Columnist

अपनी सोच वाले कबीले के कैदी

सुनील कुमार
इंटरनेट और सोशल मीडिया की वजह से, या मोबाइल फोन और उस पर संदेश भेजने के दर्जन भर तरीकों से लोगों को लगता है कि वे पूरी दुनिया से इस कदर जुड़े हुए हैं कि जैसे वे जिंदगी में कभी लोगों से नहीं जुड़े थे. लोगों को लगता है कि सोच का दायरा बढ़ रहा है, विचारों की विविधता से सामना हो रहा है, और पूरी दुनिया एक गांव बनकर रह गई है.

लेकिन मेरी तरह के बहुत से लोग जो सोशल मीडिया का खासा इस्तेमाल करते हैं, और जो फोन पर वॉट्सऐप जैसी चीजों से लोगों को संदेश भेजते हैं और पाते हैं, उन लोगों का तजुर्बा इससे थोड़ा सा हटकर भी रहता है. सोचने-समझने वाले लोग धीरे-धीरे तर्कहीन असहमति से परे होने लगते हैं. पहले फेसबुक या ट्विटर पर ऐसे लोगों को फॉलो करना बंद होता है, फिर उनकी की गई पोस्ट को देखना बंद हो जाता है, फोन पर उनको संदेश भेजने बंद हो जाते हैं, उनके आए हुए संदेश खुलना बंद हो जाते हैं, और एक वक्त ऐसा आता है कि असहमत लोगों की कट्टरता या हिंसा को देखते हुए उन लोगों को ब्लॉक करना शुरू हो जाता है.

नतीजा यह होता है कि जिन लोगों की प्रतिक्रिया हम पाते हैं या देखते हैं, वे धीरे-धीरे हमसे सहमति रखने वाले लोग होने लगते हैं, और सोशल मीडिया नाम का बहुत बड़ा वैचारिक-प्रवाह कहीं-कहीं एक कीर्तन में तब्दील होने लगता है, और कहीं-कहीं वह एक कुआं भी बन जाता है. और सोशल मीडिया के आने के पहले तक तो हम बहुत से दूसरे तरीकों से दुनिया को अखबार या रेडियो की नजरों से देख लेते थे और वहां पर समाचार या विचार की पसंद पर हमारा काबू नहीं था.

नतीजा यह था कि हम अपनी असहमति के बावजूद बहुत सी बातों को देख पाते थे. अब जब से सोशल मीडिया और फोन पर लोगों को ब्लॉक करने की सहूलियत होने लगी है, असहमति को नजरों के सामने भी आने से रोक पाना मुमकिन हो गया है. यह कुछ उसी तरह का है कि जिस तरह ब्रिटेन के इतिहास में एक वक्त इतवार को सड़कों पर यहूदियों के निकलने पर शायद रोक थी, क्योंकि चर्च जाते हुए ईसाई उस जाति के लोगों को देखना नहीं चाहते थे जो कि सूदखोरी की वजह से बुरे माने जाते थे. या ऐसी बातों को देखने के लिए ब्रिटेन क्यों जाएं, खुद हिन्दुस्तान के गांवों में आज तक कई जगहों पर दलितों का कई सवर्ण बस्तियों से गुजरना मना सा है, या वे वहां से जूते पहनकर नहीं जा सकते, या बारात में दलित दूल्हा घोड़े पर चढ़कर नहीं जा सकता.

मतलब यह कि जो पसंद न हो, उसे नजरों से हटाना पहले कुछ मुश्किल था, लेकिन अब सोशल मीडिया और संचार के हर साधन पर लोगों को ब्लॉक करना बड़ा आसान हो गया है, और हममें से बहुत से लोग रोजाना उसका इस्तेमाल भी करते हैं. इससे आखिरकार होता यह है कि समविचारक या हमख्याल लोग आसपास बच जाते हैं, और दूसरी विचारधारा, या दूसरी सोच रखने वाले लोग मानो बचे ही नहीं हैं. जो इंटरनेट और सोशल मीडिया लोगों को बाकी दुनिया के लिए एक खिड़की की तरह लगता है, वह दरअसल एक कुएं जैसा बन जाने का खतरा भी रहता है, जिसमें हम अपने पसंदीदा मेंढकों के साथ टर्राते हुए यह मान लेते हैं कि दुनिया यही है.

जब अपनी पसंद से चीजों को उठा-उठाकर खाने की बफे पार्टी जैसी सहूलियत हो, तो फिर किसी जानकार विशेषज्ञ के सुझाए खाने, या मां के सोच-समझकर बनाए हुए खाने जैसी समझ की गुंजाइश खत्म हो जाती है. लोगों को जो पसंद रहता है, उससे प्लेट भर जाती है, और फिर पेट भर जाता है. लेकिन बदन की जरूरत के मुताबिक खाने की विविधता धरी रह जाती है. इसी तरह सोशल मीडिया पर समाज और दिल-दिमाग की विविधता की जरूरत धरी रह जाती है, और लोग धीरे-धीरे अपनी पसंद से इतने सिमटते चले जाते हैं कि वे सोच की अपनी रंग के लोगों वाले कबीले में बस जाते हैं.

इसलिए आज अगर दुनिया में लोगों को यह लगता है कि वे इंटरनेट और सोशल मीडिया की बदौलत पूरी दुनिया को एक गांव बनाकर चल रहे हैं, तो इसके साथ-साथ वे अपने आपको एक बहुत छोटे कबीले तक कैद कर लेने का काम कब कर बैठते हैं, यह उनको एहसास भी नहीं होता. मैं इस नौबत की कल्पना करता हूं तो मुझे एक ऐसा इंसान दिखता है जो कि अपने इर्द-गिर्द दीवारें खड़ी करते हुए उसी के भीतर एक कुएं के कैदी सरीखा होकर रह जाता है. ऐसा इसलिए भी होता है कि कम सोचने वाले बहुत से लोग दूसरी सोच रखने वाले लोगों से किसी बहस में उलझना अपने वक्त और अपनी ताकत की बर्बादी समझते हैं. दूसरी तरफ जो अधिक सोचने वाले लोग रहते हैं, उनको लगता है कि अपना वक्त ऐसे लोगों पर क्यों बर्बाद किया जाए, जो कि पहले से किसी बुरे पूर्वाग्रह के शिकंजे में हैं.
और ऐसी बात भी नहीं है कि खुली सोच वाले लोग, खुले दिल-दिमाग से औरों के साथ बहस में नहीं उतरते. लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं, और ऐसे ही लोग आगे बढ़ पाते हैं. जो लोग सोशल मीडिया को भी एक कीर्तन की तरह बना लेते हैं, उनका आगे बढऩा खत्म हो जाता है.

पुराने वक्त से समझदार लोग संगत के बारे में कहते आए हैं कि बुरी संगत लोगों को तबाह कर देती है, दुनिया की किसी संस्कृति में यह भी कहा जाता है कि एक इंसान की चर्चा में उसकी संगति से होती है, लेकिन सोशल मीडिया पर लोगों की संगति महज अच्छी होना काफी नहीं है, वहां पर लोगों को एक विविधता, और एक खुले दिल-दिमाग की विविधता की जरूरत भी पड़ती है. असल जिंदगी में तो लोगों की संगति उनकी हकीकत जानती है, और उनके सामने कोई मुखौटा कामयाब नहीं हो सकता, लेकिन सोशल मीडिया की जिंदगी में बहुत से लोग कई किस्म के मुखौटे लगाए बनावटी बातों को बरसों तक जारी रख सकते हैं, और लोगों की सोच से परे उनके व्यक्तित्व के विकास में यह मुखौटा भी एक बड़ा खतरा बना रहता है.

कुल मिलाकर बात यह है कि जो लोग इंटरनेट और सोशल मीडिया को दुनिया को गांव बना देने वाला तिलस्म मानकर चलते हैं, उनको याद रखना होगा कि यह टोटका लोगों को अपनी सोच जैसी सोच वाले कबीले का कैदी भी बनाकर रख सकता है. लोग धीरे-धीरे अपनी पसंद के एक ऐसे दायरे में कैद हो सकते हैं कि उन्हें उस पसंद से परे की दुनिया का अस्तित्व धीरे-धीरे अनदेखा ही होने लगे. यह सिलसिला जेल की किसी कोठरी में बंद एक ऐसे कैदी जैसा है जिसे कि कुछ किताबें मिली हैं, और वह उन्हीं किताबों को दुनिया के छपे हुए शब्द मानकर उन्हीं के बीच कैद है.

एक तरफ इंटरनेट पर जानकारी, समाचार और विचार का ऐसा विस्तार है कि इंसान उस पर चाहें तो एक ऐसी चींटी की तरह बन सकते हैं जो कि पत्ते-पत्ते पर जाते हुए कभी सफर पूरा न कर सके क्योंकि नए पत्तों के आने की रफ्तार उसके सफर से कहीं अधिक तेज होती है. लेकिन वह चींटी अगर चाहे तो पेड़ों पर कुछ पत्तों को जोड़कर उसका एक घोंसला सा बनाकर उसके भीतर पूरी जिंदगी गुजार सकती है. आज सोशल मीडिया पर इंसान की हालत कुछ ऐसी ही है कि वे या तो आजाद पंछी की तरह अंतहीन आसमान में उड़ते रहें, या फिर एक कुएं की गहराई में एक मेंढक की तरह रहकर उसे ही पूरी दुनिया मान लें.

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