मनुवाद का शिकार वेमुला?
क्या रोहित वेमुला की आत्महत्या के नेपथ्य में सामंतशाही का नया संस्करण ही है. गुणवत्ता परक उच्च शिक्षा के लिए प्रसिद्ध हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोधछात्र रोहित वेमुला की मौत के बाद उत्पन्न सियासी परिस्थितियां अपने आप में किसी सवाल से कम नहीं हैं. पहले उसे दलित फिर ओबीसी और अब आतंकवाद का समर्थक बताने वाले लोग यह नहीं बताते कि वह भेदभाव की खाई को बढ़ाने वाले मनुवाद का विरोधी भी था.
फिलहाल उसने आत्महत्या की या उसकी हत्या कर आत्महत्या का स्वरूप दिया गया, यह तो गहन जांच का विषय है, लेकिन कहा जा सकता है कि भेदभाव के विरोध में आवाज उठाने वाले इस छात्र की मौत से सामंतशाही का नया संस्करण सामने आया है. यहां हक के लिए उठने वाली आवाज के दमन की षड्यंत्रकारी बू आती है.
कहा जाता है कि आत्महत्या जैसा निर्णय सिर्फ कायर ही लेते हैं. रोहित वेमुला के संघर्ष और उसका आंदोलन इस बात की जमानत है कि वह कायर नहीं, बल्कि अंबेडकरवादी मिशन का एक साहसी युवक था. फिर उसने आत्महत्या जैसी अपमानजनक मौत को गले क्यों लगाया? इसकी जांच तो होनी ही चाहिए.
जाहिर है, रोहित ने आत्महत्या का निर्णय इतनी आसानी से नहीं लिया होगा. चूंकि उसके आंदोलनों से मनुवादियों के सीने पर सांप लोट रहा था, इसलिए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा पोषित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कमजोर पड़ने की आशंका में उसके साथियों सहित उसे हॉस्टल से निलंबित कर मानसिक यातना दी गई होगी, जिससे टूटकर उसने 17 जनवरी, 2016 की रात आत्महत्या जैसा रास्ता चुना होगा.
ऐसा भी हो सकता है कि उसकी हत्या कर आत्महत्या का स्वरूप दिया गया हो. जो भी हो, उसे लेकर देश में सियासी महाभारत शुरू हो गई है.
कितनी शर्मनाक बात है कि इस प्रकरण में उसी मनुवादी सोच के लोग मीडिया को भी निशाने पर ले रहे हैं. कहते हैं कि देशभर में हर रोज छात्र-छात्राएं आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन इस एक छात्र की आत्महत्या प्रकरण पर मीडिया दलित और सवर्ण के बीच दूरियां बढ़ा रहा है. ऐसा कहने वाले लोगों को विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थानों में भेदभाव शायद नहीं दिखता.
रोहित वेमुला तो उसी भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठा रहा था, जिसे दबाने के लिए सामंतशाही ने अपना जहरीला चंगुल फैलाया. यह सामंतशाही हैदराबाद ही नहीं, तमाम अन्य विश्वविद्यालयों में भी कायम है, जहां छात्रों के साथ जाति और वर्ण देखकर व्यवहार किया जाता है.
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने देशभर में बहुसंख्यक दलित समाज के आक्रोश को देखते हुए कहा कि ‘रोहित वेमुला दलित नहीं अति पिछड़े वर्ग का था.’ चलो उनकी बात मान ली कि वह पिछड़ी जाति का था तो क्या उसकी मौत पर जश्न मनाया जाए?
क्या दलित और अति पिछड़ी जाति के लोगों की जान जान नहीं होती? खैर, यह कोई नई बात नहीं है. दलितों पिछड़ों को सदियों से पशुओं से भी बदतर समझा जाता रहा है. उनकी हत्या के पाप से गंगा स्नान मात्र से मुक्ति मिल जाने की मनुवादी सोच और सामंतशाही ने कब उस समाज का भला चाहा है.
बहुसंख्यक दलितों और पिछड़े समाज को हजारों टुकड़ों में बांटकर मुट्ठीभर लोग उन पर हुकूमत करते आए हैं, जिसे अब भी जारी रखने की सोच राष्ट्र की मजबूती के लिए घातक है. आज जब इस समाज के लोग आगे बढ़ना चाहते हैं तो नागवार लगता है.
इसी बीच सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं में शुमार सुब्रमण्यम स्वामी ने रोहित प्रकरण का विरोध करने वालों को ‘सत्ता के पीछे भागने वाला कुत्ता’ कहकर सामंतशाही और मनुवादी सोच का परिचय दिया है.
लोकतांत्रिक ढंग से विरोध प्रदर्शन करने वालों को ‘कुत्ता’ कहना कितना उचित है, इस पर भी मंथन होना चाहिए. इसी बीच देर से ही सही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लखनऊ में थोड़ी भावुकता दिखाकर रोहित समर्थकों के दुखते रग पर हाथ फेर दिया है.
दूसरी तरफ, इस तरह के किसी भी मामले को लेकर स्वार्थ के तवे पर राजनैतिक रोटी सेंकना भी तो उचित नहीं है. इससे घटनास्थल से हजारों किलोमीटर दूर रहने वाले लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं.
कभी-कभी यही भावनाएं भड़कने के बाद हिंसक रूप ले बैठती हैं. इस नाते जिस मामले को मिल बैठकर हल किया जा सकता हो, उसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाना चाहिए. रही बात उत्पीड़न की, तो देश भर में दलित और पिछड़ी जातियों का उत्पीड़न सामंतशाही सोच के लोग कर रहे हैं. वह नहीं चाहते कि दलित और पिछड़े समाज के लोग राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ें, क्योंकि इससे उनके वर्चस्व के टूटने का भय उन्हें सता रहा होता है.
सदियों से उपेक्षित समाज सिर उठाकर चले, यह बात मनुवादी सोच के लोगों को आज भी उसी तरह खटकती है, जिस तरह बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के दौर में खटकती थी. हां, थोड़ा स्वरूप बदल गया है. तब लोग दूर रहना चाहते थे और आज दोस्ती का हाथ बढ़ा कर वार करते हैं. रोहित वेमुला का कसूर भी संभवत: उसका दलित या अति पिछड़ा होना ही था. कहा जा सकता है कि कुछ मामलों में असहमति के चलते लोकतांत्रिक विरोध उस पर भारी पड़ा.
वैसे, विरोध प्रदर्शन तो देश भर में हर रोज होते हैं. ब्लॉक, तहसील और जिला मुख्यालय से लेकर विधानसभाओं और संसद भवन तक प्रदर्शन कर लोग अपनी आवाज उठाते हैं. यही प्रदर्शन कभी-कभी विधायकों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय व उनके आवास तक होते हैं. तो क्या इसका मतलब प्रदर्शनकारियों को गांव, शहर और देश से निकाल दिया जाना चाहिए?
इन सबके बावजूद रोहित और उसके चार साथियों को छात्रावास से निलंबित कर विश्वविद्यालय प्रशासन ने सामंतशाही सोच का ही परिचय दिया. सदियों से चली आ रही प्राचीन परंपराओं की निरंतरता आखिर कहां तक उचित है? क्या यह सामंतशाही नहीं है? क्या रोहित व उसके चार अन्य साथियों का निलंबन सामंतशाही का नया संस्करण नहीं है?
एक और बात का जिक्र किया जाना उचित होगा कि सत्ता और प्रशासन के शीर्ष पर बैठे लोगों की सोच के अनुरूप जब कोई आवाज उठती है तो वह उसे सहर्ष सुनना पसंद करते हैं, लेकिन यही आवाज जब उनकी सोच के विपरीत हो जाती है तो दमनकारी नीति अपनाने से भी नहीं चूकते. रोहित वेमुला भी इसी का शिकार हुआ लगता है.
वहीं यह भी कहा जा सकता है कि सामंतवादी दमनकारियों के आगे झुककर उसने आत्महत्या कर ली, यह बिल्कुल अच्छा नहीं किया. अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन से जुड़े होने के बाद भी संभवत: वह बाबा साहब को नहीं समझ पाया. यदि समझता, तो उत्पीड़न उसके रास्ते की बाधा न बनता. (एजेंसी इनपुट के साथ)