प्रसंगवश

आधी आबादी को पूरी आजादी कब?

देश की आधी आबादी का सच बहुत ही दर्दनाक और खौफनाक होता जा रहा है. बात सिर्फ महिला उत्पीड़न ही नहीं उससे भी आगे की है. यौन हिंसा, धमकाना और जान ले लेना बहुत ही आसान सा हो गया है. ऐसा लगता है कि समाज में रहकर भी सुरक्षित नहीं है महिलाएं. रसूख के आगे सुरक्षा और इज्जत के कोई मायने नहीं, या फिर कानून के खौफ का भी डर खत्म!

उत्तर प्रदेश के मऊ में दक्षिणटोला के बाइजापुर गांव में बाइक सवार युवकों ने 18 वर्षीया दुष्कर्म पीड़िता की गोली मारकर हत्या कर दी. उसे दो दिन बाद अदालत में बतौर गवाह उपस्थित होना था. दूसरी घटना उत्तर प्रदेश में ही सीतापुर के महमूदपुर गांव में हुई, दुष्कर्म के आरोपी ने 23 वर्षीय पीड़िता की गोली मारकर हत्या कर दी.

यह महज दो घटनाएं नहीं हैं, बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न भी हैं इसके पीछे. सवाल बस यही कि क्यों नहीं रुक पा रही हैं महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न की घटनाएं और क्या कभी रुक पाएंगी भी या नहीं? तथाकथित जागरूक समाज और समाज के ठेकेदार इसे कब तक हल्के से लेते रहेंगे और सुरक्षा, कानूनी मदद व व्यवस्था के तमाम दावे यूं ही खोखले रहेंगे या कभी कारगर भी होंगे?

घरों के अंदर, बस, रेल, सड़क, पार्क, शौचालय यहां तक कि पुलिस थानों में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, यक्ष प्रश्न कब, कहां होंगी महिलाएं सुरक्षित? ये बढ़ रही मानसिक विकृतियां ही हैं जो विक्षिप्त, विकलांग और उम्रदराज स्त्रियां तक सुरक्षित नहीं. इन सबका मूल कारण प्रथम दृष्टया एक ही है, कानूनी पेचीदगियां और न्याय में देरी.

भारत में साल दर साल तेजी से बढ़ते आंकड़े चिंता का विषय हैं. जहां 80 के दशक में प्रति लाख आबादी पर यह आंकड़ा 700 यानी 0.17 था जो 90 में 1800 होकर 0.70 पर पहुंचा. 2000 के दशक में दुष्कर्म का आंकड़ा 6000 हजार होकर 1.6 हुआ और वर्तमान लगभग 19000 हजार के आसपास पहुंच कर 2.5 पर पहुंच गया है जो कि बेहद चिंतनीय है.

कुछेक घटनाओं की वीभत्सता के बाद हो हल्ला खूब मचता है, सभाएं होती हैं, लोग हाथों में मोमबत्तियां लेकर जुलूस निकालते हैं और महिला सुरक्षा के नाम बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, बड़ा फंड भी सहेजा जाता है. लेकिन उससे बड़ी सच्चाई यह कि इसका कितना और कब तक असर हो पाता है, जगजाहिर है. देश में विकास की बात हो रही है, होनी भी चाहिए लेकिन इस पर भी मंथन जरूरी कि देश की आधी आबादी को कब मिलेगी पूरी आजादी?

भारत में सन् 2009 से 2011 के बीच करीब 1 लाख 22 हजार 292 यौन शोषण के मामले दर्ज किए गए, लेकिन जेल की सजा सिर्फ 27 हजार 408 दोषियों को ही हो सकी. बात बीते वर्ष की करें तो पूरे देश में 37 हजार 413 मामले दर्ज किए गए. इनमें चौंकाने वाली बात ये कि 32 हजार 187 ऐसे थे जिनमें आरोपी पीड़िता को जानने वाले रहे. आंकड़े बताते हैं कि इन अपराधों को सगे संबंधियों यहां तक कि दादा, नाना, पिता, भाई तक ने अंजाम दिया.

ऐसे में यह कहना कि बहू-बेटियां घरों के बाहर भी सुरक्षित नहीं है, बेमानी है, घर को भी देखना होगा. खाकी-खादी भी ऐसे अपराधों में जब-तब और जहां-तहां लिप्त दिख जाती है. दूसरी सच्चाई यह भी कि दुष्कर्म के मामले में सजा और न्याय की स्थिति बेहद दुखद. यहां पीड़िता का आत्मसम्मान उधेड़ा जाता है, उससे वह जान बचा भी ले तो बार-बार पुलिस थाने फिर अदालत में वही-वही सवाल, जो उसकी मानसिक दशा और दिशा को बदतर कर देते हैं.

चूंकि यौन दुष्कर्म हुआ है, इसलिए पीड़िता को ही दुष्चरित्र, कलंकिनी, फूहड़, बदचलन घोषित किया जाता है. एक सच्चाई यह भी कि दुष्कर्म के ज्यादातर मामले मध्य और निम्न वर्ग में होते हैं, सीधा कारण गरीबी या तंगहाली के चलते इसे नियति जो मान बैठते हैं. यकीनन बहुत ही गंभीर और बड़ी चिंता का विषय होता जा रहा है देश की आधी आबादी की अस्मिता, सुरक्षा और सम्मान का यह विषय.

लोकसभा-राज्यसभा मिलाकर 802 सांसद हैं, लेकिन बड़ी विडंबना यह कि सर्वोच्च न्यायालय में 32 न्यायाधीश ही हैं, उसमें कुछ पद खाली रहे आते हैं. कम से कम महिला मामलों में तो सर्वोच्च न्यायालय की पीठ हर राज्य में हो और ऐसे अपराधों का त्वरित निराकरण हो जिससे कानून का भय दिख सके. लेकिन उससे भी जरूरी यह कि ऐसे अपराधों, विकृतियों, सोच और इन्हें पोषने वालों से तुरंत, कठोरता से निपटना ही होगा चाहे वह कितना भी प्रभावी, पहुंचवाला क्यों न हो.

कब तक महिलाएं यूं ही अपने सम्मान को व्यभिचारियों के हाथों तार-तार होता देखेंगी वह भी तब, जब समाज इन्हें बराबरी का दर्जा दे. क्या यही खोखलेबाजी, बराबरी है?

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