समाजवाद की पूर्व कथा
कनक तिवारी
समाजवाद मुख्यतः कार्ल मार्क्स के कारण उन्नीसवीं सदी में वैचारिक बहस मुबाहिसे के केन्द्र बल्कि शिखर पर रहा है. बीसवीं सदी समाजवाद समर्थक लड़ाई की रही है. इन दो सदियों में आधी से ज़्यादा दुनिया में समाजवाद के नारे को सार्थक करने की कोशिशों का फसलफा वाचाल रहा है. भारत में समाजवादी नस्ल की दिलचस्प, जुदा जुदा लेकिन मोटे तौर पर सामंजस्य की स्थितियां रही हैं. विवेकानन्द पहले समाजचेता सुधारक थे जिन्होंने खुद को समाजवादी कहा. उन्होंने यह जोड़ा कि समाजवाद इकलौता विकल्प नहीं है. वह सबसे बेहतर विकल्प है.
सामाजिक वितरण के लिहाज़ से आधी रोटी मिलना एक रोटी नहीं मिलने से ज़्यादा अच्छा है. विवेकानन्द राजनीतिक विचारक नहीं थे. उन्होंने मार्क्स का विधिवत अध्ययन नहीं किया होगा. यूरोप प्रवास में विवेकानन्द का प्रिंस पीटर क्रोपाटकिन से साम्यवादी अवधारणाओं को लेकर विस्तृत और सघन विचार विमर्श हुआ था. रूसी क्रांति के 1917 में सफल होने के बहुत पहले विवेकानन्द ने भविष्यवाणी की थी कि पहला साम्यवादी शासन रूस और फिर चीन में स्थापित होगा.
भारत में विवेकानन्द के समाजवाद का अर्थ था कि दलितों और गरीबों को शिक्षा तथा अन्य संसाधनों से लैस कर उनकी सांस्कृतिक अभिवृद्धि की जाए. फिर वे खुद ही अपनी तरक्की कर लेंगे. विवेकानन्द ने ही धार्मिक जुमले में भविष्यवाणी की थी कि भारत में शूद्रों अर्थात दलितों, वंचितों और पिछड़ों का राज्य होगा. गांधी ने भी खुद को समाजवादी घोषित किया था. विरोधाभास है कि फिर भी गांधी मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे. उसमें अमीर गरीबों सहित सभी राष्ट्रीय संपत्तियों के मिलाकर खुद को उसका ट्रस्टी समझें.
गांधी पूंजीवाद तथा निजीकरण के अंधसमर्थक नहीं थे. उनके विचार दर्शन में बड़ी सामाजिक आवश्यकताओं के सिलसिले में कई सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की जरूरत थी. अपनी क्लसिक कृति ‘हिन्द स्वराज‘ में उन्होंने शिक्षा, अस्पताल, न्यायालय, संसद और मंत्रिपरिषद आदि को सीधे जनता के प्रति प्रतिबद्ध रहने की जरूरत बताई थी. वे देसी उद्योगपतियों के मुकाबले ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कुटीर उद्योगों को प्राथमिकता देने के हिमायती थे. विदेशी उद्योगपतियों के मुकाबले उन्हें देशी उद्योगपति अनुकूल थे.
आज़ाद देश की आर्थिक संरचना का संवैधानिक उत्तरदायित्व जवाहरलाल नेहरू को मिला. नेहरू फेबियन समाजवादी अर्थात हेरॉल्ड लास्की समूह के विचारों के समर्थक थे. वे भारी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण तथा छोटे उद्योगों के निजीकरण की मिश्रित अर्थव्यवस्था के नियामक थे. जिन्ना और मुस्लिम लीग की हेकड़ी के कारण नेहरू के नेतृत्व में संविधान सभा ने मजबूत केन्द्र की अवधारणा को गढ़ा. तब योजना आयोग जैसी संस्था को ईजाद किया गया. उसके द्वारा राज्यों को धन का आवंटन किया जाना सुनिश्चित किया गया. संविधान के मकसद वाला प्रस्ताव नेहरू ने ही रखा था. उनके वैचारिक तेवर में समाजवाद के लक्षण तो थे. लेकिन उद्देशिका के प्रस्ताव में समाजवाद नाम का शब्द नहीं था.
इस पर प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर ने कड़ी आपत्ति की थी. राजनीतिक मुश्किलों के चलते इन्दिरा गांधी ने 1977 में ‘समाजवाद‘ और ‘पंथ निरपेक्षता‘ को संविधान की उद्देशिका में संशोधन कर शामिल किया. इन्दिरा गांधी ने समाजवादी अवधारणाओं के कारण बड़े उद्योगों जैसे कोयला, बैंकिंग, बीमा, तेल आदि का राष्ट्रीयकरण किया.
भारतीय कम्युनिस्ट समाजवाद के प्रवर्तक रहे हैं. श्रीपाद अमृत डांगे, बी.आर. रणदिवे, अच्युत मेनन, ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद, ए.के. गोपालन, सत्यभक्त, ज्योति बसु, सोमनाथ चटर्जी, सोहनसिंह जोश, हरिकिशन सुरजीत जैसे ढेरों नाम हैं. उन्हें कालक्रम में मानवेन्द्रनाथ रॉय के बाद रखा जा सकता है. प्रखर समाजवादियों में आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, आचार्य कृपलानी जैसे बीसियों बड़े विचारक शामिल हैं. क्रांतिकारी आंदोलन के सबसे जाज्वल्यमान नक्षत्र भगतसिंह पूरी तौर पर समाजवादी बल्कि कम्युनिस्ट थे. फिर भी उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना कुबूल नहीं किया. अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट बिरादरी ने भी भगतसिंह को तरजीह नहीं दी.
समाजवादी विचारकों में डॉ. लोहिया का सबसे अनोखा, मौलिक और भविष्यमूलक स्थान है. उन्होंने कांग्रेस और नेहरू के समाजवाद के सोच के परखचे उखाड़े. जनस्वीकार्यता के अभाव के कारण लोहिया का विकल्प व्यवहार में नहीं लाया जा सका. बड़ी मुश्किल से लोकसभा पहुंचे लोहिया ने देश के नागरिकों की औसत दैनिक आय तीन आना प्रतिदिन सिद्ध कर दी. तब आर्थिक मंत्रालयों और योजना आयोग तथा सांख्यिकी संस्थाओं की घिग्गी बंध गई. लोहिया ने गांधीवाद से पूरी तौर पर सहमति व्यक्त नहीं की.
जर्मनी से डॉक्टरेट प्राप्त लोहिया भारतीय संदर्भों में मार्क्स को पूरी तौर पर खारिज नहीं करते थे. उनके समाजवाद में लेकिन भारतीय ग्राम्य व्यवस्था की हेठी नहीं थी. वे एक साथ तात्कालिक और दीर्घजीवी परिणामों वाली अर्थनीति के कायल थे. वे सियासती उसूलों से हटकर किसी किस्म का जादुई समाजवाद लाने के खिलाफ थे. राजनेताओं के निजी आचरण को लेकर पश्चिमी राजनीतिक अवधारणाओं की कुलीन शैली का बहिष्कार भी किया.