जुर्म पर नर्म, और कड़ाई का झांसा
जम्मू-कश्मीर और उत्तरप्रदेश के दो बलात्कार मामलों को लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में, राजनीतिक दलों के बीच, और वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों पर नफरत का मानो सैलाब सा आ गया है. जिस देश में आईटी कानून को जानकार लोग जरूरत से अधिक कड़ा मानते हैं, जिसके इस्तेमाल पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ किस्म की रोक लगाई हैं, उस कानून के रहते हुए लोग सार्वजनिक जगहों पर अपने नाम से लिख रहे हैं कि कश्मीर में आठ बरस की मुस्लिम लड़की के साथ बलात्कार करके उसकी हत्या कर देना एक अच्छा काम हुआ है क्योंकि उसे मार न डाला जाता तो वह बड़ी होकर आतंकी बनती. और ऐसा लिखने वाला कोई सिरफिरा नहीं था, वह एक निजी बैंक में काम करने वाला था, और बैंक ने एक अभूतपूर्व जिम्मेदारी दिखाते हुए उसे नौकरी से निकाल दिया.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो रही है. जो सोशल मीडिया खासे लोकप्रिय हैं, उन पर लोग अपने मन की तमाम हिंसा को निकालकर रख दे रहे हैं. ऐसे अनगिनत लोग हैं जो कि इस बलात्कार और कत्ल को जायज ठहरा रहे हैं, और ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उनकी लिखी हुई और पोस्ट की हुई बाकी तमाम बातों में मुस्लिमों के खिलाफ उनकी नफरत, कश्मीरियों के खिलाफ उनकी नफरत झाग की तरह उफनती दिखती है. मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाने वाले एक समाचार पोर्टल ने लगातार झूठी खबरें गढ़कर पोस्ट करना शुरू किया है कि जम्मू-कश्मीर का यह बलात्कार-हत्या का मामला झूठा है, और बेकसूरों को फंसाया जा रहा है. लेकिन ऐसी गढ़ी हुई खबरों के साथ दिक्कत यह है कि वे खुद होकर ऐसे झूठे तथ्य लिख रहे हैं जिन्हें जरा सी जांच में सतह पर तैरते हुए झूठ की तरह पकड़ा जा सकता है, और जिम्मेदार मीडिया ऐसा कर भी रहा है.
लेकिन जो लोग हिन्दू समाज की भलाई की बात करते हुए रात-दिन गैरहिन्दुओं पर हमले कर रहे हैं, ऐसे लोग अपने सोशल मीडिया पेज पर जो लिख रहे हैं, उससे उनके इंसान होने पर भी शक होता है. कुछ लोग फेसबुक पर अपने नाम और चेहरे से अपने पेज पर यह लिख रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर की आठ बरस की गरीब मुस्लिम बच्ची के साथ बलात्कार करने में उनको कितना मजा आया. वे लोग उन सारे के सारे गिरफ्तार हिन्दू आरोपियों में से नहीं हैं, लेकिन ये उनके हिमायती हैं, और उनका साथ देने के लिए लगातार यह लिख रहे हैं कि वह बलात्कार कितना अच्छा हुआ, और उसे करने में उन्हें कितना मजा आया.
अब हैरानी इस बात की है कि जो देश एक बहुत ही कड़ा आईटी कानून बनाकर बैठा है जिसके तहत अखबार में लिखने पर सजा कम है, लेकिन वही बात अगर कम्प्यूटर और इंटरनेट पर किसी जगह लिखी जाती है, तो उस पर सजा खासी अधिक है, ऐसे देश में ऐसी खुली हिंसा के फतवे बिना सजा पाए, बिना कोई रिपोर्ट भी दर्ज हुए चल रहे हैं, लगातार चल रहे हैं, और जोर-शोर से चल रहे हैं. यह एक ऐसा देश हो गया है जो कानून को कड़ा बनाकर, और अधिक कड़ा करके, अपने ही लोगों को यह धोखा देता है कि वह मुजरिमों को अधिक सजा दिलवाने का हिमायती है.
जबकि हकीकत यह है कि मुजरिमों के खिलाफ तो जुर्म भी दर्ज नहीं हो रहे हैं, वरना फेसबुक और ट्विटर पर, वॉट्सऐप पर गढ़ी हुई नफरत और हिंसा के फतवे के सुबूत देखकर ही लाखों नफरतजीवियों को तुरंत गिरफ्तार किया जा सकता था, और उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा भी करार दिया जा सकता था. इन्हें अदालत से सजा मिलने की गारंटी रहती, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा.
इससे दिक्कत आज की नफरत की नहीं है, यह नफरत बढ़ते चले जाने के खतरे की है. नफरत और हिंसा अपने आपमें कोई पेड़ नहीं होते, वे महज बीज होते हैं, और उनसे जो बड़े-बड़े पेड़ तैयार होते हैं वे दुनिया के सबसे बड़े बरगद की चारों तरफ फैली हुई अंतहीन डालों जैसे होते हैं जो तना बनते चलती हैं, और फिर आखिर में यह भी समझ नहीं आता है कि इसकी शुरूआत कहां से हुई थी. यह नफरत हिन्दुस्तान के मिजाज में नहीं थी. इस देश ने नफरतों के कई दौर देखे थे, और उससे उबरना भी सीख लिया था.
भारत से पाकिस्तान के अलग होने के विभाजन के उस दौर में हिन्दू, मुस्लिम और सिक्ख आजादी के बीच जो ऐतिहासिक हिंसा हुई थी, उससे भी लोग उबर गए थे. उसके बाद आजाद हिन्दुस्तान की पहली आधी सदी में देश के आधे प्रदेशों में जो साम्प्रदायिक दंगे होते थे, उनसे भी यह देश धीरे-धीरे करके उबर गया था. 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों से भी धीरे-धीरे लोग उबरे, और ताजा हिंसा के बिना एक साथ रहने लगे थे. गुजरात के 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों से भी लोग उबर गए थे, और पहले गुजरात में दो बार मोदी को दुबारा चुना, और फिर उन्हें प्रधानमंत्री भी चुना. लेकिन आज के हालात थोड़े से अलग है, आज कम्प्यूटर-इंटरनेट, सोशल मीडिया और मैसेंजर इस किस्म के हैं कि नफरत को कुछ मिनटों में ही चारों तरफ इतना फैलाया जा सकता है, झूठ को सच की तरह लोगों के सामने ऐसा पेश किया जा सकता है, कि उसे फिर वापिस नहीं लिया जा सकता, लोगों के दिमाग से शायद आसानी से निकाला नहीं जा सकता. यह समझने की जरूरत है कि आज लोगों को तकरीबन मुफ्त में झूठ और नफरत, हिंसा और धमकी फैलाने के जो साइबर-हथियार हासिल हैं, वे 2002 तक भी हासिल नहीं थे.
आज तो एक मामूली सा कुछ हजार का मोबाइल फोन देश में नफरत भड़काने के लिए काफी है, और सरकार द्वारा मुहैया कराए गए बाग-बगीचों को मुफ्त वाईफाई का इस्तेमाल करके लोग कमसमझ आबादी के एक बड़े हिस्से को उकसा सकते हैं, भड़का सकते हैं, और उन्हें साथ-साथ यह भी अहसास करा सकते हैं कि भड़ककर वे लोग एक किसी धर्म का या अपने देश का भला भी कर रहे हैं.
यह सदमा पहुंचाने वाली, और हक्का-बक्का करने वाली नौबत है कि लोग एक बच्ची के गैंगरेप और उसके कत्ल के आरोपियों को बचाने के लिए देश का राष्ट्रीय झंडा लेकर जुलूस निकालते हैं, उसमें बड़ी संख्या में औरतें भी शामिल होती हैं, और इसे हिन्दू धर्म और हिन्दुस्तान का हिमायती काम करार दिया जाता है. इस देश की यह नौबत बहुत ही शर्मनाक है, बहुत ही खतरनाक है, और हर बरस कुछ चुनावों के मुहाने पर खड़ा रहने वाला यह विशाल लोकतंत्र अपने मुर्दा कानूनों को लेकर कहां पहुंचेगा, यह पता नहीं.
दिक्कत यह है कि नफरत फैलाने वाले, हिंसा की खुली और अश्लील धमकी देने वाले, बलात्कार की धमकी देने वाले लोग सोशल मीडिया पर ऐसे हैं जो गर्व से यह लिख पाते हैं कि देश को कौन से सबसे बड़े-बड़े नेता उन्हें फॉलो करते हैं. जो लोग जाहिर तौर पर आए दिन जुर्म करते हैं, उनसे भी किसी को परहेज नहीं है!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शाम के अखबार छत्तीसगढ़ के संपादक हैं.