आरटीई की दिशा बदल देगी यह शिक्षा नीति
स्कूली शिक्षा में सुधार को लागू करने में एक कदम आगे जाकर दो कदम पीछे हटने का सबसे बड़ा उदाहरण हैनो डिटेंशन पॉलिसी यानी एनडीपी को खत्म करना. इसके तहत बच्चों को कक्षा आठ तक फेल नहीं किया जाता था. केंद्रीय कैबिनेट ने इसके लिए शिक्षा का अधिकार कानून में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. नई व्यवस्था के मुताबिक राज्य सरकारों के पास यह अधिकार होगा कि वह स्कूली बच्चों को पास नहीं होने की स्थिति में कक्षा पांच और आठ में रोक सकें.
हालांकि, उन्हें दूसरा मौका दिया जाएगा. लेकिन उस कक्षा का जिक्र नहीं किया गया है जिसके बाद बच्चों को रोका जा सकता है. इसका मतलब यह हुआ कि शुरुआती स्तर से ही बच्चों को स्कूल रोक सकते हैं.
आरटीई यानी शिक्षा का अधिकार कानून के तहत अब तक कक्षा आठ तक बच्चों को फेल नहीं किया जाता. शिक्षाविद इस प्रावधान की तारीफ करते हैं. हालांकि, इसकी आलोचना करने वाले भी कम नहीं हैं. इन्हीं आलोचनाओं की वजह से केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने इस व्यवस्था को कक्षा पांच तक सीमित करने का निर्णय लिया था. कहा जाता है कि यह निर्णय अभिभावकों और शिक्षकों की उस चिंता को ध्यान में रखकर लिया गया जिसमें कहा गया कि बच्चों में जानबूझकर पढ़ाई नहीं करने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है.
कुल मिलाकर यह कदम पीछे हटाने वाला निर्णय है. इसका असर न सिर्फ छात्रों पर पड़ेगा बल्कि स्कूलों में शिक्षण प्रक्रिया पर पड़ेगा. नए निर्णय का आधार यह है कि फेल होने के लिए बच्चे ही जिम्मेदार हैं और इसका उपाय यह है कि उन्हें उसी कक्षा में रखा जाए. स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर कोई सवाल नहीं उठाए गए. इसके पीछे दो तरह की सोच और काम कर रही है.
पहली यह कि फेल होने और एक ही कक्षा में दोबारा पढ़ने की डर से बच्चे पढ़ाई को लेकर और गंभीर होंगे. दूसरी सोच यह है कि एक ही कक्षा में दोबारा पढ़ने से अच्छे नतीजे आएंगे. हालांकि, इन दोनों बातों का कोई शोध प्रमाणित नहीं करता. लेकिन ऐसे कई शोध हैं जो यह साबित करते हैं कि इससे बच्चों के आत्मविश्वास पर नकारात्मक असर पड़ता है और उन्हें पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर कर देता है.
आरटीई कानून का लक्ष्य यह था कि 6 से 14 साल के बच्चों को बगैर किसी भय के शिक्षा मिले और प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई छोड़ने वालों बच्चों की संख्या कम की जाए. इसके लिए कक्षा आठ तक बच्चों को फेल नहीं करने की नीति को उपयुक्त माना गया था. आरटीई के तहत सालाना परीक्षा की जगह नई व्यवस्था शुरू की गई थी जिसके तहत कई व्यापक पैमानों पर पूरे साल बच्चों को परखा जाता था. यह व्यवस्था भी थी कि प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों का सामना बोर्ड परीक्षा से न हो.
ये सारे प्रस्ताव तत्काल प्रभाव से सभी सरकारी और निजी स्कूलों में लागू हो गए थे. लेकिन डर को ही पढ़ाई का उपाय मानने वाले लोग इस व्यवस्था को अलग ढंग से देख नहीं पाए. शिक्षा को लेकर आने वाली सालाना असर रिपोर्ट ने मामले को और गंभीर बना दिया. क्योंकि इन रिपोर्ट में एनडीपी और साल भर चलने वाली मूल्यांकन प्रणाली को जोड़कर दिखाया जाने लगा. बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता खराब होने की दूसरी वजहों जैसे बोरिंग पाठ्यक्रम, घटिया पाठ्यपुस्तकें, बगैर अच्छे प्रशिक्षण के शिक्षक और बुनियादी ढांचे के अभाव को दरकिनार कर दिया गया.
सारी समस्याओं का समाधान यही माना गया कि बच्चों को एक बार फिर से पुरानी व्यवस्था में झोंक दिया जाए. यानी उनमें फेल होने का भय पैदा किया जाए और रट्टा मारकर उन्हें अगली कक्षा में जाने के लिए परीक्षा पास होने को मजबूर कर दिया जाए.
अगर कानून में प्रस्तावित बदलाव पारित हो जाता है तो इससे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर पिछड़े वर्गों के पहले से संघर्षरत बच्चों को न सिर्फ स्कूलों में अपमान झेलना पड़ सकता है बल्कि पढ़ाई बीच में भी छोड़नी पड़ सकती है. एनडीपी का लक्ष्य यह नहीं था कि इसका मूल्यांकन हो कि बच्चों ने क्या पढ़ा बल्कि यह इसलिए था ताकि बच्चों को शुरुआती आठ साल स्कूल में रोककर रखा जा सके. यह सोच ठीक नहीं है कि बच्चों को फेल करने से उनकी पढ़ाई ठीक हो जाएगी. कक्षा पांच से ही प्रस्तावित बोर्ड एक बार फिर से पुरानी व्यवस्था की ओर बढ़ा कदम है जिसमें रट्टा मारने और मशीनी ढंग से पढ़ाई करने पर जोर रहा है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद