विलोम का विराट बन जाना
सत्येंद्र रंजन
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जयललिता जयराम द्रविड़ राजनीति का विलोम थीं. बीसवीं सदी के आरंभ के साथ आगे बढ़े द्रविड़ आंदोलन का मूल स्वर ब्राह्मणवाद विरोधी था. इसने हिंदी विरोधी तेवर अपनाया. तमिल भाषा और संस्कृति के गौरव पर जोर दिया. ई.वी. रामास्वामी नायकर पेरियार, सी.एन, अन्ना दुरै, एम करुणानिधि और एक हद तक एम.जी रामचंद्रन भी इसी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलन के कर्णधार थे. जबकि जयललिता ब्राह्मण थीं. उनका जन्म मैसूर (कर्नाटक) में हुआ, द्रविड़ आंदोलन में उनकी कोई भूमिका नहीं रही और 1990 के दशक में आकर उन्होंने हिंदुत्व और हिंदी की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाने में कोई हिचक नहीं दिखाई. सामान्य परिस्थितियों में ये तमाम बातें तमिलनाडु की राजनीति में आगे बढ़ने के रास्ते में रुकावट बनतीं. मगर जयललिता के मामले में ऐसा नहीं हुआ.
जयललिता के सामने और भी बड़ी बाधाएं थीं. राजनीति आज भी महिलाओं के लिए अनुकूल स्थल नहीं है. दक्षिण एशिया में जिन नेत्रियों ने अपना राजनीतिक प्रभाव बनाया, उनमें ज्यादातर के साथ पारिवारिक/खानदानी विरासत जुड़ी रही है. इसका अपवाद सिर्फ जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी ही नज़र आती हैं. मगर उन दोनों की तुलना में भी जयललिता इस मायने में अलग हैं कि उन्हें अन्ना डीएमके का नेतृत्व हासिल करने के लिए एमजीआर की पारिवारिक विरासत से संघर्ष करना पड़ा.
1987 में एमजीआर का निधन होने के फ़ौरन बाद ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने दिवंगत मुख्यमंत्री की पत्नी जानकी रामचंद्रन को अपना नेता चुना था. जयललिता के एमजीआर से खास रिश्ते जरूर थे, मगर भारतीय समाज में ऐसे संबंधों की प्रतिष्ठा तो दूर स्वीकृति तक नहीं है. आम सोच में विवाहित पत्नी को स्वाभाविक उत्तराधिकारी समझा जाता है. बहुचर्चित है कि जानकी रामचंद्रन के समर्थकों ने एमजीआर की मौत के बाद जयललिता को उनकी शवयात्रा और अंत्येष्टि में सहज रूप से शामिल भी नहीं होने दिया था. मगर तीन साल के अंदर अगर जयललिता पार्टी की निर्विवाद नेता बन गईं, तो यह हैसियत उन्होंने पारंपरिक मानसिकता को ठेंगा दिखाते हुए और विशुद्ध रूप से अपनी क्षमता के कारण हासिल की.
एमजीआर 1972 में जब डीएमके से अलग हुए और अपनी पार्टी बनाई तो उसके साथ ही उन्होंने अपनी अलग राजनीतिक शैली भी पेश की. डीएमके के साथ तब द्रविड़ आंदोलन की गहरी विरासत थी. सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देने वाले इस आंदोलन ने जब राजनीतिक दल का रूप लिया, तो उसने जन-कल्याणकारी कार्यक्रमों के साथ अपनी खास पहचान बनाई.
1967 में डीएमके पहली बार सत्ता में आया और अन्ना दुरै मुख्यमंत्री बने. उनके शासनकाल को तत्कालीन मुख्यमंत्री की सादगी और जन-कल्याण के प्रति निष्ठा के लिए याद किया जाता है. तब शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक वितरण आदि क्षेत्रों में विशेष योजनाएं लागू करते हुए जन-कल्याण कार्यक्रमों की शुरुआत हुई. 1969 में अन्ना दुरै के निधन के बाद करुणानिधि ने पार्टी की कमान संभाली, तो वे विकास के इसी मॉडल को लेकर आगे बढ़े.
एमजीआर ने इस मॉडल के साथ लोक-लुभावन घोषणाओं एवं वितरण को जोड़कर अपनी राजनीति की अलग छवि बनाई. जयललिता राजनीति में एमजीआर के कारण आईं और हमेशा ही उन्हें अपना रोल मॉडल माना. इसी को आगे रखकर 1991 से 2016 के तक चार विधानसभा चुनावों में उन्होंने अपनी पार्टी को विजय दिलाई. हर चुनाव से पहले लोगों को साड़ी से लेकर टीवी और मोबाइल फोन तक देने वादे किए. सत्ता में आने पर वादा निभाया. आलोचकों ने इसे तोहफा बांट कर वोट खरीदना- यानी अनुचित राजनीतिक व्यवहार बताया. लेकिन ये फॉर्मूला ऐसा चला कि अंततः करुणानिधि और दूसरे राज्यों के नेता भी उसका अनुकरण करने पर विवश हो गए.
बेशक जयललिता में एक प्रकार की निष्ठुरता थी. व्यक्ति पूजा को वे पसंद करती थीं. विरोध और असहमति उन्हें मंजूर नहीं होती थी. उनकी कोई विचारधारा या नहीं थी. जनता को वे प्रजा के रूप में देखती थीं. कोई मर्यादा सत्ता के समीकरण बैठाने में उनके आड़े नहीं आती थी. अपना सियासी स्वार्थ साधने की कोशिश में 1998 में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को समर्थन दिया. इस तरह द्रविड़ और हिंदुत्व राजनीति के परस्पर विरोधी होने की धारणा को तोड़ा. लेकिन जब वाजपेयी सरकार ने उनकी मांग के मुताबिक तत्कालीन करुणानिधि सरकार को बर्खास्त नहीं किया, तो समर्थन वापस लेने में और सरकार गिराने जयललिता ने देर नहीं लगाई. परंतु इन सबसे तमिलनाडु के मतदाताओं की निगाह में उनकी हैसियत नहीं गिरी. बल्कि समय गुजरने के साथ बढ़ती चली गई. क्यों?
इस प्रश्न का उत्तर हम उनकी शासन-शैली में ढूंढ सकते हैं. जयललिता ने राजकोष से जो मुफ्त तोहफे बांटे, वैसी चीजें वंचित समूहों के लिए खास मतलब रखती हैं. उल्लेखनीय यह है कि ऐसा करते हुए जयललिता ने कल्याणकारी राज्य के मूल चरित्र के समझौता नहीं किया. इस बात की पुष्टि आंकड़े करते हैँ.
विकास के तमाम आधुनिक पैमानों पर तमिलनाडु लगातार देश के अग्रणी राज्यों में एक बना हुआ है. जन्म दर, शिशु मृत्यु दर, मातृ-मुत्यु दर, स्कूलों में दाखिले सहित प्राथमिक शिक्षा दर, अपराध दर आदि मामलों में तमिलनाडु काफी आगे बना हुआ है. जन्म दर घटाने में वह ऑस्ट्रेलिया, फिनलैंड और बेल्जियम जैसे विकसित देशों से भी आगे निकल गया है. तमिलनाडु में वर्तमान जन्म दर प्रति महिला 1.7 है, जबकि अपेक्षित दर 2.1 मानी जाती है. हालांकि अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के बीच टकराव की खबरें अक्सर राज्य के कई हिस्सों से आती हैं, मगर अनुसूचित जातियों के खिलाफ जुर्म की दर निम्न ही है.
यही हाल महिलाओँ एवं बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामले में भी है. फिर ऐसा नहीं है कि तमिलनाडु की उपलब्धियां महज इन्हीं पैमानों पर हो. औद्योगिक संकेतकों पर ये राज्य खासा आगे है. इसलिए इसमें कोई हैरत नहीं कि बड़े राज्यों के बीच वहां की प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत अधिक है.
जाहिर है, इन सफलताओं का सारा श्रेय जयललिता को नहीं दिया जा सकता. लेकिन पिछले 25 वर्षों में 15 साल उनका ही शासन रहा. ऐसे में यह तो अवश्य कहा जाएगा कि उन्होंने तमिलनाडु को उस रास्ते पर बनाए रखा, जो वहां के लोगों द्रविड़ नेतृत्व को अपनाते हुए चुना था. इसके साथ गरीबों की भलाई के कुछ अतिरिक्त उपाय उन्होंने किए. भारत जैसे पूर्व-आधुनिक समाज में ऐसे उपाय किसी नेता को विशिष्ट छवि देने के लिए पर्याप्त सिद्ध होते हैं. देश के बाकी राज्यों के नेता भी चाहें तो इससे सीख ले सकते हैं.
अपने देश में उस राजनीति के कामयाब होने की संभावनाएं लगातार उज्ज्वल हैं, जिसमें आम जन की लौकिक और बुनियादी समस्याओं को केंद्र में रखा जाए. जयललिता ने यही किया. इससे उन्हें ऐसी आभा मिली, जिसकी चकाचौंध में व्यक्ति केंद्रित राजनीति जैसी उनकी खामियां आम जन की निगाहों से ओझल बनी रहीं. इसी परिघटना ने एक विलोम को द्रविड़ प्रदेश की राजनीति में विराट शख्सियत बना दिया.
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.