हाशिये पर रहने को बाध्य
ट्रांसजेंडर लोगों के लिए प्रस्तावित विधेयक गैरसंवेदनशील है और पुरानी सोच से ग्रस्त है. सरकार अगले संसद सत्र में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए एक नया विधेयक पेश करने वाली है. सालों संघर्ष करके हासिल किए गए अधिकारों को इस विधेयक के जरिए वापस लेने की कोशिश सरकार ने की है. इससे इस समुदाय के लोग न सिर्फ हैरान हैं बल्कि उनमें गुस्सा भी है. सरकार द्वारा बनाई गई 2014 की एक समिति, 2015 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और 2015 में राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित निजी विधेयक के उलट प्रावधान इस प्रस्तावित विधेयक में हैं. सामाजिक न्याय और आधिकारिता पर स्थायी संसदीय समिति ने इस विधेयक के बारे में जो सिफारिशें की थीं उन्हें भी सरकार ने खारिज कर दिया. समिति ने कहा था कि विधेयक में ट्रांसजेंडर और इस तरह के दूसरे लोगों के हितों की अनदेखी की गई है.
इस विधेयक में ऐसे लोगों की परिभाषा ही ठीक से नहीं दी गई है. न ही इनके लिए वैकल्पिक पारिवारिक ढांचे को मान्यता दी गई है. साथ ही ऐसे लोगों को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी आरक्षण के मसले पर विधेयक न्याय नहीं करता और न ही ऐसे लोगों से भेदभाव करने वालों के खिलाफ कोई ठोस प्रावधान इसमें है. इससे यही लगता है कि यह विधेयक पुरानी सोच को ही दिखाता है. किसी की सेक्सुअलिटी का उसके विकास में अहम योगदान होता है. यह विधेयक ट्रांसजेंडर लोगों को जिस तरह से परिभाषित करता है, वह हास्यास्पद है.
इसमें कहा गया है, ‘ट्रांसजेंडर व्यक्ति वह है जो न पूर्णतः महिला और न पूर्णतः पुरुष, या फिर दोनों का मिलाजुला है, या फिर न पुरुष और न स्त्री और जिसकी मानसिक स्थिति उसके जन्म के समय के लिंग के अनुकूल नहीं है.’ जबकि ट्रांसजेंडर समुदाय का कहना है कि उन्हें सामाजिक, कानूनी और चिकित्सीय तौर पर ऐसे व्यक्ति के तौर पर परिभाषित किया जाए तो या तो पुरुष हैं या स्त्री लेकिन यह उनकी खुद से तय की गई पहचान नहीं है. इंटरसेक्स से तात्पर्य उन लोगों से है जो सामाजिक, कानूनी और चिकित्सीय तौर पर न तो पुरुष की श्रेणी में हैं और न महिला की श्रेणी में.
लैंगिक पहचान के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में एक महत्वपूर्ण आदेश दिया था. अदालत ने स्वनिर्धारण का अधिकार इस समुदाय को दिया था. अभी एक हलफनामा देकर ट्रांसजेंडर व्यक्ति औपचारिक तौर पर अपनी लैंगिक निर्णय को बता सकता है और फिर उसे इसी आधार पर मान्यता मिल जाती है. विधेयक में इस अधिकार को खत्म करके यह तय करने का अधिकार एक जिला स्तरीय समिति को देने का प्रावधान है. जाहिर सी बात है कि ऐसी व्यवस्था में ऐसे लोगों को कई तरह के शोषण का सामना करना पड़ेगा. यह कुछ उसी तरह का है कि जैसे लोगों को लाभ लेने के लिए जाति या विकलांगता प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना पड़ता है. इस बारे में जब संसदीय समिति ने सामाजिक कल्याण मंत्रालय से पूछा तो उसने कहा कि भारतीय संविधान में लिंग के आधार पर किसी प्रावधान का जिक्र नहीं है सिर्फ इस बात को छोड़कर कि महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान किए जाने चाहिए!
इस विधेयक में कम उम्र के टीनएजर्स की समस्याओं के समाधान का भी कोई प्रावधान नहीं है जिन्हें परिवार के अंदर कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इसमें कहा गया है कि किसी भी ट्रांसजेंडर को उसके परिवार से सक्षम अदालत के आदेश के बिना अलग नहीं किया जा सकता और यह निर्णय उस व्यक्ति की भलाई के लिए होना चाहिए. अगर किसी ट्रासजेंडर का परिवार उसकी देखरेख ठीक से करने में सक्षम नहीं है तो उसे पुनर्वास केंद्र में रखा जाएगा. लंबे समय से ट्रांसजेंडर समुदाय की यह मांग रही है कि ट्रासजेंडर की परिभाषा में हिजड़ों या अरावनी समुदाय के बुजुर्गों को शामिल किया जाना चाहिए. ये कम उम्र के ट्रासजेंडरों को गोद लेते हैं ताकि ये सुरक्षित रह सकें. स्वास्थ्य और इस समुदाय के लोगों के कुछ कार्यों को गैरआपराधिक बनाने के मसले पर भी विधेयक चुप है. इनके खिलाफ होने वाले अत्याचार के मामलों पर भी विधेयक में प्रावधान नहीं दिखता.
इससे साफ पता चलता है कि इस गंभीर मसले पर सरकार ने किस तरह का रुख अपनाया है. इन्हें सामाजिक तौर पर अपमान का सामना करना पड़ता है और हाल ही में इन्हें कानूनी तौर पर मान्यता दी गई है. राजनीति, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में उनकी भागीदारी इस वजह से नहीं रही और पुलिस और स्वास्थ्यकर्मियों का रवैया उनके खिलाफ शोषण वाला और गैरसंवेदनशील रहा है. यह विधेयक न सिर्फ सरकार की नाकामी दिखाता है बल्कि समाज की नाकामी भी दिखाता है. इसकी अनदेखी ठीक नहीं है.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय