इजरायल से रस्म अदायगी की रणनीति
मोदी की फिलीस्तीन यात्रा से भारत और इजरायल की आपसी प्रगाढ़ता कम नहीं होगी. कूटनीतिक दायरे में एक शब्द इस्तेमाल किया जाता है ‘डि-हाइफनेशन’. यानी चीजों को अलग-अलग करके देखना. लेकिन सामान्यत तौर पर इसका मतलब यह है कि सिद्धांतों को छोड़कर हिंसक साम्राज्यवादी संस्कृति को अपना लिया जाए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फिलीस्तीन के कब्जे वाले क्षेत्र का दौरा इस क्षेत्र को लेकर उनके रुख का हिस्सा है. पिछले साल जुलाई में मोदी के इजरायल दौरे और इजरायली प्रधानमंत्री के जनवरी के भारत दौरे से इस क्षेत्र में पैदा हुए असंतुलन को दूर करने की कोशिश के तौर पर मोदी के हालिया दौरे को देखा जा सकता है. इन सबसे यही लग रहा है इजरायल से बढ़ती अपनी नजदीकी के बीच भारत फिलीस्तीन के साथ रस्म अदायगी में लगा हुआ है.
बिना मतलब की इस रस्म अदायगी को बगैर कोई महत्व दिए खारिज किया जा सकता है. विदेश नीति की अपनी कुछ खासियत होती है और ऐसे में मोदी का फिलीस्तीन जाना पुरानी चीजों को पूरी तरह से नष्ट होने से बचाने की एक कोशिश दिखती है. साथ ही इसके जरिए इस अस्थिर क्षेत्र में अनापेक्षित घटनाओं से बचाव की भी एक कोशिश दिखती है.
यह कहना सही होगा कि मोदी के फिलीस्तीन दौरे से भारत और इजरायल की आपसी प्रगाढ़ता कम नहीं होगी. इस बारे में भारत के विदेश सचिव रहे कंवल सिब्बल की बात का उल्लेख जरूरी है. वे अभी उस दक्षिणपंथी थिंक टैंक के हिस्से है जिसके कई लोग इस सरकार में अहम पदों पर हैं. सिब्बल कहते हैं, ‘इजरायल के कड़े रुख के बीच संयुक्त राष्ट्र के जरिए दोनों पक्षो में समझौते कराने का रुख भारत ने अपनाया है. इन दो सच्चाइयों में संतुलन बनाने की चुनौती हमारे सामने है. इस संदर्भ में हमने दो रिश्तों को अलग-अलग करने का काम किया है.’
दूसरे शब्दों में कहें तो जिस तरह से इजरायल ने पूर्ण शांति के प्रति अपनी अनिच्छा दिखाई है उसी तरह से इन परिस्थतियों को लेकर भारत भी अपने रुख में स्थिर हो जाएगा. इजरायल के साथ रिश्ते गहराते जाएंगे और इजरायल का दमन और कब्जा भी जारी रहेगा.
दोनों देशों के रिश्तों को अलग-अलग करना कभी भी अच्छी रणनीति नहीं रही. लेकिन इससे कम से कम यह है कि भारत यह कोशिश करता दिख रहा है कि इजरायल शांति वार्ता करे. 1992 में इजरायल से कूटनीतिक संबंधों की पूर्ण बहाली से पहले फिलीस्तीन के नेता यासिर अराफात भारत आए थे और उन्हें यह यकीन दिलाया गया था कि शांति प्रक्रिया एक सही नतीजे तक पहुंचने के लिए चल रही है. सच्चाई तो यह है कि वह कदम वास्तविकताओं पर कम आधारित था और उम्मीदों पर अधिक आधारित था.
इससे एक राजनीतिक हित सध रहा था. भारत का रणनीति साझीदार और हथियारों का मुख्य निर्यातक सोवियत संघ इतिहास बन चुका था. ऐसे में भारत को इजरायल का साथ लेना जरूरी लगा. अपने संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की इच्छा सार्वजनिक करने के बाद भारत ने बगैर हो-हल्ले के इस संबंध को चलाया. 1990 के दशक में उच्चस्तरीय संबंधों का एकमात्र उदाहरण 1993 में विदेश मंत्री के स्तर पर शिमोन पेरेस की यात्रा है.
2003 तक जब प्रधानमंत्री स्तरीय दौरे की बात आई तो तब तक इजरायल के सारे झूठों से पर्दा उठ गया था. पश्चिमी तट पर आॅपरेशन डिफेंसिव शील्ड के नाम पर प्रधानमंत्री एरियल शेरोन की सरकार ने तांडव मचा रखा था.
यासिर अराफात के समय में इजरायली सेना रमल्ला तक पहुंच गई. ऐसे में फिलीस्तीन के किसी जिम्मेदार आदमी द्वारा संतुलन दिखाने की किसी यात्रा की गुंजाइश नहीं थी. यह रस्म अदायगी फिर 2015 में बहाल हुई. जार्डन के हस्तक्षेप से स्थिति ऐसी बनी कि भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी असंतोष में जल रहे फिलीस्तीन पहुंचे. फिलीस्तीन नैशनल अथाॅरिटी के नेतृत्व के इजरायल पर अधिक महत्व दिया गया. यह भारत के संतुलन की रणनीति का हिस्सा था. जिसमें फिलीस्तीन का सांकेतिक साथ देना था और इजरायल के साथ रणनीतिक संबंध गहरे करने थे.
उस समय तक इजरायल इस स्थिति में नहीं था कि मोदी के फिलीस्तीन जाने या नहीं जाने पर ध्यान दे. जब हाल ही में इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामीन नेतन्याहू से यह पूछा गया कि येरुशलम को अमेरिका द्वारा इजरायल की राजधानी के दर्जा दिए जाने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के खिलाफ भारत के वोट देने पर आप क्या कहेंगे तो उन्होंने इसे खारिज कर दिया. इजरायल भारत के साथ अपने संबंधों की दिशा को लेकर खुश है और मोदी के फिलीस्तीन जाने से उस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला.
इजरायल की रणनीति में भारत की अपनी उपयोगिता है. खास तौर पर तब जब इजरायल का यूरोप के साथ संबंध गड़बड़ हो रहा है. यूरोप से नैतिकता के उपदेशों से नेतन्याहू खुश नहीं बताए जाते.
भारत ने खुद को इस परिस्थिति में डाल लिया है कि जिसमें उसके पास फिलीस्तीनी प्रतिरोध के दमन में इजरायल के साथ खड़ा होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. फिलीस्तीन ने अमेरिका को मध्यस्थ मानने से मना कर दिया है. जिस तरह से सीरिया और पूरे क्षेत्र में अशांति है, उससे साफ है कि फिलीस्तीन पर दुनिया का ध्यान हाल-फिलहाल नहीं जाएगा. इससे भारत को यह मौका मिलता है कि वह इजरायल से जो फायदे लेना चाहता है वह ले ले, भले ही आंतरिक एकजुटता और बाहरी विश्वसनीयता दांव पर लगी हो.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के ताजा संपादकीय का अनुवाद