देशद्रोह नामक अपराध है कहां?
कनक तिवारी | फेसबुक
राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकल रहा है. देशद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्द तो भारतीय दंड संहिता में हैं ही नहीं.
धारा 124-क के अनुसार-जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का, प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा. स्पष्टीकरण 1-अप्रीति पद के अंतर्गत अभक्ति और शत्रुता की समस्त भावनाएं आती हैं.
1850 में ब्रिटिश संसद में रचित भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया. राजद्रोह 1870 में संशोधन भी हुआ. लोकमान्य तिलक पर 1897 में राजद्रोह का मुकदमा चला. परिभाषा के कच्चेपन के कारण 1898 में उन्हें छोड़ दिया गया. 1898 में परिभाषा संशोधित हुई. तिलक को 1908 में राजद्रोह के लिए 6 वर्ष काला पानी की सजा दी गई.
1922 में राजद्रोह का अपराध चलाने पर गांधी ने व्यंग्य में जज से कहा यह अंगरेजी कानून जनता की स्वतंत्रता को कुचलने की धाराओं में राजकुमार की तरह है. गांधी को भी छह वर्ष की सजा दी गई थी. संविधान सभा के ड्राफ्ट में अभिव्यक्ति की आजादी पर राजद्रोह का प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया गया.
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने तर्कपूर्ण भाषण में राजद्रोह शब्द रखने का कड़ा विरोध किया. डेढ़ सौ वर्ष पहले इंग्लैंड में सभा करना या जुलूस निकालना तक राजद्रोह समझा जाता था. ब्रिटिश काल में भारत में एक कलेक्टर की आलोचना करने पर राजद्रोह का अपराध बनाया गया.
महबूबअली बेगसाहब बहादुर ने कहा इसी कारण हिटलर जर्मनी के विधानमंडल द्वारा बनाए हुए कानूनों के अधीन बिना मुकदमा चलाए हुए जर्मनों को बंदी शिविरों में रख सकता था. सेठ गोविन्ददास ने राजद्रोह को संविधान से उखाड़ फेंकने की मांग की. रोहिणी कुमार चौधरी ने कहा यह अभागा शब्द देश में कई परेशानियों का सबब रहा है. इसके कारण आज़ादी मिलने में भी देर हुई.
टी.टी. कृष्णमाचारी ने बताया अमेरिका में कुछ समय के लिए इस तरह के प्रावधान थे लेकिन इसके प्रति विश्वव्यापी घृणा फैल गई. 1951 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस शब्द को हटाने की पुरजोर दलील दी. फिर भी यह भारतीय दंड संहिता में कायम रह गया.
पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक घोषित किया. लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाले मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के प्रतिकूल. तो न्यायालय पहली स्थिति के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने 1960 में दि सुप्रिंटेंडेंट प्रिज़न फतेहगढ़ विरुद्ध डॉ. राममनोहर लोहिया प्रकरण में पुलिस की यह बात नहीं मानी कि किसी कानून को नहीं मानने का जननेता आह्वान भर करे तो उसे राजद्रोह की परिभाषा में रखा जा सकता है. बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया. कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई.
2010 में कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट को कश्मीरी असंतोष को प्रश्न पत्र में शामिल करने, टाइम्स ऑफ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई को पुलिस तथा माफिया की सांठगांठ का आरोप लगाने, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले को कथित माओवादी से कम्प्यूटर प्राप्त करने, डॉक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, उड़ीसा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको द्वारा यह कहने कि श्रीलंका में युद्ध नहीं रुका तो भारत एक नहीं रह पाएगा और पर्यावरणविद पीयूष सेठिया द्वारा तमिलनाडु में सलवा जुडूम का विरोध करने वाले परचे बांटने जैसे कारणों से राजद्रोह का अपराध चस्पा किया गया.
उच्चतम न्यायालय ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के फैसले में सिद्धांत स्थिर किया कि किसी कानून में इतनी अस्पष्टता हो कि निर्दोष लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सके तो ऐसा कानून असंवैधानिक है. राजद्रोह के लिए मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है. इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस कानून की उपयोगिता नहीं है. राजद्रोह को आज़ादी कुचलने के सरकारी या पुलिसिया डंडे के रूप में रखे जाने का संवैधानिक औचित्य भी नहीं है.
कुछ शब्द मसलन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, नकली धर्मनिरपेक्षता, वंदेमातरम, हिन्दुत्व, पाकिस्तान जाओ, जयश्रीराम, पुलिस, गोगुंडे, टुकड़े टुकड़े गैंग, योगी आदित्यनाथ, रिपब्लिक टीवी, साध्वी प्रज्ञा, सुधीर चौधरी मिलकर सत्ता सुख की सक्रियता में हैं. दूसरी ओर कार्ल माक्स, बाबा साहब अंबेडकर, महात्मा गांधी, दलित, संविधान, ज्योतिबा फुले, रवीश कुमार, रोहित वेमुला, राष्ट्रीय ध्वज, कन्हैयाकुमार, जेएनयू, जामिया मिलिया, शरजील इमाम, शाहीन बाग वगैरह गहरी सुसंगति में हो रहे हैं.
शरजील को पुलिस ने राजद्रोह सहित अन्य अपराध में गिरफ्तार कर लिया है. विपक्ष दक्षिणपंथी हस्तक्षेप के खिलाफ जागरूक विरोध कर रहा है. छात्रों, अध्यापकों और पर्दानशीन महिलाओं तक ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध कायम कर रखा है. रस्साकशी, चिंता, विभ्रम, असमंजस और आशंका निरंतर हैं, कायम हैं.
केन्द्र सरकार के नागरिकता अधिनियम से बवंडर उठ खड़ा हुआ है. दो बरस पहले पुलिस ने गांधी की पुण्यतिथि के दिन ही दिल्ली में आरएसएस मुख्यालय पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों और नागरिकों को लाठी और लात घूंसों से पीटा कुचला था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश ऐसे हैं जिनका पालन पुलिस द्वारा नहीं किया जाता है. देश की रक्षा का जिम्मा केन्द्र सरकार का ही है. इसलिए केन्द्र सरकार का मजाक भी नहीं उड़ाया जा सकता.
हिन्दुस्तान चारों ओर से मुश्किलों में घिरा है. पुलिस के सामने खुले आम गोपाल नाम के व्यक्ति ने पिस्तौल से हवाई फायर किए. एक युवक घायल भी हुआ. जेएनयू और जामिया के छात्र बच्चे नहीं, मतदाता हैं. देश के युवजनों के जे़हन में नया देश और नई दुनिया बनाने की अवधारणाएं भी तिर रही हैं. विधायिका में आधे से अधिक अपराधी घुसे बैठे हों. उनसे विश्वविद्यालयों की बौद्धिक स्वायतता को लेकर जिरह कैसे हो.
मीडिया देशद्रोह और राष्ट्रदोह जैसे झूठे शब्दों की जुगाली कर रहा है. देश के विश्वविद्यालय बांबी नहीं हैं जिनमें औघड़ बाबाओं, दकियानूसों, पोंगा पंडितों, गुंडों, मजहबी लाल बुझक्कड़ों के सांप घुस जाएं. संविधान, देश और भविष्य का तकाजा है कि हर सवाल के लिए जनभावना के अनुकूल देश, संसद और सरकार मिल जुलकर सहिष्णुतानामा लिखें.