‘लोकसभा अध्यक्ष के फैसले पर अदालत में विचार नहीं’
नई दिल्ली | एजेंसी: सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सदन में लिए गए फैसले की न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती. प्रधान न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा, न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ और न्यायमूर्ति रोहिंटन फाली नारिमन की पीठ ने कहा, “सभा अध्यक्ष द्वारा सदन के कक्ष में दी गई व्यवस्था न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं होती.”
लोकसभा के पहले अध्यक्ष जी. वी. मावलंकर द्वारा दी गई व्यवस्था को चुनौती देते हुए दायर जनहित याचिका खारिज करते हुए अदालत ने यह कहा. मावलंकर ने तब यह व्यवस्था दी थी कि एक विपक्षी पार्टी के नेता को तभी नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया जाएगा जब उस दल के पास सदन में कुल सदस्य संख्या का 10 प्रतिशत सदस्य हों.
मावलंकर 15 मई 1952 से 27 फरवरी 1956 तक लोकसभा अध्यक्ष रहे थे.
प्रधान न्यायाधीश लोढ़ा ने सवाल किया, “मावलंकर की व्यवस्था अधिसूचित नहीं है और यह कहीं नहीं है. क्या ऐसे में इस तरह की व्यवस्था न्यायिक समीक्षा के अधीन आती है.”
याची वकील एम. एल. शर्मा को सामग्री लाने और अदालत के सामने समीक्षा के लिए वैधानिक मुद्दा पेश करने के लिए कहते हुए अदालत ने उन्हें यह कहते हुए फटकार लगाई कि ‘बिना किसी पूर्व परिश्रम, बिना किसी सामग्री के आप चाहते हैं कि अध्यक्ष की व्यवस्था को निरस्त किया जाए.’
शर्मा को स्पष्ट चेतावनी देते हुए अदालत ने कहा, “यह तो हद ही हो गई है और जो हद से ज्यादा हो तो उसका परिणाम भी भुगतना होता है.”
शर्मा ने कांग्रेस पार्टी के विपक्ष में सबसे बड़ा दल होने का आधार बनाते हुए उसके नेता को विपक्ष का नेता पद देने के लिए याचिका दायर की थी.
इस पर महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने कहा कि लोकसभा में कांग्रेस नेता को विपक्ष के नेता पद का दर्जा नहीं दिया जा सकता क्योंकि उसके पास विपक्षी दल का मान्यता हासिल करने के लिए निर्धारित न्यूनतम 55 सीट नहीं है.