राजकिशोर जी का जाना
ओम थानवी | फेसबुक: राजकिशोर जी नहीं रहे. हिंदी पत्रकारिता में विचार की जगह आज और छीज गई. कुछ रोज़ पहले ही उन्होंने अपना प्रतिभावान इकलौता बेटा खोया था.
पिछले महीने जब मैं उनसे मिलने गया, वे पत्नी विमलाजी को ढाढ़स बँधा रहे थे. लेकिन लगता था ख़ुद भीतर से कम विचलित न रहे होंगे. मेरे आग्रह पर राजस्थान पत्रिका के लिए वे कुछ सहयोग करने लगे थे. एक मेल में लिखा – “दुख को कब तक अपने ऊपर भारी पड़ने दिया जाये.” फिर जल्द दूसरी मेल: “तबीयत ठीक नहीं रहती. शरीर श्लथ और दिमाग अनुर्वर. फिर भी आप का दिया हुआ काम टाल नहीं सकता. आज हाथ लगा रहा हूँ.”
लेकिन होना कुछ बुरा ही था. फेफड़ों में संक्रमण था. कैलाश अस्पताल होते एम्स ले जाना पड़ा. आइसीयू में देखा तो अचेत थे. कई दिन वैसे ही रहे. तड़के उनकी बहादुर बेटी ने बताया डॉक्टर कह रहे हैं कभी भी कुछ हो सकता है; कुछ घंटे या दो-तीन रोज़ … और दो घंटे बाद वे चले गए. फ़ोन पर मुझसे कुछ कहते नहीं बना. परिवार पर दूसरा वज्रपात हुआ है. ईश्वर उन्हें इसे सहन कराए.
मेरा परिचय उनसे तबका था जब सत्तर के दशक में बीकानेर में शौक़िया पत्रकारिता शुरू की थी. वे कलकत्ता में ‘रविवार’ में थे. तार भेजकर मुझसे लिखवाते थे. फिर जब मैं राजस्थान पत्रिका समूह के साप्ताहिक ‘इतवारी पत्रिका’ का काम देखने लगा, उन्होंने हमारे लिए नियमित रूप से ‘परत-दर-परत’ स्तम्भ लिखा जो बरसों चला. ‘जनसत्ता’ के भी वे नियमित लेखक रहे.
गांधी और समाजवाद में उनकी गहरी आस्था थी.
उन्होंने ‘परिवर्तन’, ‘दूसरा शनिवार’, (ऑनलाइन) ‘हिंदी समय’ और हाल में नए ‘रविवार’ का सम्पादन किया. नवभारत टाइम्स में भी रहे. उनकी किताबें हैं – पत्रकारिता के पहलू, पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य, धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति, एक अहिंदू का घोषणापत्र, जाति कौन तोड़ेगा, रोशनी इधर है, सोचो तो संभव है, स्त्री-पुरुष : कुछ पुनर्विचार, स्त्रीत्व का उत्सव, गांधी मेरे भीतर. समकालीन मुद्दों और समस्याओं पर उन्होंने ‘आज के प्रश्न’ शृंखला में कोई पच्चीस किताबों का सम्पादन भी किया. उनके दो उपन्यास और एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए.
राजकिशोर जी ही नहीं गए, उनके साथ हमारा काफ़ी कुछ चला गया है. जो लिखा हुआ छोड़ गए हैं, उसकी क़ीमत अब ज़्यादा समझ आती है.