असली खलनायक की पहचान
देविंदर शर्मा
अभी हाल में एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट हैरान करने वाली थी. पिछले तीन वित्त वर्षों के दौरान 29 राष्ट्रीयकृत बैंकों ने 1.14 लाख करोड़ रुपये के कर्ज को न वसूल हो सकने वाले डूबत खाते में डाल दिया. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, 7.32 लाख करोड़ रुपये का ऋण आश्चर्यजनक रूप से सिर्फ दस कंपनियों को दिए गए था. ये रिपोर्टें ऐसे वक्त में आ रही हैं, जब आर्थिक मंदी को देखते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली वित्तीय सख्ती बरतने की बात कर रहे हैं. पिछले दो वर्षों के दौरान सरकार ने स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती की है. कुछ प्रमुख अर्थशास्त्री भी शोर मचाते रहे हैं कि ये सब्सिडियां अनावश्यक हैं.
हमें बार-बार यह बताया जाता है कि देश को विकसित बनाना है, तो ऐसी सब्सिडी खत्म करनी होगी. जब गरीबों को वित्तीय मदद दी जाती है, तो इसे सब्सिडी कहा जाता है, जिसे खलनायक का दर्जा दे दिया गया है. पर जब अमीरों को बड़े पैमाने पर खैरात, कौड़ियों के मोल जमीन, प्राकृतिक संपदा और करों में छूट जैसी सौगातें दी जाती हैं, तो इन्हें ‘विकास के लिए दिया जाने वाला प्रोत्साहन’ कहा जाता है. ऐसे शब्दों का चतुराई से इस्तेमाल और बार-बार इन्हें रटते रहने से ये शब्द प्रचलित बहसों का हिस्सा बन जाते हैं. दरअसल, अमीरों और प्रभावशाली लोगों को बड़े पैमाने पर दी जा रही सब्सिडी को जिस तरह शब्दों के जाल से ढंकने की कोशिश की जाती है, वह निर्लज्जता के स्तर तक पहुंच चुकी है. वैश्विक आर्थिक संकट का शायद यह एक बड़ा कारण है.
जब मुख्यधारा के अर्थशास्त्री मौन हैं, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह वाजिब सवाल किया है कि अमीरों को दिया जाने वाला प्रोत्साहन सब्सिडी से अलग कैसे है. वस्तुतः 2004-05 से अब तक करीब 42 लाख करोड़ रुपये टैक्स छूट के तौर पर (जिन्हें बजट दस्तावेज में रेवेन्यू फॉरगोन के तौर पर दर्ज किया गया) कॉरपोरेट्स को दिए गए हैं. फिर देश की 67 प्रतिशत आबादी को भोजन मुहैया कराने वाले खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम पर 1.25 लाख करोड़ की सब्सिडी को अर्थशास्त्री अपव्यय कैसे मानते हैं? मैंने जब भी विभिन्न टीवी चैनल की बहसों में इस बात को उठाया, तो इसे नजर अंदाज कर दिया गया.
बजट से पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ एक बैठक में मैंने टैक्स रियायतों को खत्म करने का सुझाव दिया था (तब एक साल में यह लगभग 5.24 लाख करोड़ थी), जो देश के पैसे की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं है. एक प्रमुख अर्थशास्त्री ने वित्त मंत्री अरुण जेटली से कहा, फॉरगोन रेवेन्यू कैटेगरी को ही बजट दस्तावेजों से हटा देना चाहिए, ताकि बड़े पैमाने पर दी जा रही रियायतों को जनता की नजरों से छिपाकर रखा जा सके. एलपीजी सब्सिडी को भी अपव्यय माना जा रहा है. यह सही है कि इसका काफी हिस्सा संपन्न लोगों के खाते में जा रहा है, जिसे खत्म कर देना चाहिए. मुझे याद है, एक अर्थशास्त्री ने लिखा था कि एलपीजी सिलेंडरों पर दी जाने सब्सिडी पर हर साल 48 हजार करोड़ खर्च होते हैं, जो भारत में एक साल के लिए गरीबी उन्मूलन हेतु पर्याप्त धनराशि है. वह इस पूरी सब्सिडी को ही खत्म करना चाहते थे. मेरा कहना था कि जब एक साल की सब्सिडी के पैसे से साल भर गरीबी मिटाने की मुहिम चलाई जा सकती है, तो 42 लाख करोड़ की टैक्स रियायतों के रूप में दी जाने वाली सब्सिडी से तो 84 वर्षों की गरीबी मिटाई जा सकती है.
इस पर कहा गया, ‘कॉरपोरेट इंडिया को दी गई टैक्स में छूट विकास के लिए दिया जाने वाला प्रोत्साहन है.’ बड़े पैमाने पर दी जा रही इन टैक्स रियायतों का, जिनसे तीन साल तक पूरे बजट का खर्च पूरा किया जा सकता है, कोई सुखद नतीजा देखने में नहीं आया है. देश में रोजगार सृजन निराशाजनक हालात में है, औद्योगिक विकास धीमा है, मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र नकारात्मक स्थिति में है और निर्यात भी गति नहीं पकड़ रहा. अगर कॉरपोरेट जगत को दी जाने वाली इन रियायतों का फायदा नहीं हो रहा, तो उन्हें दिया गया पैसा आखिर कहां चला गया? लेकिन, न तो नीति आयोग ने कभी यह सवाल उठाया, न ही मुख्य वित्त सलाहकार ने कभी इस ओर ध्यान दिया.
कॉरपोरेट जगत को दी जाने वाली टैक्स रियायतों से राजस्व का नुकसान होता है. दूसरी ओर, जैसा कि प्रधानमंत्री कहते हैं, ‘स्टॉक एक्सेंजों में शेयरों की ट्रेडिंग पर मिलने वाले लाभांश और दीर्घावधि के पूंजीगत लाभ पर आयकर में पूरी तरह छूट दी गई है, जिसका फायदा जाहिरा तौर पर गरीबों को नहीं मिलता. चूंकि यह छूट दी गई है, यह भी कर छूट में नहीं गिना जाता है.’ प्रधानमंत्री की बात पूर्णतः सही है कि देश दोहरा नुकसान झेल रहा है. मगर, शब्दों की बाजीगरी यहीं खत्म नहीं हो जाती. बैंकों की वसूली के मापदंड भी अलग-अलग हैं. अगर एक आम आदमी बैंक लोन का भुगतान नहीं कर पाता, तो उसे डिफॉल्टर कहा जाता है, जिसकी एवज में बैंक उसकी संपत्ति (कार, मकान इत्यादि) जब्त कर सकता है या फिर जबरन वसूली भी कर सकता है. जबकि, अमीर और कॉरपोरेट कंपनियां बैंकों को भुगतान नहीं करती, तो इसे नॉन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कहा जाता है.
बैंक इन कंपनियों की संपत्ति जब्त करने के बजाय डूबत कर्ज का पुनः नियोजन करने में जुट जाते हैं. आम आदमी इस बात को कभी नहीं समझ पाता कि किस तरह शब्दों की बाजीगरी से बड़े अपराधों को भी छिपाया जा सकता है. बैंकों का एनपीए आज चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुका है, मगर यह चर्चा का विषय नहीं है. वर्ष 2008-09 में 74,000 करोड़ रुपये की किसानों की कर्ज माफी की बार-बार याद दिलाई जाती है. मगर, बैंकों के बढ़ते एनपीए पर, जिसके लिए कॉरपोरेट्स जिम्मेदार हैं, शायद ही कोई बात होती है. इसका कारण भी बेहद स्पष्ट है. दरअसल, अमीर अपने हिस्से की सब्सिडी को खोना नहीं चाहते हैं, जिसका सबसे आसान तरीका बजट दस्तावेजों की शब्दावली में बदलाव करना है. इस तरह की चालाकियों से आम लोग अभी पूरी तरह से अनजान हैं. धन्यवाद प्रधानमंत्री जी, आपने एक ऐसा मुद्दा छेड़ा है, जिसकी चर्चा करने से लोग बचते हैं.
*लेखक देश के जाने-माने कृषि और खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं.