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ऋषि सुनक और हमारी संकीर्ण राष्ट्रवादी सनक

जीवेश चौबे | फेसबुक
ऋषि सुनक इंग्लैंड के प्रधान मंत्री बन गए हैं. निश्चित रूप से भारतीयों के लिए खुशी का सबब है. जिस देश ने हमें गुलाम बनाया उसी देश का प्रधान भारतीय मूल का व्यक्ति बने यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक आत्मिक संतोष और गर्व तो देता ही है.

हालांकि आर्थिक रूप से हम भी लगभग उसी राह पर तेजी से लुढ़क रहे हैं जिस देश के ऋषि सुनक प्रधान होने जा रहे हैं मगर हमें राष्ट्रवाद की ऐसी घुट्टी पिला दी गई है कि हम गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं और इसका भी जश्न या इवेंट मना रहे हैं.

इस संदर्भ में हमारी मानसिकता में विरोधाभास स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. दूसरे मुल्कों में, चाहे कुछ वर्ष पूर्व अमरीका में कमला हैरिस हो या कैनेडा, सूरीनाम आदि देशों में भारतीय मूल के व्यक्ति रहे हों या ताजा-ताजा ब्रिटेन में ऋषि सुनक हों, हम भारतीय मूल के व्यक्ति को शीर्ष पदों पर देखकर गौरवान्वित होते हैं.

विडंबना यह है कि हम अपने देश में दूसरे देश के लोगों को विदेशी मूल का कहकर बर्दाश्त नहीं कर पाते, 2004 में सोनिया गांधी के प्रकरण में इसे साफ तौर पर देखा और महसूस किया गया.

कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए का बहुमत सत्ता में आया तो यूपीए की नेता सोनिया गांधी का प्रधान मंत्री बनना तय था, तब देश की राष्ट्रीय पार्टी भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने तो सर मुंडाने की धमकी तक दे डाली थी.

यह बात गौरतलब है कि सोनिया गांधी प्रकरण में धर्म एक महत्वपूर्ण पहलू था. लगभग चार दशक तक भारतीय की पत्नी, बहू बनकर देश में रहने वाली महिला को हम विदेशी ही मानते रहे और संवैधानिक रूप से उसके अधिकारों को हम स्वीकार नहीं कर पाए, पचा नहीं पाए.

विदेशों में भारतीय मूल की उपलब्धियों को गर्व की बात बताने वालों द्वारा इस प्रकरण को संकीर्ण राष्ट्रवाद के प्रोपेगेंडा से ऐसा माहौल खड़ा किया गया कि इसे देश के लिए शर्म की बात बना दिया गया. ये हमारी क्षुद्र, संकीर्ण मानसिकता, संकीर्ण राष्ट्रवाद तथा दोगलेपन को उजागर करता है.

इस दोहरी मानसिकता, सोच और दायरे में संकीर्ण राष्ट्रवाद की सनक का ऐसा मायाजाल फैलाया गया कि बहुसंख्यक भारतीय समुदाय ने विदेशी मूल को खारिज करने के प्रपंच को स्वीकार भी किया. मगर हम अपने भीतर अपने ही देश में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में दूसरी तरह से देखें तो भी हम इस मानसिकता को हर जगह हर स्तर पर महसूस कर सकते हैं मगर स्वीकार नहीं करते.

विदेशों में भारतीय मूल की उपलब्धियों पर इतना इतराने वाले पंजाब में किसी गैर सिख का, महाराष्ट्र, बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र,तेलंगाना, केरल,कर्नाटक या नॉर्थ ईस्ट में हिंदी भाषी का अथवा हिंदी प्रदेशों में गैर हिंदी भाषी का मुख्य मंत्री होना बर्दाश्त ही नहीं कर सकते. आप इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते, अपने ही देश में यह मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है.

अब तो मसला प्रदेश के मूल निवासी होने के बावजूद प्रदेश के भीतर ही क्षेत्रीय अस्मिता और गौरव को लेकर नाक का सवाल बन चुका है और निचले स्तर तक वैमनस्व की जड़ें फैल चुकी हैं.

किसी भी राष्ट्रीय राजनैतिक दल के शीर्ष पदों या नेतृत्व पर भारतीय मूल के ही किसी पिछड़ी जाति या दलित, आदिवासी का होना आसान नहीं है. ऐसा होना आज भी एक तथाकथित ब्रेकिंग न्यूज या सुर्खियां होता है.

भारतीय मूल को लेकर पूरे देश में एक अजब सी सनक सवार है. अपने देश में सभी के भारतीय होने के बावजूद धर्म, जाति, क्षेत्रीयता और यहां तक कि मूल को ही लेकर नफरत का माहौल बना देने वाले, अपने देश में एनआरसी , सीएए की पैरवी करने वाले, विदेशों में भारतीय मूल की उपलब्धियों पर जश्न मनाते हैं.

दूसरी ओर हम इस बात को जानबूझकर नजरंदाज कर दे रहे हैं या अपनी सनक में यह स्वीकार करने से बच रहे हैं कि सुनक के दादा-दादी ब्रिटिश भारत में पैदा हुए थे और इस समय वह स्थान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गुजरांवाला में है.

इसलिए, ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री एक भारतीय और एक पाकिस्तानी दोनों मूल के माने जा सकते हैं. हालांकि अभी तक पाकिस्तान में सुनक के मूल को लेकर कोई बहुत उत्साह नजर नहीं आ रहा जैसा भारत में देखने में आ रहा है, संभवतः यहां भी दोनों देशों की धर्म आधारित सांप्रदायिक मानसिकता ही अहम भूमिका अदा कर रही है.

ये हमारी संकीर्ण राष्ट्रवादी सनक का ही नतीजा है कि जहां एक ओर इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायणन मूर्ति का दामाद होना ही ऋषि सुनक को भारत के दामाद के रूप में मान्य हो जाता है और गौरव का प्रतीक बन जाता है लेकिन दूसरी ओर सोनिया गांधी भारत की बहू के रूप में गर्व नहीं शर्म की बात हो जाती है और न ही भारतीय मानस उसे स्वीकार कर पाता है.

संकीर्ण राष्ट्रवाद के ओढ़ाए गए छद्म आवरण के भीतर छिपी तमाम विरोधाभासी मानसिकताओं का ही नतीजा है कि जहां हम अपने देश में सदियों से रहने वालों के मूल पर प्रश्न खड़े करते हैं तो वहीं विदेशों में बसे अपने मूल के लोगों की उपलब्धियों पर गौरवान्वित हो जाते हैं. हमें इस षड्यंत्र को समझना ही होगा, फिर भी यदि आप नहीं समझना चाहते तो, बधाई हो.

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