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दक्षिण एशिया: लोकतंत्र में सुराख

सुदेशना रुहान
“मैंने इस्तीफ़ा इसलिए दिया ताकि मुझे मृत शरीरों की कतारें न देखनी पड़े. वे छात्रों की लाशों पर सत्ता में आना चाहते थे, लेकिन मैंने ऐसा होने नहीं दिया. प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. मैं सत्ता में बनी रह सकती थी, अगर मैं सेंट मार्टिन द्वीप की संप्रभुता छोड़ देती और अमेरिका को बंगाल की खाड़ी पर कब्ज़ा करने देती. मैं अपने देश के लोगों से निवेदन करती हूं कि कृपया कट्टरपंथियों के बहकावे में न आएं.”

5 अगस्त 2024 को बांग्लादेश छोड़ने से पहले प्रधानमंत्री शेख़ हसीना का ये अपने देश के लिए अंतिम संबोधन था. माना जाता है ये इतनी जल्दी में हुआ कि हसीना को इसे रिकॉर्ड करने का समय भी नहीं मिला. शेख हसीना का सेना से टकराव और बांग्लादेश से उनकी नाटकीय विदाई ने एक बार फिर दक्षिण एशिया की राजनीतिक अस्थिरता पर ध्यान खींचा है. यह उन सभी देशों के संघर्ष को उजागर कर रहा है जो चीन, अमरीका और रूस के प्रशांत महासागर में वर्चस्व की लड़ाई में पीस रहे हैं.

कई पश्चिमी मीडिया रिपोर्ट, बांग्लादेश को छात्र राजनीति द्वारा किया गया आंदोलन मान रहे हैं, जिसमें सेना की भूमिका का कोई ज़िक्र नहीं है. पर ये सच से ज़्यादा उनकी सहूलियत का मामला है. पश्चिम आज भी इस पूर्वाग्रह से पीड़ित हैं कि एशिया की समस्याएं मुट्ठीभर ग़रीबों का मामला है, जबकि अमरीका और यूरोप की समस्याएँ वैश्विक.

बांग्लादेश में तख़्तापलट दरअसल महीनों से चल रही सेना की तैयारी का अंतिम पड़ाव था, जो शेख़ हसीना की नाक के नीचे होता रहा. यूँ तो हसीना सुरक्षा की दृष्टि से पहले भी देश से बाहर रही हैं. 1975- 81 के निष्कासन के दौरान वे परिवार सहित भारत में रुकी थीं. ये प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें दिया था.

मगर साल 2024 की उठापटक अलग रही, जिसमें शुरुआती अस्थिरता को हसीना ने गंभीरता से नहीं लिया. वे आश्वस्त थीं कि चूँकि सेना प्रमुख वक़ार- उज़- ज़मान उनके रिश्तेदार हैं, सो अवामी लीग और उनकी सरकार पर कोई आंच नहीं आएगी. और इसी भरोसे से उन्हें निष्कासित कर दिया.

आज बांग्लादेश में केवल ‘सलाहकारों’ से बनी एक अंतरिम नागरिक सरकार स्थापित करके, तख्तापलट के नेता दुनिया के सामने छात्र क्रांति की मुलायम छवि गढ़ रहे हैं. मोहम्मद युनूस को अंतरिम प्रशासन के प्रमुख या ‘मुख्य सलाहकार’ के रूप में नियुक्त करना सैन्य शासन को छिपाने में मदद करता है. 84 वर्षीय युनूस, जो बिल और हिलेरी क्लिंटन के पुराने मित्र हैं, को 2006 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला था. यूनुस जहां अमरीका के करीबी माने जाते रहे हैं, वहीं हसीना का वाशिंगटन परहेज़ जगजाहिर है.

गौरतलब है कि दक्षिण एशिया के कई देशों में किसी क्षेत्रीय दुश्मन न होने के बावजूद एक बड़ी सेना बनी हुयी है. वहां लोकतंत्र या तो नहीं, या सेना के इशारे पर रिक्क्ता भरने के लिए है. पाकिस्तान और म्यांमार को अगर छोड़ भी दें, तो कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया और फिलिपींस इसका उदाहरण हैं. जब सेना सीधे शासन नहीं करती, तो लचीली सरकारों के माध्यम से राजनीतिक शक्ति हासिल करने की कोशिश करती है. सेना के कई अधिकारियों का व्यवसाय रियल एस्टेट, होटलों से लेकर बैंकिंग, मैन्युफैक्चरिंग और शिपबिल्डिंग तक फैला हुआ है.

इस अस्थिरता में कोई अगर बादशाह बनकर उभरा है तो वह है- चीन. ज़ी जिनपिंग ने चीनी सेना, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को इतना आधुनिक बनाया है कि अपने हितों की रक्षा के लिए सैन्य कूटनीति का विस्तार किया जा सके. आज चीन खुफिया जानकारी जुटाने, क्षमताओं की तुलना करने और पड़ोसी देशों पर सामरिक प्रभुत्व बढ़ाने के लिए इसका उपयोग कर रहा है.

आर्थिक मामले में भी वह पीछे नहीं है. 2018 से बांग्लादेश, मालदीव, म्यांमार, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्थाओं में 150 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का निवेश कर, चीन एशिया का सबसे बड़ा निवेशक बन गया है. श्रीलंका, तिब्बत और नेपाल के कई हिस्सों में चीनी भाषा अनिवार्य रूप से सिखाई जा रही है.

दिसंबर 2024 को अमरीका ने अपने एक रिपोर्ट में खुलासा किया कि चीन अपने सार्वजनिक रूप से घोषित रक्षा बजट से सेना पर 40% से 90% अधिक ख़र्च करता है. 2024 में कुल रक्षा ख़र्च लगभग $330 अरब से $450 अरब तक होने का अनुमान है. विशेषज्ञों का मानना है कि चीन के सार्वजनिक रूप से घोषित रक्षा खर्च के आंकड़े में सभी निवेश शामिल नहीं होते, इसलिए इस खर्च का सही मूल्यांकन करने के लिए वैकल्पिक तरीकों का उपयोग किया जाता है.

इन सभी देशों में केवल भारत है जहां लोकतंत्र स्थाई भाव है. भारतीय सेना मानव संसाधन पर आधारित है, और रक्षा बजट में आवंटित निधि में लगभग 51% केवल “वेतन और पेंशन” में चला जाता है. यह स्थिति सेना की आधुनिकता लाने की क्षमता को कम रही है, जो विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. भारत के पास बड़ी संख्या में पुराने उपकरण और प्रणाली हैं, जिन्हें बदलने की आवश्यकता है. इसके अलावा, पिछले चार दशकों में भारतीय सेना दुनिया की सबसे बड़ी हथियार आयातक रही है. यह ढांचा कई बड़ी चुनौतियां को पेश करता है.

पाकिस्तान, चीन और रशिया सामरिक मामले में साथ देखे जा रहे हैं. इसकी उल्टी तरफ है भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका. मगर सैन्य सुरक्षा मामले में अमेरिका पर भरोसा नहीं किया जा सकता. अमरीका को हाज़िर और नाज़िर होने में महारत हासिल है, पर जब तक आप इसे समझते हैं, अमरीका अस्थिरता की कील ठोंके वहाँ से ग़ायब हो जाता है. इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान उसका उदाहरण है.

बाहरी शक्ति पर विश्वास करना, जो अपनी ही हितों के अनुसार काम करती है, स्थायी शांति या समृद्धि नहीं दे सकते. भारत को अपना प्रभुत्व बढ़ाने हेतु चीन को प्रतिद्वंदी के तौर पर देखना होगा. महज़ ‘ड्रैगन’ कह लेने से चीन आग फेंकना बंद नहीं करेगा. हमारे लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता, प्रौद्योगिक क्रांति और पड़ोसी देशों में औद्योगिक निवेश ज़रूरी है. इस प्रतिबद्धता के साथ कि दक्षिण एशिया में लोकतंत्र की बहाली भारत की नैतिक ज़िम्मेदारी है.

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