सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता में सरकारी पेंच?
कनक तिवारी| फेसबुक
अशेष कवि दुष्यंत कुमार ने जनसलाह दी थी कि आसमान में भी सूराख हो सकता है, यदि कोई तबियत से पत्थर तो उछाले. हालिया वर्षों में जनता ने पत्थर तो नहीं, आसमान की ओर कई सवाल तबीयत से उछाले. कुछ सवाल एक शीशमहल में लगे. उसकी जनप्रतिष्ठा की कांच की दीवारें कुछ चटक गईं. ऐसा जनता को लगा. अंदर के लोगों को नहीं दिखा होगा.
उस शीशमहल सुप्रीम कोर्ट को संविधान निर्माताओं ने मशक्कत, जद्दोजहद, समझदारी, बहसमुबाहिसा और भविष्यमूलक दृष्टि से रचा. कार्यपालिका और विधायिका के कर्तव्य, फैसलों, विलोप और आलस्य तक के खिलाफ समझाइश, टिप्पणी और विवेक को बर्खास्त करना भी सुप्रीम कोर्ट के दायरे में रचा. कई पेंच डाल दिए जो मासूम जनता को नहीं दिखे. न्याय मिलता दीखता है, लेकिन मिलता नहीं है.
प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंगरेजी न्यायशास्त्र की अवधारणाएं उकेरकर संविधान की बिसात पर बिछाने की कोशिशें कीं. संविधान सभा के कई सदस्य इन्सानी गरिमा, अस्तित्व, संभावनाओं और प्रोन्नत होते अधिकारों को ‘खुल जा सिम सिम‘ कहने की हैसियत रखते. तर्कबद्ध पैरोकार सरकारी नस्ल की पैरवी से मुखर होकर असहमत होते थे.
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, संसद और कानून के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के.टी. शाह, पंडित ठाकुर दास भार्गव, प्रोफेसर शिब्बनलाल सक्सेना, दामोदर स्वरूप सेठ, काज़ी करीमुद्दीन, आर के सिधवा और नज़ीरुद्दीन अहमद जैसे सप्तर्षि तारामंडल के नाम नहीं सुने जाते. वे अपनी बात मनवाने में कांगेस के जबरदस्त बहुमत के कारण असफल हो जाते थे. अमेरिका के राष्ट्रपति जाॅन केनेडी ने कहा है सफलता के कई अभिभावक पैदा हो जाते हैं, लेकिन असफलता अनाथ ही रहती है.
के.टी. शाह ने तजवीज़ की संविधान में लिखा जाए कार्यपालिका और विधायिका से अलग तथा मुकम्मिल तौर पर सुप्रीम कोर्ट आज़ाद रहेगी. सुप्रीम कोर्ट नागरिक आज़ादियों का परकोटा है. वहां हर हालत में कार्यपालिका और विधायिका का अनधिकृत प्रवेश रोकना होगा. बेहद प्रतिभा के धनी कन्हैय्या लाल माणिकलाल मुंशी ने शाह का विरोध करते ज़रूर कहा मैं आश्वस्त हूं सुप्रीम कोर्ट का जज अपना कार्यकाल पूरा होने पर सरकार से किसी पद की उम्मीद नहीं रखेंगे.
यूरो-अमेरिकी बुद्धि के समर्थक ज़हीन प्रवक्ता अलादि कृष्णास्वामी अय्यर ने गोल मोल तर्क रखते मुंशी के स्वर में स्वर मिलाकर भी कहा मैं कार्यपालिका और न्यायपालिका के पूरी तौर पर पृथक रहने के सामान्य सिद्धांत की खुले दिल से ताईद करता हूं. फिर बहस का रुख मोड़ दिया कि कार्यपालिका को भी कई तरह के न्यायिक कार्य करने तो पड़ते हैं.
आर. के. सिधवा ने यादों को खुरचते कहा पचास साल से कांग्रेस कह रही है न्यायपालिका को सरकार से अलग रखा जाएगा. पी के सेन ने याद दिलाया यह मुद्दा राजा राममोहन रॉय के समय से जनता में जीवंत है. सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता के मजबूत और तार्किक समर्थन में नजीरुद्दीन अहमद ने कहा विरोधाभास है इस मांग के समर्थक सत्ता में बैठकर अपनी वैचारिकता को ही उलट रहे हैं. अंगरेज़ी बोझ की गुलाम मनोवृत्ति के कारण विरोध तक नहीं कर पा रहे हैं. कार्यपालिका और न्यायपालिका की जुगलबंदी का सिद्धांत ज़हरीला है. जनमत हर हालत में न्यायपालिका में विश्वास कायम रखना चाहता है. उसका विश्वास टूटा तो लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं होगा.
धाकड़ सदस्य शिब्बनलाल सक्सेना ने सुप्रीम कोर्ट के जजों को मंत्रिपरिषद की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त करने के खतरे से आगाह करते कहा नियुक्ति भले ही कार्यपालिका की सिफारिश पर राष्ट्रपति करें, लेकिन नियुक्ति ही तब हो जब संसद का दो तिहाई बहुमत समर्थन की मुहर लगा दे. के.टी. शाह ने सुर में सुर मिलाते कहा राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति करेंगे-यह केवल भाषा का आवरण है. राय तो प्रधानमंत्री की ही मानी जाएगी. प्रधानमंत्री को इतना ताकतवर बना दिया जाएगा कि जजों, राजदूतों और राज्यपालों की नियुक्ति में आखिरी आवाज हों, तो प्रधानमंत्री के तानाशाह बनने में कौन सी कसर रहने वाली है. उन्होंने भी नियुक्ति के पहले राज्यसभा से सलाह लेने का सुझाव दिया जिससे पारदर्शिता कायम रहे.
जवाहरलाल नेहरू ने कुछ दिलचस्प संकेत सूत्र अनायास बिखरा दिए. नेहरू ने कहा आज़ाद भारत में बहुत से काबिल जजों की जरूरत पड़ेगी. अनुभव, ज्ञान और प्रतिष्ठा को ध्यान में रखना तो ज़रूरी है. जज ऐसे हों जिनकी देश में प्रतिष्ठा हो और जो कार्यपालिका और सरकार के खिलाफ मजबूती से खड़े हो सकें, चाहे जो भी न्याय की राह में आड़े आए. उन्हें राजनीतिक दबावों से मुक्त रहते राजनीतिक पार्टियों के रहमोकरम पर रहने की ज़रूरत नहीं होगी.
अनंतषयनम आयंगर ने सुझाव दिया कि वकीलों और जजों में से ही सुप्रीम कोर्ट के जज बनाने के अतिरिक्त प्रसिद्ध विधिविशेषज्ञों को सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाए. अमेरिका के सबसे तेज़ तर्रार जज फेलिक्स फ्रैंकफर्टर हार्वर्ड युनिवर्सिटी के प्रोफेसर को राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने सुप्रीम कोर्ट जज नियुक्त कर दिया है. डॉक्टर अंबेडकर ने जवाबी भाषण में सभी सुझाव खारिज कर दिए. हालांकि माना कि इस सिद्धांत के पक्ष में हूं कि सुप्रीम कोर्ट को कार्यपालिका से पूरी तौर पर अलग और आज़ाद होना चाहिए. साथ ही उसमें काबलियत और कूबत भी हो.
अंबेडकर ने यह कहा न्यायपालिका के कृत्यों से सरकार का सीधा लेना देना नहीं होता. इसलिए उसकी आज़ादी के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है. तथ्य लेकिन है कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 32 के तहत मुख्यतः तो सरकार के आदेशों और विवेक पर ही फैसला करता है. यह भी कहा गया था फिलहाल इस विषय पर छेड़छाड़ के बदले परिस्थितियों के आधार पर भविष्य में संसदें फैसला कर सकेंगी.
सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता में सरकारी पेंच इस तरह डाला गया है. उत्तराखंड के फैसले के बाद जस्टिस जोसेफ का अचानक तबादला किया गया. दिल्ली हाईकोर्ट के जज मुरलीधर का साहसिक आदेश देने के कारण रातोंरात तबादला किया गया. तेज़तर्रार और ज़हीन वकील गोपाल सुब्रमण्यम को सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बनाए जाने के कॉलेज़ियम के प्रस्ताव में सरकार ने अड़ंगा लगाया. एक जज की फाइल लौटा दी कि उनसे कई जज और वरिष्ठ हैं.
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ चार वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट में पहली बार प्रेस वार्ता ली. सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी. एक जज को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त करने सिफारिश सुप्रीम कोर्ट के कॉलेज़ियम ने की. केन्द्र सरकार ने अटका दिया. जनहित के कई मुकदमे सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री में कराह रहे हैं. सरकारें कहां चाहती हैं कि तार्किक बहस के बाद जल्दी फैसला हो जाए. कश्मीर, राम मंदिर, राफेल विमान, नोटबंदी, जी.एस.टी. जैसे बीसियों मामलों में निर्णय, अनिर्णय से संविधान सभा के सप्तर्षि तारामंडल की यादें आईन की किताब में फड़फड़ाती रहती हैं.