बैठने का अधिकार
केरल में खुदरा क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक वर्ग को बैठने का अधिकार दिया गया है. क्या दूसरे राज्य भी ऐसा करेंगे ? सात सालों के संघर्ष के बाद खुदरा दुकानों में काम करने वालों को कामकाजी घंटों में बैठने का अधिकार मिला है. देश के दूसरे हिस्सों की तरह इन दुकानों में काम करने वाले लोगों जिनमें से अधिकांश महिलाएं हैं, उन्हें 12 घंटे की शिफ्ट में खड़ा ही रहना पड़ता है. शौचालय जाने के लिए उन्हें पूरे दिन में दो बार की अनुमति है. दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के नियमन संबंधित कानून में संशोधन करके केरल कैबिनेट ने यह अनिवार्य कर दिया है कि इन कर्मचारियों को बैठने की सुविधा मिले, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न न हो और रात की शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं को सुरक्षित घर पहुंचने के लिए परिवहन सुविधा मिले.
इस संघर्ष के दो सबक हैं. पहली बात तो यह कि देश भर में खुदरा क्षेत्र में लोगों को अमानवीय परिस्थितियों में काम करना पड़ता है. दूसरी बात यह कि बगैर किसी राजनीतिक दल के जुड़ाव के अनौपचारिक क्षेत्र में महिला श्रमिक संगठन प्रभावी हो रहे हैं.
2010 में कोझिकोड की एसएम स्ट्रीट कारोबारी केंद्र में काम करने वाली महिलाएं असंगठित मेघला थोजिहिलाली यूनियन यानी एएमटीयू के तहत शौचालय की मांग को लेकर गोलबंद हुईं. इन महिलाओं को अगल-बगल के रेस्टोरेंट के शौचालयों का इस्तेमाल करना पड़ता था. वहां वे दिन में एक-दो बार ही जा सकती थीं और ग्राहकों की अश्लील बातों को उन्हें झेलना पड़ता था. 2014 में कल्याण साड़ी में काम करने वाली महिलाओं ने बैठने के अधिकार को लेकर हड़ताल करके राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया था. लंबे समय तक खड़ा रहने और शौचालय नहीं जा सकने के कारण महिलाओं को पीठ में दर्द, जोड़ों में दर्द, पैरों में सूजन, किडनी संबंधित दिक्कतों आदि का सामना करना पड़ रहा है.
इस मांग पर नियोक्ताओं ने महिलाओं का स्थानांतरण कर दिया और उन्हें नोटिस दिया कि अगर वे बैठना चाहती हैं तो घर में ही रहें. एएमटीयू ने इनके अभियान को समर्थन देते हुए केरल राज्य मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अर्जी दी. मीडिया से भी बात की और नियोक्ताओं से भी.
देश में खुदरा क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की कामकाजी परिस्थितियां बेहद मुश्किल हैं. चाहे वे फैंसी मॉल में ही क्यों न काम कर रहे हों. ऑनलाइन खरीदारी बढ़ने के बावजूद संगठित खुदरा बाजार बढ़ रहा है. मध्य वर्ग में विस्तार, शहरीकरण में तेजी और प्रतिस्पर्धा से एक तरह की ‘खुदरा क्रांति’ हो रही है.
खुदरा क्षेत्र में काम करने वालों में अधिकांश युवा महिलाएं हैं. जो कम पढ़ी-लिखी हैं और जिनमें कौशल का अभाव है. मीडिया में दुकानों के मालिकों ने ये कहा कि वे अपने कर्मचारियों को दिन भर खड़ा इसलिए रखना चाहते हैं क्योंकि ग्राहकों को यह सम्मानजनक लगता है. खुदरा क्षेत्र के नियोक्ताओं ने और लचीले श्रम कानूनों की मांग की है. महाराष्ट्र सरकार ने इसे मानते हुए साल में 365 दिन 24 घंटे दुकान खोले रखने की अनुमति दे दी है. इसमें कर्मचारियों को तीन शिफ्ट में काम करना होगा. बेरोजगारी की स्थिति को देखते हुए इस क्षेत्र में काम करने वाले मोलभाव की स्थिति में नहीं होती और कर्मचारी संगठनों के हिस्सा नहीं बन पाते.
सीमित क्षेत्र में ही सही लेकिन महिलाओं ने पुरुषों या उनके संगठनों पर आश्रित रहने के बजाए अपना संगठन बनाकर काम करना शुरू कर दिया है. मुन्नार टी एस्टेट में काम करने वाली महिलाएं एक उदाहरण हैं. इन्होंने बेहतर मजदूरी और कामकाजी परिस्थितियों के लिए संघर्ष छेड़ा. जब केंद्र ने भविष्य निधि के नियमों को बदला तो इससे प्रभावित बेंगलुरु के वस्त्र उद्योग में काम करने वाली महिलाएं सड़कों पर उतरीं. एएमटीयू अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे कई संगठनों को आपस में जोड़ता है.
केरल में एएमटीयू के संघर्ष में इसके नेतृत्व ने साफ कर दिया है कि संशोधित विधेयक में भ्रम पैदा करने वाली भाषा का इस्तेमाल किया गया है और इससे नियोक्ताओं को फायदा होगा. संशोधित कानून के तहत हर चार घंटे में आधे घंटे का विश्राम मिलेगा. लेकिन यह प्रावधान कभी माना नहीं गया. संशोधित कानून से यह स्पष्ट नहीं हो रहा कि महिलाएं जब ग्राहकों को सामान नहीं दिखा रही होंगी तब बैठेंगी या फिर विश्राम के वक्त. यहां तक संघर्ष करने वाली इन महिलाओं को ही इसका क्रियान्वयन भी सुनिश्चित करना होगा.
आर्थिक उदारीकरण के परिप्रेक्ष्य में नए रोजगार पैदा होने के बावजूद श्रमिक संगठनों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. ये नौकरियां पूरी तरह से अनौपचारिक क्षेत्र में हैं जहां सुरक्षा और नौकरी की सुरक्षा बेहद कमजोर है. इनमें महिलाओं की संख्या अधिक है. श्रमिक संगठनों को अपनी रणनीतियों पर फिर से विचार करना होगा. उन्होंने श्रमिक शक्ति में हो रहे बदलावों को समझना होगा और एक ऐसी सरकार से निपटना होगा जो श्रम सुधारों के नाम श्रमिकों की मुश्किलें और बढ़ा रही है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का