सेंगोल : न रामराज, न स्वराज
डॉ. विक्रम सिंघल
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ, नर्तक नृत्य समाज। जीतहु मनहि सुनिअ अस, रामचंद्र के राज॥रामचरितमानस के उत्तर काण्ड के 22वें दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने इस समाज और राज्य के आदर्श का सूत्र दिया है. इस आदर्श को हम राम राज्य कहते हैं. अभी हाल ही में हमने एक शंकराचार्य को भी कहते सुना कि हिंदू राष्ट्र और राम राज्य में भेद है. अब यह भेद लोगों को समझना बहुत ज़रूरी है.
राम राज्य में हिंदू राष्ट्र नहीं था और हिंदू राष्ट्र में राम राज्य हो नहीं सकता. बापू ने भी इसी राम राज्य का सपना देखा और दिखाया था, हिंदू राष्ट्र का नहीं. हालाँकि पूरी दुनिया में एक आदर्श राज्य व्यवस्था की चिंता की गई और प्लेटो के दार्शनिक राजा की संकल्पना आज भी राजनीति शास्त्र का आधार माना जाता है. लेकिन राजा रामचंद्र और राम राज्य के रूप में जो जीवन्त और स्वसुलभ संकल्पना हमारे पास है, इसका कोई और दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है.
एक आदर्श चरित्र अपनी चित्त के विस्तार से समस्त संसार के चित्त को समाहित कर एक ऐसी सामूहिक चेतना का रूप लेता है, जहाँ सभी भेद समाप्त हो जाएं और “केहु सन करऊँ दुराऊ” का भाव स्थापित हो जाता है.
यहाँ सर्वव्यापी एकीकृत चेतना अपनी वातावरण और जड़ सत्ता से समन्वय के लिए एक राज्य व्यवस्था का निर्माण करती है और उस अमूर्त संकल्पना का, मूर्त रूप से एक नाम से ज्ञात होता है कि राम राज्य वही नाम है. शायद इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं- “अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥”
तार्किक रूप से हिंदू राष्ट्र भी किसी अमूर्त का प्रबोधन करता है पर उसका विस्तार सीमित है. नाम बड़ा होने पर भी चरित्र छोटा है. तमाम भेद स्थापित होते हैं. अस्मिताओं और पहचान की वरीयता स्थापित करना ही इसकी वास्तविकता है.
बहरहाल, हम अपने मूल मुद्दे पर लौटते हैं. राम राज्य में दंड के नाम पर केवल ऋषियों का कार दंड रह जाएगा, जो समाधि में उनके हाथों का भार उठा सके. जहाँ न राज किसी को दंड देगा, ना लोग दूसरों का दोष देखेंगे. भेद के नाम पर सिर्फ संगीत के विद्वानों के बिच रागों व मुद्राओं के ही भेद रह जाएँगे. जीत की चर्चा सिर्फ़ मन के जीत के लिए होगी. यह आदर्श संपूर्ण समानता और स्वतंत्रता का परिचायक है. जब सभी भेद मिट जाएं तो सीमाएँ विलीन हो जाएंगी और जीतने को सिर्फ़ मन ही रह जाता है. अज्ञान जनित भय और सीमाएँ तो मन में ही जीती जा सकती हैं. ऐसे में चोला राज्यदंड या सेंगोल की पुनर्स्थापना बहुत से प्रश्न उठाते हैं.
गणतंत्र में शासन व्यक्ति का नहीं, विधि का होता है और राजा या राज प्रमुख या यूँ कहें संसद भी, इस विधि के शासन और दंड के वाहक नहीं हो सकते. कौटिल्य कहते हैं कि राज्य ‘अर्थ’ का मूल है और दंड ‘कोश’ का मूल है. ऐसे में वह प्राचीन राजदंड, जिसे अंग्रेजों की शासन के बाद और गणतंत्र की स्थापना के साथ ही इतिहास के सुपुर्द कर दिया गया था, उसे वापस जन संप्रभुता के मंच पर स्थापित करना न तो जन संप्रभुता को सुदृढ़ करता है और ना ही विधि की संप्रभुता के. हाँ, ‘कोश’ चाहे राज्य का हो या उसके मित्रों का, वह ज़रूर इस ‘दंड’ की तरफ़ आशा भरी नज़रों से देख रहा है. नई राज्य व्यवस्था इसी ‘कोश’ को ध्यान में रखकर बनायी गई लगती है.
हाल ही में आयी ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि सबसे ग़रीब 50% लोग, 64% जीएसटी देते हैं और अगर इसमें तेल और गैस भी जोड़ लिया जाए तो यहाँ आंकड़ा और भी ज़्यादा हो जाएगा.
बात इसके आगे भी जाती है. दंड अपने साथ भेद और हार-जीत भी लेकर आएगा. आज़ादी की पूरी लड़ाई, इन्हीं सब के ख़िलाफ़ ही तो थी. उपनिवेशवाद आख़िर था क्या? लोगों की मानवीय समानता को नकार कर, उनसे उनकी नैतिक स्वायत्तता छीन लेना और ख़ुद को उसका अधिकार दे देना ही तो उपनिवेशवाद था.
इस नैतिक स्वायत्तता की माँग को बापू ने स्वराज कहा था. यह राजदंड रामराज और स्वराज दोनों की ही संकल्पना को खंडित करता है.