधेयक (एडोलेसेंट प्रेगनेंसी प्रिवेंशन बिल) व्यापक यौन शिक्षा के रोल आउट को मजबूत करने और बढ़ती किशोर गर्भावस्था को संबोधित करने के लिए किशोर-अनुकूल स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने का प्रयास करता है.हालाँकि, इस विधेयक को अपनी विधायी यात्रा के दौरान महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और अभी तक इसे सीनेट द्वारा पारित नहीं किया गया है.”
दुनिया की सभी सरकारों को जेंडर समानता और स्वास्थ्य सुरक्षा पर कथनी और करनी में फ़र्क़ मिटाना होगा. विकासशील देशों को विकसित देशों के अनुदानों पर निर्भरता कम या खत्म करनी होगी, विश्व बैंक (और अन्य ऐसे बैंक जैसे कि एडीबी, एआईआईबी आदि) से क़र्ज़ लेना कम या बंद करना होगा, और आत्मनिर्भरता के साथ सतत विकास लक्ष्यों पर खरे उतरना होगा.