सोशल इंजीनियरिंग का नया प्रतिनिधि
अनिल चमड़िया
संसदीय व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य का अर्थ सत्ता के लिए बहुमत बनाने वाले वोटरों को संतुष्ट करने के इर्दगिर्द केन्द्रित हो जाता है.देश की राजनीति प्रक्रिया में एक बुनियादी बदलाव तब आया जब केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने संविधान में उल्लेखित सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में विशेष अवसर देने का फैसला किया. संसदीय राजनीति में ये फैसला सामाजिक न्याय के नाम से जाना गया.
यह वह दौर था, जब पूरी संसदीय राजनीति में वर्ण आधारित समाज के नीचले हिस्से को अपने वोट के आधारों में समाहित करने की एक प्रतिस्पर्द्धा शुरू हुई. इसमें हिन्दूत्व की राजनीति करने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और उसकी संसदीय पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने अपने आधार का सोशल इंजीनियरिंग करने की अनिवार्यता महसूस की. सामाजिक न्याय ने सत्ता में हिस्सेदारी के सवाल पर संसदीय राजनीति को प्रभावित तो किया लेकिन विचारधारात्मक राजनीति को पीछे छोड़ दिया. सत्ता में हिस्सेदारी भी आर्थिक-सामाजिक हालात में परिवर्तन के बजाय प्रतीक के रूप में परिभाषित हो गया. भारतीय जनता पार्टी ने इस परिभाषा को अपने विचारधारात्मक जमीन को मजबूत करने के लिए आत्मसात कर लिया.
राष्ट्रपति पद के लिए राम नाथ कोविंद की उम्मीदवारी को दलित प्रतिनिधि के रूप में प्रचारित किया गया है. भारतीय समाज व्यवस्था में दलित एक जाति नहीं है. वह उन जातियों के एक समूह को राजनीतिक तौर पर परिभाषित किए जाने वाला संबोधन है, जो कि सामाजिक व्यवस्था की विचारधारा के स्तर पर पायदान दर पायदान नीचे रहने के लिए बाध्य किए गए.
हिन्दुत्व की सोशल इंजीनियरिंग का अर्थ नेपाल के इतिहास से समजा जा सकता है. हिन्दूत्व के आधार पर नेपाल को एकीकृत करने वाले राजा पृथ्वी नारायण शाह ने जब वर्ण व्यवस्था की 200-879 ईं. से चली आ रही परिभाषा को छोटा देखा तो उन्होने चार वर्ण- अठारह जाति के बजाय चार वर्ण छत्तीस जाति की एक नई परिभाषा स्थापित कर दी. भारत की संसदीय राजनीति में पिछड़े वर्ग में सबसे उपर की जाति के बरक्स संख्या के आधार पर दूसरे और तीसरे नंबर की जाति को और इसी तरह अनुसूचित जाति में दूसरे तीसरे नंबर की जातियों को सत्ता में प्रतीक स्थापित करने की भूख को भुनाने की जुगत ही सोशल इंजीनियरिंग है.
इस सोशल इंजीनियरिंग ने ही संसदीय राजनीति में सामाजिक न्याय की प्रतिस्पर्द्धा की जगह ले ली है. यानी हर संसदीय पार्टियां अपने आधार की सोशल इंजीनियरिंग करने में जुटी है. इसी परिपेक्ष्य में हाल के तमाम संसदीय चुनावों व उनके लिए प्रतीक प्रतिनिधि का चयन किया जा रहा है. राष्ट्रपति के लिए राम नाथ कोविंद का चयन प्रतिनिधित्व की चेतना से उपजा चयन नहीं है बल्कि प्रतीक प्रतिनिधि का चयन है. भारतीय जनता पार्टी ने जैसे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पिछड़े वर्ग की जातियों में दूसरे नंबर की जातियों को आगे किया और बिहार में जिस तरह से वह अपनी पूर्व की विफलता को सफलता में बदलने के लिए प्रयास कर रही है, उस कड़ी का ही हिस्सा यह उम्मीदवारी है.
हिन्दुत्व की “शाह निर्मित इंजीनियरिंग” की गति संसदीय राजनीति में सबसे तेज है,यह एक वास्तविकता है.संसदीय राजनीति में प्रतिनिधित्व की जगह प्रतीक प्रतिनिधि ने ली है तो जाहिर तौर पर विपक्ष भी उसी तरह के प्रतीक की तलाश में है. विपक्ष भी जातियों का ही समूह है. वर्चस्व वाले जाति समूहों की जगह शासित महसूस करने वाली जातियों में एकजूटता को ही विपक्ष का नाम दिया जाता है.
राष्ट्रपति चुनाव तक यह एकजूटता किस शक्ल में सामने होगी, यह अनुमान लगाया जा सकता है. विपक्ष सोशल इंजीनियरिंग से निकली उम्मीदवारी बरक्स उससे ज्य़ादा तगड़ी सामग्री यानी मैसेज तैयार करने वाले उम्मीदवार की खोज कर ली. यह भी डा. अम्बेडकर के प्रतीक के उर्द गिर्द की सीमाओं से बंधा यह उम्मीदवारी है. दरअसल मीडिया की शब्दावली में ये कहा जाता है कि मीडियम यानी माध्यम ही मैसेज है ,उसी तरह प्रतीक प्रतिनिधि को ही मैसेज के रूप में देखा जा रहा है.यह मैसेज पार्टियों के सामने दुविधा की स्थिति को खड़ा करने में सक्षम हो सकता है, इस समझदारी के साथ विपक्ष ने भी अपना उम्मीदवार खड़ा कर लिया है.
नीतिश कुमार ने केन्द्र की राजनीति के हिसाब से विपक्ष जिसे महागठबंधन का नया नाम दिया गया है,अपने को राम नाथ कोविंद की उम्मीदवारी के साथ अलग कर लिया. विपक्ष की हर पार्टी का जुड़ाव सत्ताधारी पार्टी के साथ विरोध है लेकिन यह हर स्तर पर कायम नहीं रह सकता है. क्योंकि सत्ता प्रदेशों में भी है और वहां विरोध का यह समीकरण गड़बड़ा जाता है. नीतिश कुमार को इस मैसेज से परेशानी नहीं है कि वे दलित की एक जाति के बीच से तय उम्मीदवारी का विरोध कर रहे हैं. उनकी सत्ता के लिए अपनी तरफ से एक मैसेज हर वक्त देना है कि उनके दरवाजे केन्द्र के सत्तारूढ़ समीकरणों के लिए खुला है. वे इस मैसेज को लालू प्रसाद पर समर्थन देने के दबाव के सुरक्षा कवच के रूप में बनाए रखना चाहते हैं. उनका तत्कालिक सरोकार इस बात से नहीं है कि उनकी छवि विपक्ष में अविश्वसनीय होने की बन सकती है.
विपक्ष अपने द्वारा तय उम्मीदवारी से संसदीय राजनीति की एक प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी कर रहा है. वह उम्मीदवार से एक मैसेज देने की कोशिश कर रहा है लेकिन उस मैसेज की दिक्कत ये है कि वह एक पूर्व से निर्मित मैसेज की काट तैयार कर रहा है.वह उसका अपने लिए मैसेज नहीं है. वह एक वैचारिक धरातल पर खड़े होकर बड़े स्तर पर एक सोशल इंजीनियरिंग की प्रक्रिया में नहीं खड़ा है. संसदीय राजनीति की जड़ता को प्रतीक प्रतिनिधि बनाम सामाजिक प्रतिनिधित्व के संघर्ष के जरिये ही तोड़ा जा सकता है.