ऑडिटिंग का फर्जीवाड़ा
एसएफआईओ यानी सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस को अपना काम ठीक से करने के लिए सरकार की मदद की जरूरत है. पिछले 15 सालों में और खास तौर पर 2013 से सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस कॉरपोरेट धोखाधड़ी के मामले में जांच करने वाली प्रमुख एजेंसी के तौर पर उभरी है. कई बड़े मामलों की जांच इसने की है. फिर ऐसी संस्था को बुरी स्थिति में क्यों छोड़ दिया गया है? अभी इसके पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं और इसे जितना काम करना चाहिए, उतना यह नहीं कर पा रही है.
सरकारी एजेंसियों में कर्मचारियों की कमी कोई नई बात नहीं है. लेकिन कंपनी कानून, 2013 के तहत जब से एसएफआईओ को वैधानिक शक्तियां मिली हैं, तब से इसका काम बढ़ गया है. संसदीय सवाल के जवाब के आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल, 2014 से जनवरी, 2018 के बीच इस एजेंसी को 447 मामले सौंपे गए. यह संख्या इस एजेंसी के 2003 के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक मिले कुल 667 मामलों की 70 फीसदी है. हालांकि, कर्मचारियों की स्वीकृत संख्या 2014-15 से 133 ही बनी हुई है और इसमें से भी 69 पद खाली पड़े हैं.
कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के तहत काम करने वाला एसएफआईओ खुद को एक ऐसी एजेंसी बताती है जो खास तकनीकी जरूरतों वाले मामलों की जांच करती है. इसका गठन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 2 जुलाई, 2003 को नरेश चंद्रा समिति की सिफारिश पर किया था. 2013 में इसे कंपनी कानून के तहत मनमोहन सिंह सरकार ने वैधानिक शक्तियां दे दी गईं लेकिन किसी को गिरफ्तार करने का अधिकार इस एजेंसी को 2017 में मिल पाया. शुरुआत से ही इसने अपनी पहचान एक विशेषज्ञ एजेंसी के तौर पर बनाई है जिसके कर्मचारी विभिन्न सरकारी विभागों से विशेषज्ञता के आधार पर चुने जाते हैं. एजेंसी विशेषज्ञता के लिए कुछ सलाहकार भी नियुक्त करती है.
एसएफआईओ को मामले वित्तीय फर्जीवाड़े और लोक रुचि के आधार पर सौंपे जाते हैं. नीरव मोदी और मेहुल चोकसी पर पंजाब नैशनल बैंक के साथ फर्जीवाड़ा करने के आरोपों की जांच भी यही एजेंसी कर रही है. पिछले कुछ सालों में कई बड़े मामलों की जांच इस एजेंसी ने की है. इनमें 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, किंगफिशर एयरलाइन, सारदा चिटफंड घोटाला, सत्यम कंप्यूटर फर्जीवाड़ा जैसे मामले शामिल हैं. इनमें से कई मामलों में एसएफआईओ ने पाया कि ऑडिटर की मिलीभगत से इस तरह के फर्जीवाड़े को अंजाम दिया जाता है.
2015 की इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की 500 बड़ी कंपनियों में एक तिहाई अपने बही-खाते का ‘प्रबंधन’ कर रही हैं. कुछ मामलों में एसएफआईओ ने इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट ऑफ इंडिया को गड़बड़ी करने वाले अकाउंटेंट के खिलाफ जांच की भी सलाह दी है. हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिका में या पूरी दुनिया में वित्तीय क्षेत्र तब तेजी से आगे बढ़ता दिखा जब ऑडिटर्स ने मिलीभगत की और यह तेजी 2007-08 में तब धड़ाम हो गई जब कई कंपनियों के ऑडिट रिपोर्ट में गड़बड़ी पाई गई.
स्वतंत्र तौर पर ठीक से काम करने वाला एसएफआईओ कॉरपोरेट लालच और मिलीभगत करने वाले ऑडिटर्स को काबू में रख सकता है. इसके लिए इस एजेंसी को वैसे विशेषज्ञों की जरूरत होगी जो इन मामलों की जांच में दक्षता रखते हैं. एसएफआईओ में कर्मचारियों में कमी की एक वजह यह बताई जाती है कि विशेषज्ञ लोगों की कमी है. जिस तरह से एसएफआईओ के पास मामले बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए इसे डिपुटेशन पर आने वाले अधिकारियों पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिए. इसे पूर्णकालिक तौर पर प्रशिक्षित लोगों को नियुक्त करना चाहिए.
निजी क्षेत्र के लोगों को लाने की अपनी समस्याएं हैं. एक तो निजी क्षेत्र में पगार ज्यादा है, वहीं दूसरी तरफ हितों के टकराव और निजीं कंपनी के प्रति वफादारी कायम रहने की संभावना जैसी समस्याएं हैं. वीरप्पा मोईली की अध्यक्षता वाली स्थायी संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में माना है कि नियुक्ति नियमों को अंतिम रूप दिए जाने के बावजूद पर्याप्त लोगों की कमी बनी हुई है जिससे काम प्रभावित हो रहा है. इसके लिए स्थायी कैडर तैयार करने की जरूरत है ताकि रिक्तियां कम रहें.
सीबीआई जैसी दूसरी एजेंसियां भी कर्मचारियों की कमी से जूझ रही हैं. मार्च 2017 में स्थिति यह थी कि सीबीआई में स्वीकृत पदों में से 20 फीसदी पद खाली थे. इस कमी की एक बड़ी वजह राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. एक सरकार जो आर्थिक अपराधों को गंभीरता से लेने का दावा करती है, वह एसएफआईओ और सीबीआई में खाली पड़े पदों को भरने के लिए कुछ खास करती नहीं दिख रही है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय