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उत्तर पूर्व में राष्ट्रीयताओं की सोशल इंजीनियरिंग

अनिल चमड़िया
उत्तर पूर्व के राज्यों में तीन राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव के नतीजों का विभिन्न नजरिये से विश्लेषण किया जा रहा है. भाजपा इन नतीजों में सबसे आगे दिखती है. भाजपा की इस जीत पर दो प्रतिक्रियाओं पर गौर किया जाना चाहिए. पहला चुनाव नतीजों के बाद भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर पूर्व के राज्यों में खासतौर से त्रिपुरा में अपनी जीत का विश्लेषण पेश करते हुए बताया कि वहां माकपा के लंबे शासन के दौरान मतदाताओं के बीच जो एक खालीपन की जगह बनी, उसका लाभ उन्हें मिला. राजनीति में खालीपन (अंग्रेजी में स्पेस) का लाभ उठाने की कोशिश प्रतिद्दंदी पार्टियां करती हैं.

त्रिपुरा जैसे राज्य में माकपा की जितनी भी प्रतिद्धंदी पार्टियां थीं, वे उस खालीपन को संबोधित करने से चूकती चली गई और दूसरी तरफ माकपा के सांगठनिक ढांचे का जो चरित्र है, वह उस खालीपन को महसूस ही नहीं कर सका. नतीजतन भाजपा को एक खाली मैदान मिला. दूसरा भाजपा के सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी ने ये कहा ही कि यह विचारधारा की जीत है. खाली जगह और विचारधारा की जीत के बीच रिश्तों की तलाश हमें यहां करनी है.

यह पूरे देश ने देखा कि चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा की विचारधारात्मक नारों के बजाय त्रिपुरा का पिछड़ापन और भ्रष्टाचार था. भाजपा चुनाव की रसोई में पकवान की तरह तरह की रेसिपी (विधि) के साथ होती है, यह उसके अपने सांगठनिक चरित्र की ऐतिहासिक विशेषता है. यदि भाजपा की स्थापना के दौरान गांधीवाद समाजवाद के नारे से लेकर अबतक के तमाम नारों का विश्लेषण करें तो यह राय और स्पष्ट होती है. यदि त्रिपुरा की जीत को दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों के आईने में देखे तो यहां आम आदमी पार्टी ने केवल सरकार के कामकाज के तौर तरीकों से उबे मतदाताओं के बीच त्वरित तौर पर अपनी जगह बना ली और भाजपा और कांग्रेस को बुरी तरह से पीछे धकेल दिया. आम आदमी पार्टी भी पहली ही बार विधायकों की भारी संख्या के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो गई. इस तरह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जो प्रतिक्रिया दी है, उसे उनके स्पेस भरने में कामयाबी को समझा जा सकता है.

भाजपा के सर्वोच्च नेता नरेन्द्र मोदी की विचारधारात्मक जीत के अर्थ का विश्लेषण करने के लिए यह जरुरी है कि हम भाजपा के उत्तर पूर्व के राज्यों में विचारधारा के संकट को पहले समझने की कोशिश करें. राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के विचारधारात्मक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ससंदीय पार्टियों के बीच भाजपा अगुवाई करती है. इसके जरिये राजनीति का हिन्दुत्वकरण करने की प्रक्रिया तेज होती है.

राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने वाले इसके तीन मुख्य शब्द है. वे हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद और सैन्यवाद हैं और तीनों एक दूसरे में पूरी तरह से गुंथे हुए हैं. उत्तर पूर्व के राज्यों के नतीजों के विश्लेषण के लिए एक पहलू पर खासतौर से ध्यान जाता हैं. वह है राष्ट्रीयताओं के बीच सोशल इंजीनीयरिंग. हमने अब तक ये देखा है कि भाजपा ने पिछड़े वर्गों के लिए केन्द्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण लागू करने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को मान लेने के बाद सबसे ज्यादा घबराहट महसूस की. उसने हिन्दुत्व के विस्तार के लिए सोशल इंजीनियरिंग के सूत्र को स्वीकार किया.

सोशल इंजीनियरिंग का अर्थ यह सामने आया कि उसने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले जातियों से अलग जातियों के बीच हिन्दुत्व की प्रक्रिया को तेज करें. इस तेज करने को हम सैन्यकरण के अर्थों में भी यहां देख सकते हैं. हिन्दुत्व का उग्र नारा और भाजपा के सांगठनिक ढांचो में सामाजिक स्तर पर वंचित जातियों में कुछ चुनिंदा जातियों को अपने बराबर बैठाने की कवायद करने की प्रक्रिया एक साथ चलाई गई. हम ये पाते हैं कि संघ और भाजपा पिछड़े दलितों के बीच कुछ चुनिंदा जातियों को उनके बीच की दूरी का लाभ उठाकर अपनी ओर आकर्षित करती आ रही है. चुनिंदा जातियों को अपनी ओर आकर्षित करने के साथ कुछ चुनिंदा जातियों को अपने निशाने पर रखने की उसकी रणनीति उसकी सोशल इंजीनियरिंग की प्रक्रिया को मुक्कमल आकार देती है.

उत्तर भारत के राज्यों में पिछड़े दलितों का समूह जातियों के अलग-अलग अस्तित्व की राजनीति की तरफ मुखर हुआ है. उत्तर भारत में इन जातियों के साथ अलग अलग स्तर पर गठबंधन करने वाली सबसे बड़ी पार्टी आज भाजपा दिखती हैं.

उत्तर भारत में सोशल इंजीनियरिंग का जो सूत्र जातियों के संदर्भ में भाजपा ने लागू किया, वहीं सूत्र राष्ट्रीयताओं के संदर्भ में उत्तर पूर्व के राज्यों में भाजपा लागू करती दिख रही है. उत्तर पूर्व के राज्यों में राष्ट्रीयताओं का संघर्ष रहा है. अकेले असम में ही कई राष्ट्रीयताएं अपने लिए स्वयतता की मांग करती रही हैं, जो कि अपने लिए अलग राज्यों की मांग के रुप में अभिव्यक्त होता रहा है. पूरे उत्तर पूर्व में केन्द्रीय राष्ट्रीयता के वर्चस्व के खिलाफ संघर्षों का लंबा दौर चला है. इन राष्ट्रीयताओं को कई बात समझने के लिहाज से उप राष्ट्रीयता या क्षेत्रीय राष्ट्रीयता के रुप में भी पेश किया जाता रहा है. लेकिन राष्ट्रीयता की अपनी एक मुक्कमल परिभाषा है और स्वायतता के आधार पर राष्ट्रीयताएं गणतंत्र के लिए आपस में करार करती रही हैं. लेकिन भारतीय गणतंत्र के भीतर एक खास राष्ट्रवाद को विकसित करने की राजनीति रही है.

बहुत साधारण तरीके से हम समझना चाहें तो यह कह सकते हैं कि राजनीतिक ढांचा जो 1947 के आसपास विकसित करने का एक करार हुआ था वह पुराने वर्चस्व को बनाए रखने और वर्चस्व को तोड़ने के संघर्ष के रुप में विकसित होता चला गया. भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारे के साथ राजनीति करती है और इसमें राष्ट्र, राष्ट्रीयता जैसे शब्द केवल उसके हैं. इसीलिए उत्तर पूर्व के राज्य में हिन्दुत्व और उसका राष्ट्रवाद अपनी जगहें नहीं बना पाया. असम जैसे राज्यों में वह हिन्दुत्व के जरिये राष्ट्रवाद को विकसित करने की कोशिश करता रहा है और वहां मुस्लिम आबादी के बड़ी तादाद में होने और बांग्ला देश के पड़ोस में होने के कारण कामयाबी भी मिली है.

उत्तर पूर्व में राष्ट्रीयताओं के भीतर संघर्ष ने एक ऐसा स्पेस विकसित किया है, जिसमें घुसपैठ की जा सकती है. उत्तर पूर्व के जिन दो राज्यों नागालैंड और मेघालय में भी चुनाव नतीजे आए हैं, वहां उन्हें कामयाबी मिली है जो कि अपनी राष्ट्रीयताओं के साथ सक्रिय रहे हैं. उन दोनों ही राज्यों में भाजपा अपनी जगह त्रिपुरा की तरह नहीं बना पाई क्योंकि वहां राजनीतिक खालीपन को भरने के लिए पार्टियां और संगठन हैं. वहां राष्ट्रीयताओं के बीच ही सोशल इंजीनियरिंग करने की रणनीति कामयाब हो सकती है. यह संभव है कि सत्तारुढ होकर भाजपा अपनी इंजीनियरिंग से वहां अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा का सांगठनिक आधार विकसित कर ले. वहां तात्कालिक तौर पर भाजपा ने उन तमाम विषयों को दबा रखा है, जो कि उत्तर भारत में हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद का चारा बनते हैं.

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