छत्तीसगढ़

धर्मसंकट में रमन

दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह उन गिने-चुने मुख्यमंत्रियों में हैं, जिनकी सरलता, सादगी और इमानदारी की दाद दी जाती है. वे लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं. सन् 2003 से 2008 और फिर 2013 तक उनके दस साल के शासन के दौरान सरकार भ्रष्टाचार एवं कुशासन से संबंधित विभिन्न आरोपों से घिरी रही लेकिन रमन सिंह बेदाग रहे. एक राजनीतिक के रूप में उनकी छवि निर्मल है तथा प्रदेश भाजपा संगठन में वे एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनके उदारवादी चेहरे को जनता ने पसंद किया तथा उनके नेतृत्व में पार्टी को पुन: सत्ता सौंप दी.

अब मुख्यमंत्री के पास पार्टी के घोषणा पत्र में उल्लेखित संकल्पों एवं जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए पूरे पांच वर्ष हैं. वे इस अवधि में कितना कुछ कर पाएंगे, यह तो समय ही बताएगा लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में जो राजनीतिक फिजां बदली है, उसके परिप्रेक्ष्य में क्या उनकी पार्टी तथा वे अपनी राजनीतिक सोच एवं क्रियाकलापों में कोई बदलाव लाएंगे? खासकर ऐसे वक्त पर जब आगामी मई-जून में लोकसभा के चुनाव होने हैं और पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का भविष्य दांव पर लगा हुआ है.

छत्तीसगढ़ से लोकसभा की 11 सीटें हैं जिनमें से दस पर भाजपा का कब्जा है. सवाल है क्या यह स्थिति कायम रह पाएगी या बस्तर जैसे नतीजे आएंगे. हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में बस्तर में भाजपा अपनी पूर्व स्थिति (12 में से 11 सीटें) बहाल नहीं रख पाई थी. कांग्रेस ने इस आदिवासी अंचल में तगड़ी सेंध लगाई तथा भाजपा से 7 सीटें छीन ली. क्या लोकसभा चुनाव में भी ऐसा दृश्य नज़र आएगा? डॉ.रमन सिंह एवं प्रदेश संगठन के लिए चिंता का विषय है- लोकसभा चुनाव एवं आम आदमी पार्टी जिसका भले ही छत्तीसगढ़ में मजबूत आधार न हो लेकिन दिल्ली से चली आंधी छत्तीसगढ़ में भी अपना असर दिखाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

दरअसल मुख्यमंत्री की सहज-सरल प्रकृति एवं जज्बे को देखते हुए सहज जिज्ञासा होती है कि क्या वे भी कुछ-कुछ अरविंद केजरीवाल की तरह काम करने की कोशिश करेंगे? प्रदेश की राजनीति में आम आदमी पार्टी के प्रभाव को रोकने का एकमात्र तरीका यही है कि आम आदमी की पॉलिटिक्स की जाए यानी राजनीति के केन्द्र में आम आदमी हो. राज्य विधानसभा चुनाव में भले ही भाजपा ने 49 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया हो या कांग्रेस ने 39 सीटें जीतकर चुनौती पेश की हो, पर दोनों आम आदमी के मानस से जुड़ी हुई नहीं हैं और न ही वे उनकी संवेदनाओं, अपेक्षाओं, आकांक्षाओं एवं आम जरूरतों का ध्यान रखती हैं. बेहतर विकल्प के अभाव में मतदाताओं के सामने इन दो में से एक को चुनने की मजबूरी रही है. लेकिन राजनीति में अब आम आदमी पार्टी के दखल के बाद जिसने लोकसभा की 300 सीटों पर चुनाव लड़ने पर इरादा जाहिर किया है, अपनी जड़ों को मजबूत रखना एवं चुनाव जीतना भाजपा के लिए आसान नहीं है.

तो क्या डॉ.रमन सिंह भी अपने राजनीतिक तौर-तरीकों एवं विचारों में बदलाव लाएंगे? क्या वे भी केजरीवाल की तरह अतिविशिष्ट सुविधाओं के घेरे से बाहर निकलने का साहस दिखाएंगे? क्या वे वीवीआईपी सुरक्षा को तिलांजलि देंगे? क्या वे केजरीवाल की तरह ट्रेफिक नियमों का पालन करते हुए चौराहों के रेड सिग्नलों पर अपने काफिले को रोकेंगे? क्या वे भव्य सरकारी बंगले का मोह छोड़कर एक सामान्य मकान में रहना पसंद करेंगे? क्या वे अतिविशिष्ट होने के बावजूद आम आदमी बने रहना पसंद करेंगे? और भी बहुत सारी बातें हैं जो विशिष्टता कायम रखते हुए उन्हें सामान्य की ओर ले जा सकती हैं.

कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री एवं सत्ताधारी नेता सादगीपसंद हैं और उनके दैनंदिन व्यवहार में यह शामिल भी है. क्या रमन सिंह दस साल के शानदार एवं वैभवपूर्ण सत्ता सुख के बाद राजनीति के बदलते हुए माहौल के अनुरूप स्वयं को ढालने की कोशिश करेंगे. क्या वे इस पर विचार करेंगे?

दरअसल यह सब कुछ व्यक्ति के सोच पर निर्भर करता है. मुख्यमंत्री एवं अति उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों को मिलने वाली सारी सुख-सुविधाएं, सुरक्षा आदि विधिसम्मत है. उपभोग का उन्हें अधिकार है पर व्यक्ति चाहे तो आदर्श प्रस्तुत कर सकता है जैसा कि केजरीवाल एवं अन्य ने किया है. और तो और राजस्थान की नई मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने भी सरकारी बंगला छोड़ने एवं सुरक्षा में कटौती का फैसला किया है. झारखंड के मुख्यमंत्री भी इसी राह पर चल पड़े हैं. जाहिर है यह ‘आप’ का असर है. डॉ.रमन सिंह से भी उम्मीद इसलिए कर सकते हैं क्योंकि वे भी सादगी पसंद हैं.

यह तो हुई वीवीआईपी सुख-सुविधाओं को त्यागने की बात. लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है सच्चे जनसेवक की तरह आचरण की. दिल्ली में आम आदमी पार्टी को सफलता इसलिए मिली क्योंकि उसने जनता के मुद्दे उठाए, जन-आंदोलन किया, उनकी आवाज को अपनी आवाज दी. लोगों की अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को समझकर उनमें एक विश्वास जगाने की कोशिश की.

आप ने राजनीति की एक नई दिशा तय की. इस पर चलना अब राजनीतिक दलों की मजबूरी है क्योंकि सत्ता को कायम रखने एवं चुनाव जीतने का नायाब अस्त्र यही है. इसलिए यदि रमन सिंह विपक्ष के हमलों से बचना चाहते हैं और लोकसभा चुनाव में भाजपा का परचम पुन: लहराना चाहते हैं तो उन्हें तथा उनकी पार्टी को सीधे तौर पर जनता से जुड़ना पडे़गा, जनहित के फैसले लेने पड़ेंगे, समय-सीमा के भीतर समस्याएं निपटानी पड़ेंगी, भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त मुहिम छेड़नी पड़ेगी तथा शासन-प्रशासन को पारदर्शी बनाना पडे़गा. कांग्रेस के लिए भी यही बात लागू होती है.

कांग्रेस को सत्ता पक्ष के साथ नूराकुश्ती छोड़कर एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभानी पड़ेगी और जनता के मुद्दों के साथ अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते हुए उन्हें परिणाममूलक बनाना पड़ेगा. जो पार्टी ऐसा कर पाएगी, जनता भी उसके साथ खड़ी होगी. ‘आप’ की जीत का मंत्र भी यही है.
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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