लाशों को कहां छुपायेंगे?
संजय पराते
आकड़ों की बाजीगरी की आड़ में किसानों की लाशों को छुपाया नहीं जा सकता है. किसान अकाल से तंग आकर आत्महत्या कर रहें हैं उधर फर्जी मस्टर रोल के आधार पर मनरेगा में रोजगार देने के दावे किये जा रहें हैं. वर्णमाला में ‘अ’ से ‘आ’ तक की जितनी दूरी होती है, ‘अकाल’ से ‘आत्महत्या’ तक उतनी दूरी भी नहीं होती. कारण बहुत ही स्पष्ट है कि एक औसत भारतीय किसान बोता तो ‘क़र्ज़’ है, लेकिन ‘अकाल’ पड़ने पर उसे ‘आत्महत्या’ की फसल काटने को मजबूर होना पड़ता है. छत्तीसगढ़ के किसानों पर यह बात और ज्यादा तल्खी से लागू होती है, चाहे सरकार के आदेश-निर्देश पर राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो किसान आत्महत्याओं के आंकड़ों को कितना भी छुपाने कि कोशिश क्यों न करें.
वास्तव में ये आत्महत्याएं तो उन सरकारी नीतियों की ही ‘उपज’ है, जिसके चलते अकाल की भयावहता और ज्यादा गहरी हो जाती है. छत्तीसगढ़ में पिछले दो महीनों में हुई भुखमरी और आत्महत्याओं की घटनाएं इसी सच्चाई को बयां भी करती है. क्या यह कोई कम शर्म की बात है कि सरकारी खजाने में मनरेगा के 3,272 करोड़ रूपये पड़े रहे और इस वित्तीय वर्ष के पहले तीन महीनों अप्रैल-जून में केवल 1.86 लाख मानव दिवस रोजगार ही पैदा किये जाएं, काम के अभाव में लोग गांवों से पलायन करें तथा भूख से मर जाएं. इस पर भी क्या हमको शर्म नहीं आनी चाहिए कि शून्य प्रतिशत ब्याज दरों पर फसल ऋण वितरण का हम ढिंढोरा तो पीटते हैं , लेकिन आर्थिक तंगी और क़र्ज़ से बेहाल किसान फांसी के फंदे पर झूलकर या ट्रेन के सामने कूदकर अपनी आत्माहूति दें. क्या इस पर भी हमें शर्म नहीं आनी चाहिए कि ‘ये तेरा क्षेत्र – ये मेरा क्षेत्र’ की तर्ज़ पर पीड़ित परिवारों को राहत पहुँचाने के मामले में भी हम भेदभाव करें.
यदि ऐसा ही है, तो ऐसा गंभीर कृषि संकट प्रकृति से ज्यादा मानवनिर्मित ही माना जायेगा– लेकिन ये वे ‘मानव’ है, जो ‘महामानव’ बनकर सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं. यह सत्ता ही तय करती है कि हमारे बजट का कितना हिस्सा कृषि तक पहुंचे और आंकड़े दिखाते हैं कि पिछले 25 सालों में हमारे देश के 70 फीसदी किसानों के लिए कुल बजट का केवल 0.1 फीसदी (जी हां, शून्य दशमलव एक प्रतिशत) ही दिया गया. तो सिंचाई की योजनाएं तो बनी, लेकिन नहरों-बांधों को कागजों पर ही खुदना था. मनरेगा में नए तालाब निर्माण व् पुरानों के गहरीकरण कि योजना तो बनी, लेकिन फर्जी मस्टर रोलों के लिए ही. किसानों को क़र्ज़ तो मिला, लेकिन महाजनों द्वारा उसकी केवल फसल लूटने के लिए ही. तो इस लुटे-पिटे किसान के पास, जिसके पास ईज्जत से जीने का कोई सहारा न हो, ‘आत्महत्या’ के सिवा कोई चारा बचता है? उसकी इस अंतिम कोशिश को भी सत्ता के मदांध, प्रेम-प्रसंगों या नपुंसकता से जोड़ दें, तो अलग बात है. ‘नैतिकता के ठेकेदारों’ को किसानों को देने के लिए इससे ज्यादा और कुछ हो भी नहीं सकता. उनकी ‘नैतिकता’ का तकाजा यही है कि किसानों के उपजाए अन्न के एक-एक दाने पर पहरा बैठा दे और उसे अनाज मगरमच्छों के हवाले कर दें !!
उन खेत मजदूरों को भी गणना में ले लिया जाएँ, जिनके पास जमीन का एक टुकड़ा नहीं हैं और पेट पालने के लिए ऊंचे किराए पर ली गई जमीन ही जिनका आसरा है या वे आदिवासी, जो वन भूमि पर निर्भर है, इस प्रदेश में खेती करने वाले परिवारों की संख्या 40 लाख से ज्यादा बैठेगी. पिछले 15 सालों से इस प्रदेश में 15,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं– और इनमें वे दुर्भाग्यशाली आत्महंतक शामिल नहीं हैं, जिनके पास किसान होने का कोई सरकारी सर्टिफिकेट नहीं था. एनसीआरबी के आंकड़ों के चीख-चीखकर यह कहने के बावजूद सरकार इसे मानने के लिए तैयार नहीं थी. लेकिन एनसीआरबी के ये आंकड़ें अचानक ‘शून्य’ पर पहुंच जाते हैं, जिसे यह सरकार बड़े पैमाने पर प्रचारित करती है. लेकिन एनसीआरबी के पास इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं हैं कि आत्महत्याओं के संबंध में ‘अन्य’ (स्वरोजगार) श्रेणी के आंकड़ों में जबरदस्त वृद्धि कैसे हो गई? आप आंकड़ों को तो छुपा सकते हैं, लेकिन लाशों को कहां छुपायेंगे?
लेकिन आंकड़े भी चीख-चीखकर कह रहे हैं कि जीडीपी में वृद्धि और विकास के दावों के बावजूद किसान के हाथों केवल क़र्ज़ ही आया है. इन 40 लाख से ज्यादा किसान परिवारों में से बैंकों के कर्जों तक पहुंच 10 लाख किसानों की भी नहीं हैं. बचे हुए 30 लाख किसान भी खेती करते हैं, वे भी क़र्ज़ लेते हैं. लेकिन किससे? महाजनों से. किस दर पर? 5 फीसदी प्रति माह — यानि 60 फीसदी सालाना की दर पर. है कोई ऐसा व्यवसाय, जो भूखों-नंगों को निचोड़कर इतना मुनाफा दें? लेकिन इस महाजनी कर्जे के बोझ से किसानों को मुक्त करने के बारे में हमारे कर्णधार चुप हैं. सभी जानते हैं कि इन कर्णधारों के इन सामंती महाजनों से क्या रिश्ते है !! तो यह चुप्पी भी स्वाभाविक हैं.
तो हमारे छत्तीसगढ़ के 28 लाख किसान परिवार महाजनी कर्जे में फंसे हैं. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 70 वें चक्र के आंकड़े कह रहे हैं कि उनकी औसत कर्जदारी 10,000 रुपयों की हैं. इस कर्जदारी पर वे सालाना 6,000 रूपये का ब्याज ही पटा रहे हैं — यानि एक क़र्ज़ छूटता नहीं कि दूसरा सर पर. ‘क़र्ज़ के मकडजाल’ में फंसे इन किसान परिवारों की प्रति माह औसत आमदनी केवल 3,423 रूपये है. एनएसएसओ का सर्वे भी यही बताता है. हाल का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि प्रदेश के 75 फीसदी से ज्यादा किसान परिवारों की मासिक आय 5,000 रूपये से कम है, जबकि देश में किसान परिवारों की औसत आय का 40 फीसदी हिस्सा तो केवल क़र्ज़ चुकाने में चला जाता है. फिर किसानी घाटे का सौदा नहीं, तो और क्या होगी?
यह हमारे कर्णधारों की असफलता ही है कि वे हमारे अन्नदाताओं को पेट में पत्थर बांधकर सोने को मजबूर कर रहे हैं. वे सो भी रहे हैं. लेकिन यदि एक साल फसल बर्बाद हो जाए, तो गले में फंदा डालने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता.
क़र्ज़ के इस दुष्चक्र पर प्रसिद्द पत्रकार पी. साईनाथ ने एक पुस्तक लिखी है– .Everyone loves a good drought. अकाल की आड़ में चांदी काटने वालों को एक अच्छे अकाल का इंतजार है, इसके लिए भले ही किसानों को आत्महत्या क्यों न करनी पड़ें!! एक अच्छा अकाल कुछ लोगों के सुनहरे भविष्य के लिए बहुत ज़रूरी है — हमारे कर्णधारों के भविष्य के लिए भी!!