Columnistताज़ा खबर

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मोदी को चुनौती

कनक तिवारी
यह सही है कि हर राजनीतिक पार्टी अपने पूर्वजों का यश अपने माथे पर तब लीप लेना चाहती है, जब उससे उसे वोट बैंक की अनुकूलता हो जाए. एक अरसे तक गांधी का नाम कांग्रेस के लिए ‘जेहि सुमरत सिधि होए‘ रहा है.

गांधीगिरी करते चुनावों में गांधी के नाम का इस्तेमाल होता और खासकर गांव, देहातों और मुफलिस लोगों के वोटों का कांग्रेस को बहुत सहारा हो जाता. धीरे धीरे हिन्दू सम्प्रदायवाद की कट्टरता ने राजनीति का ही चेहरा बदल दिया. अब तो हालत यह है कि कांग्रेसी तो गांधी का नाम तो लेते नहीं हैं. बल्कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री काल में सार्वजनिक शौचालयों, रेलों और अन्य जगहों पर स्वच्छता मिशन के ब्रांड अम्बेसडर बना दिए गए गांधी बस सड़ांध सूंघने के काबिल दिखाए जाते हैं.

कांग्रेसियों को इससे भी कोई दिक्कत नहीं होती. उनके चिकने चुपड़े चेहरों और कलफदार, कलगीदार कपड़ों में इत्र फुलेल, नीना रिक्की, जोबन, बू्रट, चार्ली वगैरह की खुशबू लहराती रहती है जिससे मुख वास से छलकती विदेशी मदिरा की सुगंध की उससे आपसी सहमति और सद्भाव बन जाए.

इसके बरक्स संघ परिवार और भाजपा के पास बड़े नेताओं और राष्ट्रीय ख्याति के सिपहसालारों का लगभग पूरा टोटा होने से उनकी दूकान तीन चार पूर्वज नामों को लेकर ही चलानी पड़ती है. भाजपा की केन्द्र और कई राज्यों में सरकार होने से हर राष्ट्रीय योजना और प्रकल्प में ठूंठ ठूंसकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और अब हाल फिलहाल अटल बिहारी वाजपेयी के नाम चल निकले हैं.

सावरकर से भारतीय जनसंघ इसलिए भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई संबंध कभी नहीं रहा. सावरकर की विचारधारा में लेकिन कुछ तत्व हैं जिनसे मजहबी नफरत का बगूला उठाया जाकर वोट बैंक की रोटी सावरकर के विचारों के तंदूर में पकाई जा रही है. सावरकर के कई विचार पूरी तौर पर संघ के विचारों के खिलाफ हैं.

बहरहाल एक नोट है जो 17 अप्रेल 1947 को लिखा गया था. उसके लेखक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संविधान सभा की अल्पसंख्यक उपसमिति के सदस्य की हैसियत में इस नोट में ऐसी तकरीरें की हैं, जिन्हें लागू कर दिया जाता तो भारत के संवैधानिक भविष्य का चेहरा कुछ और होता. अचरज संविधान सभा की बहस में न तो कांग्रेस और न ही वामपंथी सदस्यों ने डॉ. मुखर्जी की ऐसी तकरीरों को संविधान की इबारत में लीप दिए जाने की हिमायत, पेशकश या सिफारिश की हो.

आज महंगाई, भ्रष्टाचार, किसान-अत्याचार, बलात्कार, कॉरपोरेट-डकैती, मॉब लिंचिंग, धार्मिक हुल्लड़, चंदाखोरी, लव जिहाद, पाकिस्तान जाओ जैसे न जाने कितने नारे सत्ता पर कायम रहने लगाए जा रहे हैं.

उत्तरप्रदेश और पंजाब सहित विधानसभा चुनावों में भाजपा और संघ के जमावड़े के पास केवल एक नारा है ‘जयश्रीराम‘ याने हिन्दू खतरे में है. याने मुसलमानों को कुचलना है. याने कश्मीर में आतंक बढ़ाए जाने से उत्तरप्रदेश में भाजपा को फायदा है. याने पंजाब में पाकिस्तानी घुसपैठियों की हरकतों के कारण कांग्रेस से बेदखल अमरिंदर सिंह को पंजाब का हीरो बनाना है. हिन्दू बनाम मुसलमान, हिन्दू बनाम ईसाई, हिन्दू बनाम बौद्ध जैसे कुचक्र राजनीति के बियाबान में उछलकूद करते रहते हैं.

अल्पसंख्यकों का भारतीयकरण याने हिन्दूकरण करना एजेंडा में रहा ही है. ‘भारत में यदि रहना होगा वंदेमातरम कहना होगा‘ का खौफ अभी भी फुसफुसाता रहता है. सड़कों पर पकड़ पकड़कर मॉब लिंचिंग से तब छोड़ा जाता है जब विधर्मी बार बार ‘जयश्रीराम‘ का नारा लगाए. दुकानें लूटी जाती हैं. रोजगार तबाह किए जाते हैं. बीफ के बड़े कारखाने ज्यादातर भाजपाई नेता चलाते बताए जाते हैं.

बात-बात में अखलाक, पहलूखान जैसे मामले उठ सकने की संभावना होती है. हर मुसलमान नाम को शहरों, स्टेशनों, मुहल्लों और योजनाओं से हटाकर सामंती हिन्दू नाम खोजकर चस्पा कर देने से वोट बैंक में चक्रवृद्धि ब्याज की दर बढ़ने लगती है.

ऐसे सन्दर्भ के चलते कोई सोच नहीं सकेगा कि भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष, बेहद तीक्ष्ण बुद्धि और पहले हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने हस्ताक्षर से अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के संदर्भ में क्या कुछ लिख दिया है. उसे न तो मिटाया जा सकता है, और न उस पर पहले अमल किया गया या अभी अमल किया जा सकता है.

डॉ. मुखर्जी ने अपने नोट में लिखा था- यह तय हो कि भारत का कोई राज्य धर्म नहीं होगा. अर्थात यही तो हुआ न कि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित नहीं किया जा सकेगा.

लिखा था उन्होंने कि राज्य हर एक मजहब के लिए निष्पक्ष, निरपेक्ष और तटस्थ रहेगा. अचरज है उन्होंने साफ कहा कि वे ऐसा इसलिए लिख रहे हैं क्योंकि यही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अगस्त 1931 के बंबई सम्मेलन में अनुच्छेद 1 (9) के प्रस्ताव में पास किया गया है. राजनीतिक सामंजस्य का कितना बड़ा उदाहरण है कि डॉ. मुखर्जी ने शब्दों की हेराफेरी या राजनीतिक तिकड़मबाजी का सहारा नहीं लिया! वह आज के नेताओं के दिमागी फितूर के कारण राजनीति का दस्तूर बन गया है.

संविधान सभा की बैठक में कांग्रेस को कांग्रेस सम्मेलन का उल्लेख करने के लिए डॉ. मुखर्जी का शुक्रगुजार होना चाहिए था. कांग्रेस ने एक असांप्रदायिक राज्य बनाने का संकल्प लेकर भी अपने राजनीतिक सम्मेलन के संबंधित प्रस्ताव को लेकर बाद की पीढ़ियों को कुछ नहीं समझाया. अजीब है इस ऐतिहासिक वाक्य के बाद भी संघ परिवार और भाजपा के लोग ऐलान करते हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र होगा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए वे शेरे कश्मीर का खिताब देते हुए श्रेय देते हैं. उन्हीं डॉ. मुखर्जी ने कहा था भारत एक मजहबरस्त राज्य नहीं बनेगा.

आज भाजपा और प्रधानमंत्री सार्वजनिक तौर पर ऐलान क्यों नहीं कर सकते कि उन्होंने अपने पितृ पुरुष के ऐलान के कारण तय कर लिया है कि अब भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का कोई नारा नहीं लगाया जाएगा.

इतिहास को जानना चाहिए कांग्रेस, गांधी, नेहरू और पटेल ने डॉ. मुखर्जी को संविधान सभा का सदस्य और नेहरू मंत्रिमण्डल का सदस्य बनाने पहल की थी. डॉ. मुखर्जी हिन्दू महासभा में थे. हिन्दू महासभा से पूरी तौर पर राजनीतिक नाइत्तफाकी होने पर भी संविधान बनाने के महान प्रकल्प में बड़े नेताओं ने एक दूसरे से सहमति का इजहार किया था. उसे नरेन्द्र मोदी रोज भूलते हैं.

कृषि बिल वापस करने में कभी विरोधी सांसदों को मार्शल या बाहरी आदमी बुलवाकर पिटवाया जाता है. अब राज्यसभा के सांसदों को शिकायत करने पर भी पूरे सत्र के लिए सदन से मुअत्तिल कर दिया गया है, ताकि राज्य सभा में भाजपा का बहुमत खतरे में नहीं पड़े.

संविधान के अनुच्छेद 29 में अल्पसंख्यकों को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति बनाए रखने का अधिकार दिया गया है. धर्म या भाषा पर आाधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की सभी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और संचालन का अधिकार होगा.

दिलचस्प है मौजूदा केन्द्र सरकार इस सिलसिले में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के विचारों को पढ़े तो वह उन्हें गुनेगी, बुनेगी या अपना सिर धुनेगी? डॉ. मुखर्जी ने कहा था-सभी अल्पसंख्यकों को अपने व्यय पर परोपकारी, धार्मिक और शिक्षा के लिए स्कूल, कॉलेज खोलने में बराबरी का अधिकार होगा. वहां वे अपनी भाषा का इस्तेमाल कर सकेंगे और अपने धर्म का भी पालन कर सकेंगे.

इससे बढ़कर उन्होंने लिखा- किसी गांव या छोटे छोटे टोलों के ग्राम-समूह या शहरी इलाके की तरह समझकर मांग उठे कि कुछ विशेष संख्या में अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे अपने लिए एक अलहदा शिक्षण संस्था स्थापित कराना चाहते हैं. तो संबंधित अधिकारियों को ऐसी अलग शैक्षणिक संस्था स्थापित करनी होगी. वहां अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे अपनी भाषा और लिपि का शिक्षा पाने के लिए इस्तेमाल कर सकेंगे.

सवाल उठता है विशेषकर उर्दू को लेकर संविधान सभा तक में बहसें की जाती रही हैं. उनके बरक्स डॉ. मुखर्जी का नोट ऐसी संभावना को साकार करने बल देता है, जो खुद उनके अनुसार अगस्त 1931 के बम्बई कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव के अनुसार पारित की गई थी. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव हो रहे हैं.

उत्तरप्रदेश में ही भारत के सबसे ज़्यादा मुसलमान नागरिक हैं. आजा़दी की लड़ाई के सदियों पहले से उत्तरप्रदेश के मुसलमानों ने साहित्य, संस्कृति, कला वगैरह के इलाके में असाधारण योगदान किया है.

कबीर, रहीम, रसखान, जायसी जैसे महान नाम उत्तरप्रदेश से ही आते हैं. मौलाना आज़ाद, रफी अहमद किदवई, डॉ. जाकिर हुसैन, सर सैय्यद अहमद और न जाने कितने नामों की छटा उत्तरप्रदेश में बिखरती रही है.

डॉ. मुखर्जी अल्पसंख्यकों की भाषा और मुख्यतः उर्दू के पक्ष में अल्पसंख्यकों की सुविधा के नाम पर तकरीर कर रहे थे. तब कांग्रेस के साहित्यकार और हिन्दी के प्रबल समर्थक सदस्य सेठ गोविन्ददास, जवाहरलाल ने उनके एक पत्र 16 मई 1931 को पढ़ते हुए शुद्ध हिन्दी के पक्ष मेे तकरीरें करते कटाक्ष करने में नहीं चूके.

गोविन्ददास ने यह कटाक्ष भी किया कि उनके जैसे हिन्दी के समर्थक पंडित नेहरू की भविष्यवाणी को ही साकार करने जा रहे हैं.

गोविन्ददास ने यह उत्तेजक बात भी संविधान सभा में कही, “हिन्दी आन्दोलन करने वालों को साम्प्रदायिक कहना बड़ा भारी अन्याय है. उर्दू भाषा केवल मुसलमानों की ही अकेली भाषा है, यह मैं नहीं कहता. मैं मानता हूं कि उर्दू भाषा में इस देश के बड़े बड़े हिन्दू विद्वानों और कवियों ने भी रचना की है. मगर मैं एक बात कहे बिना नहीं रह सकता कि उर्दू भाषा अधिकतर देश के बाहर की चीजों को ही देखती रही है. आप उर्दू के साहित्य को अच्छी तरह देख सकते हैं. आप उर्दू साहित्य को देखेंगे, तो आपको कहीं भी हिमालय का वर्णन नहीं मिलेगा. आपको उसकी जगह कोहकाफ़ का वर्णन मिलेगा. हमारे देश की कोयल को आप कभी उसके साहित्य में नहीं पायेंगे. आपको सिर्फ बुलबुल का वर्णन मिलेगा. भीम और अर्जुन की जगह पर आपको रुस्तम का वर्णन मिलेगा. जिसका इस देश से कोई भी सम्बन्ध नहीं है. इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि हम पर साम्प्रदायिकता का जो आक्षेप हो रहा है, वह बिल्कुल गलत है. मगर मैं अवश्य कहूंगा कि हिन्दी के समर्थक साम्प्रदायिक नहीं. जो उर्दू का समर्थन करते हैं, वे साम्प्रदायिक हैं.”

भाजपा के मौजूदा नेताओं को तो डॉ. मुखर्जी के बनिस्बत सेठ गोविन्दास की कही बातें ज़्यादा सुहा रही होंगी. उर्दू को लेकर भाजपा शासित किसी राज्य में मुस्लिम या अन्य अल्पसंखक वर्गों के बच्चों को लेकर शिक्षा व्यवस्था में श्यामाप्रसाद मुखर्जी के कहने का कोई असर दूर दूर तक दिखाई नहीं देता.

उन्होंने तो यह भी कहा था यदि कोई बच्चा ऐसे किसी स्कूल में शिक्षा हासिल कर रहा है, जो भले ही निजी स्कूल हो लेकिन उसे राज्य से आर्थिक अनुदान मिल रहा हो. तो ऐसे बच्चे को किसी धार्मिक प्रशिक्षण, शिक्षण या आयोजनों से संबद्ध नहीं किया जा सकेगा जो उस स्कूल में चलाया जा रहा हो.

ऐसे में छत्तीसगढ़ सरकार का एक ताजा़ आदेश कि राज्य के प्रत्येक स्कूल में रघुपति राघव राजाराम मुखडे़ वाली रामधुन गाई जाएगी, उदाहरण के बतौर उपस्थित हो जाता है.

आलेख का दूसरा हिस्सा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

One thought on “डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मोदी को चुनौती

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!