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आदिवासियों को मिला ‘हैबीटेट राइट्स’

नई दिल्ली | बीबीसी: क्या होगा जब आदिवासियों को उनका ‘हैबीटेट राइट्स’ मिल जायेगा. इसे महसूस करने के लिये मध्य प्रदेश के उन सात गांवों में जाना पड़ेगा जहां के आदिवासियों को हाल ही में यह अधिकार मिला है. आदिवासियों को अब अहसास हो गया है कि जमीन उनकी है तथा सरकार या कोई भी निजी कंपनी उन्हें वहां से बेदखल नहीं कर सकती है. बीबीसी के लिये आलोक पुतुल की एक रिपोर्ट. सिलपिड़ी गांव के बैगा आदिवासी चर्रा सिंह रठूरिया से अगर आप ‘हैबीटेट राइट्स’ को लेकर सवाल पूछें तो उनकी आंखों में चमक आ जाती है. अंग्रेज़ी और हिंदी में विस्तार से इसका मतलब समझाते हुए वे कहते हैं, “अब हमारे गांव में कोई कंपनी खदान खोदकर गांव को बर्बाद नहीं कर सकती. कोई सरकार एक खूंटा नहीं गाड़ सकती. अब जंगल हमारा है. हमारे पास इसका रहवास अधिकार है.”

चर्रा सिंह रठूरिया का गांव डिंडौरी ज़िले के उन सात गांवों में शामिल है, जिन्हें वर्ष 1890 में ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्र रूप से रहवास का अधिकार दिया था. 23,858 एकड़ में फैले इन सात गांवों को बैगा चक का नाम दिया गया, जिसमें मूल रूप से विशेष संरक्षित बैगा जनजाति रहती थी. चर्रा सिंह कहते हैं, “हमारा बैगा चक देश का पहला इलाक़ा है, जिसे अब वन अधिकार क़ानून के तहत महीने भर पहले हैबीटेट राइट्स का पट्टा दिया गया है.”

क्या है हैबीटेट राइट्स?
देश की 75 विशेष संकटग्रस्त आदिवासी समूह के द्वारा आजीविका, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, आत्मिक, धार्मिक एवं पवित्र स्थानों में पूजा के उपयोग किये जाने वाले संपूर्ण रूढ़िजन्य भू-भाग को हैबीटेट राईट्स के रूप में मान्यता देने का प्रावधान. इस भू-भाग पर किसी भी तरह के निजी या सरकारी हस्तक्षेप से पहले समुदाय की स्वीकृति आवश्यक होगी.

असल में वर्ष 2006 में देश भर में लागू किए गये वन अधिकार क़ानून में व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार के अलावा आवास अधिकार यानी हैबीटेट राइट्स का प्रावधान है. लेकिन देश में कहीं भी इस प्रावधान के तहत लोगों को अधिकार नहीं दिया गया.

बैगा महापंचायत के नरेश विश्वास बताते हैं कि वन अधिकार क़ानून लागू होने के बाद भी बैगा चक के आदिवासियों के पास दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं थे, जिसके कारण उनके व्यक्तिगत अधिकार पत्र के आवेदन भी ख़ारिज किए जाने लगे. इसके बाद बैगा महापंचायत ने व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार के साथ-साथ आवास अधिकार यानी हैबीटेट राइट्स के लिये बैगा आदिवासियों के बीच बैठक का सिलसिला शुरू किया.

विश्वास कहते हैं, “बैगा आदिवासियों में पारंपरिक शासन व्यवस्था है जिसमें मुकद्दम यानी मुखिया से लेकर दीवान, समरथ और दवार जैसे पद हैं. हमने इन्हें एकजुट करके विशेष ग्राम सभाएं बुलाई. ज़िले के कलेक्टर को भी पूरी प्रक्रिया के बारे में बताया गया, उन्हें ज्ञापन सौंपे गये.”

सिलपिड़ी, तांतर, कांदापानी, अजगर, धुरकुटा, ढाबा, जिलंगको गांवों को हैबीटेट राइट्स मिला है.

बैगा चक के अजगर गांव के जोनू सिंह रठूरिया बताते हैं कि सबसे पहली बैठक उनके गांव से शुरू हुई और उन्होंने बैगा महापंचायत के साथियों के साथ मिलकर समुदाय के लोगों को एकजुट करना शुरू किया. जोनू सिंह कहते हैं, “साल भर में हमारी मेहनत रंग लाई और बैगा एकजुट हो गए. इसके बाद सरकार को हमारी स्थिति समझ में आई और हमें हैबीटेट राइट्स का प्रमाण पत्र देना पड़ा.”

ज़िले की कलेक्टर छवि भारद्वाज का कहना है कि देश में पहली बार बैगा चक के सात गांवों में हैबीटेट राइट्स का प्रमाण पत्र वितरित किया गया है. भारद्वाज का कहना है कि बैगा आदिवासियों का जीवन जिस तरह से जंगल के साथ रचा-बसा हुआ है, इन आदिवासियों को दिया गया हैबीटेट राइट्स का प्रमाण पत्र केवल उसी व्यवस्था को बचाने और बनाए रखने की कोशिश का हिस्सा है.

ज़ाहिर है, हैबीटेट राइट्स का प्रमाण पत्र मिलने के बाद बैगा आदिवासी बेहद ख़ुश हैं.

धुरकुटा पंचायत की सुशीला का कहना है कि पिछले साल भर से उनके गांव को कान्हा बाघ परियोजना में शामिल किए जाने की ख़बर आ रही थी लेकिन हैबीटेट राइट्स मिलने के बाद अब गांव के लोग उस आशंका से मुक्त हैं.

आठवीं तक पढ़ी सुशीला कहती हैं, “अब हम अपने तरीक़े से जी सकेंगे. वन विभाग का कोई अधिकारी हमें हमारे जंगल से भगा नहीं सकेगा. अब कंद-मूल, जड़ी-बूटी, साग-भाजी सब बचे रहेंगे.”

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