लार्जर दैन लाइफ!
दिनेश श्रीनेत | फेसबुक : हम सब की ख्वाहिश होती है एक ऐसा जीवन जीने की. भले खुद न जी सकें, उसकी कल्पना, तमन्ना या फंतासी हमें भाती है.
जान की परवाह न करने वाले नायक. सैकड़ों को धूल चटा देने वाले जांबाज़ योद्धा. देश के लिए शहीद हो जाने वाले. प्रेम में सब कुछ छोड़ देने वाले. जीवन के साथ जुआ खेलने वाले. ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हो, ‘बेनहर’, ‘ग्लैडिएटर’, ‘द गॉड फादर’, हैरी पॉटर सिरीज़ हो या फिर ‘द डार्क नाइट’. ये फिल्में इसीलिए महान हैं कि ये हमारे भीतर छिपी इसी दुनिया से, इसी आकांक्षा से रू-ब-रू कराती हैं.
‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’ को भी हम इसी उम्मीद से देखने जाते हैं. ये फिल्म अपनी पैकेजिंग में इसी लार्जर दैन लाइफ का, एक एपिक फिल्म का भरोसा जगाती है. बाहुबली और उसके सीक्वेल से हमारी उम्मीदें और भी बढ़ जाती हैं. हम थोड़ा समझौता भी कर लेते हैं कि हिन्दुस्तानी फिल्म है तर्क-वितर्क को परे रखकर देखना होगा. आसान शब्दों में दिमाग घर छोड़कर आएं.
लेकिन इन फिल्मों को बनाने वाले ये भूल जाते हैं कि कल्पना अपनी उड़ान भी हक़ीकत के डैनों से भरती है. अतर्क्य का भी अपना एक तर्कशास्त्र होता है. अवास्तविकता भी ऐसी होनी चाहिए जो वास्तविक सी लगे. ‘हैरी पॉटर’ की लेखिका जेके रोलिंग और ‘ट्विलाइट सागा’ की स्टीफन मायर की सारी मेहनत यहीं लगती है और उन्हें मकबूल बनाती है. ठीक इसी जगह पर फिल्म मात खा जाती है. दिमाग को भले घर छोड़कर आ जाएँ पर वो कुलबुलाता रहता है. अरे, ऐसा क्यों, वैसा क्यों, क्या बेवकूफी है… टाइप.
एक भव्य पृष्ठभूमि है. सत्रहवीं शताब्दी. भारत में अपने पांव पसारते ब्रिटिश. छोटी-बड़ी रियासतें. तिलिस्म, बहादुरी और रहस्यों के अंधेरे में डूबा अछूता, अनछुआ हि्न्दुस्तान. ठग, ऐय्यार, सिपाही, नर्तकी. लेकिन इन सबको विश्वसनीय बनाने के लिए जो हुनर चाहिए वो सिरे से नदारद है.
पहले मुझे इसकी खूबियों को तलाशने दें. अमिताभ की फिल्म में इंट्री का दृश्य अगर चुराया हुआ नहीं है तो अच्छा है. फातिमा सना शेख के चेहरे को देखकर लगता है कि उन्हें सजा दी गई है कि इस फिल्म में तुम्हें फाइट करनी है मगर उनके फाइट सीक्वेंस थोड़ा मन बहलाते हैं. उनकी भौंहों पर चोट का निशान अच्छा लगता है मगर पूरी फिल्म में वह इधर से उधर सरकता रहा है.
कैटरीना कैफ जब-जब स्क्रीन पर आती हैं तो आपका मन होता है कि अब उठकर चल दें, तभी टिकट की कीमत याद आ आती है. सत्रहवीं सदी की नर्तकी, नाम सुरैया और कपड़े हेलन जैसे. आमिर इस बार लाउड हो गए हैं. पूरी फिल्म में वे खुद कन्फ्यूज रहे हैं कि वे अच्छे हैं या बुरे या ग्रे शेड वाले. निर्देशक जब उनको जैसा बोला उन्होंने अपनी सारी मेहनत झोंक दी पर जैक स्पैरो जैसा जादू न जगा सके.
फिल्म में पैसे जरूर खर्च किए गए होंगे मगर पैसे ज्यादा जरूरी है कल्पनाशीलता. आज़ाद यानी अमिताभ बच्चन का गुप्त ठिकाना निहायत ही फुसफुसा है. उसे देखकर बचपन में दूरदर्शन पर देखे हातिमताई या बिक्रम वेताल के सेट याद आते हैं. और पाल वाले जहाज तो कमाल के हैं. सारे के सारे एक ही कंपनी से खरीदा हुआ प्रोडक्ट लगते हैं. ठग भी उसी जहाज में घूम रहे हैं और ब्रिटिश भी.
क्लाइमेक्स देखकर तो आपका सिर चकरा जाएगा. कब कौन कहाँ पहुंच जाएगा, खुद निर्देशक भी शायद भूल गया था. या अंत में पटकथा के कागज ऊपर-नीचे हो गए. अंगरेज अफसर की सभा में सारे ठग आराम से घूमते हैं उन्हें कोई पहचान नहीं पाता. देखते-देखते अमिताभ की टीम रावण के पुतले के भीतर पहुंच जाती है. फिर रोप वे पर सरकता एक पिंजरा भी आ जाता है.
बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है लेकिन अगर अमिताभ की हर छलांग के साथ ‘हइया हइया’ बजेगा तो ‘हइया हइया’ अपना असर खो देगा… यह बात तो आजकल के बच्चे भी समझते हैं. निर्देशक को भी समझनी थी.
ऐसी मनोरंजक फिल्मों की स्तरीयता पर ध्यान देना चाहिए. न कि उन्हें बचकाना बनाया जाना चाहिए. एक अच्छा कमर्शियल सिनेमा भी दुनिया में भारतीय सिनेमा की धाक जमा सकता है. जैसा कोरियन सिनेमा, हांगकांग या हॉलीवुड ने किया.
‘ठग्स आफ हिन्दुस्तान’ की परिकल्पना में अपार संभावनाएं थीं. वह अब तक हिन्दी सिनेमा की अनछुई विधा आल्टरनेट हिस्ट्री तक जा सकती थी. नितांत कल्पना को यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है. क्वैंटिन तोरंतोनी की ‘इन्ग्लोरियस बास्टर्ड्स’ इसका उदाहरण है. लेकिन दुर्भाग्य से हमारे फिल्मकार अभी तक यह नहीं समझ पाए कि मनोरंजन का मतलब दर्शकों को बच्चा या मूर्ख समझना नहीं होता.