आदिवासियों में तेज़ी से बढ़ा टीबी
नई दिल्ली | डेस्क: भारत में आदिवासी बहुल गांवों की आबादी में 32 फ़ीसदी की कमी आई है. इसके अलावा आदिवासियों में खराब पोषण, धुम्रपान और शराब के कारण फुफ्फुसीय टीबी का प्रसार सामान्य आबादी की तुलना में अधिक है.
फुफ्फुसीय तपेदिक यानी पल्मोनरी टीबी क्षयरोग का एक आम रूप माना जाता है, जिसमें जीवाणु फेफड़ों पर हमला करते हैं.
चेन्नई के राष्ट्रीय क्षय रोग अनुसंधान संस्थान में सामाजिक और व्यवहार अनुसंधान विभाग की वैज्ञानिक बीना थॉमस और उनके सहयोगियों ने 17 राज्यों के विभिन्न जिलों के 88 आदिवासी बहुल गांवों में अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है.
देश के जिन 17 राज्यों की आदिवासी आबादी पर यह अध्ययन किया गया, उनमें छत्तीसगढ़ भी शामिल है.
इस अध्ययन में 92,038 पात्र लोगों में से सर्वाधिक 16,065 आदिवासी मप्र से, 9,262 आदिवासी राजस्थान से, 8569 आदिवासी महाराष्ट्र से, 7782 झारखंड से और 6700 छत्तीसगढ़ से पाए गये थे.
छत्तीसगढ़ में कुल 5126 यानी 76.5 फीसदी लोगों की जांच की गई.
आंकड़े बताते हैं कि देश की आधे से अधिक, 104 मिलियन आदिवासी आबादी, भारत के 809 आदिवासी बहुल विकासखंडों के बाहर रहती हैं. जनजातीय आवास में इस मूलभूत परिवर्तन पर प्रकाश डालते हुए, रिपोर्ट ने 2011 की जनगणना का हवाला दिया जिसमें 2001 और 2011 के बीच पूरी तरह से आदिवासी आबादी वाले गांवों की संख्या में 32 प्रतिशत की गिरावट देखी गई.
PLOS में इस महीने प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि शोधकर्ताओं ने 74,532 व्यक्तियों की जांच की और पाया कि जनजातियों में पल्मोनरी यानी फुफ्फुसीय टीबी का कुल प्रसार प्रति 100,000 लोगों पर 432 था, जबकि व्यापक आबादी में यह 100,000 पर 350 था.
हालांकि, आदिवासी आबादी में टीबी के प्रसार में राज्य-व्यापी भिन्नता थी, ओडिशा में सबसे अधिक प्रसार (803 प्रति 10,000) और जम्मू और कश्मीर में सबसे कम (127 प्रति 100,000) दिखा.
92038 पात्र व्यक्तियों में से कुल 74532 (81.0%) की जांच की गई; 2675 (3.6%) में टीबी के लक्षण या एच/ओ एटीटी पाए गए। टीबी का समग्र प्रसार प्रति 100,000 जनसंख्या पर 432 था.
मल्टीपल लॉजिस्टिक रिग्रेशन एनालिसिस से पता चला है कि 35 साल और उससे अधिक उम्र के लोगों में बीएमआई <18.5 किग्रा/एम2, एच/ओ एटीटी, धूम्रपान और/या शराब का सेवन करने वाले लोगों में बैक्टीरियोलॉजिकल रूप से पॉजिटिव पीटीबी का खतरा अधिक था. वजन कम होना इस जनजातीय आबादी में तपेदिक से जुड़ा अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण लक्षण था. इसके बाद रात को पसीना, थूक में खून और बुखार जैसे लक्षण थे.