इप्टा का 17वां ‘मुक्तिबोधी’ नाट्य समारोह
टैगोर की यह कथा जितनी सरल है, इसका मंचन उतना ही कठिन. बंगाल में शंभु मित्र जैसे दिग्गज की प्रस्तुति भी फ्लाप हो गयी थी. लेकिन इस नाटक का आकर्षण इतना जबरदस्त है कि हर बांग्ला टीम इसे अवश्य ही खेलना चाहती है. प्रोवीर गुहा भी इस मोह को छोड़ नहीं पाये और ‘विषदकाल’ के रुप में इस नाटक को उन्होंने एक नयी रंग-सज्जा के साथ प्रस्तुत किया है. इप्टा के मंच पर यह उनकी 36वीं प्रस्तुति थी और निश्चित ही ‘विसर्जन’ को ‘विषदकाल’ के रुप में प्रस्तुत करने में वे बेहद सफल रहे. अपनी प्रस्तुति में उन्होंने प्रकाश, संगीत, नृत्य और देह भंगिमा का भरपूर उपयोग तो किया ही है, हिंसा के खिलाफ संदेश देते हुए उन्होंने इसे सामयिक बनाने की भी कोशिश की है.
बंगाल में हो रहे खून-खराबे को भी उन्होंने स्लाइड के माध्यम से प्रस्तुत किया है, तो ‘हजार चैरासी की मां’ का जिक्र भी उनकी रंगमंचीय राजनीति का स्पष्ट था. प्रकाश व तकनीक के सामंजस्य से दृश्यांतरण को उन्होंने सहज संभव बनाया. अपनी प्रस्तुति में बंगाल के लोकरंग का उन्होंने बेहतरीन उपयोग किया. पात्रों के अभिनय में नुक्कड़ शैली स्पष्ट थी, जो प्रोवीर गुहा का स्वभाविक झुकाव है. मौन उन्हें बर्दाश्त नहीं है और रंगमंच शुरू से अंत तक संगीत से भरा रहा. इससे शोरगुल का प्रभाव भी पैदा हुआ, जो नाटक के दृश्य के सहज संपे्रषण में बाधक बना.
प्रोवीर गुहा बांग्ला रंगमंच के राजनैतिक रुप से जागरूक कार्यकर्ता हैं और उनका वामपंथी झुकाव स्पष्ट है. रंगमंच के क्षेत्र में वे उस रंगमंचीय सक्रियता में विश्वास करते हैं, जो दर्शकों के बीच मुद्दों को लाये और उन्हें उत्तेजित करे–इतना उत्तेजित करें कि वे दो ग्रुपों में बंट जायें और विवाद करें. इस विवाद के जरिये वे अपने रंग-दर्शकों से संवाद स्थापित करना चाहते हैं. रंगमंच पर यह उनका द्वंद्ववादी प्रयोग है.
इस मायने में वे उस प्रायोगिक एवं व्यावहारिक रंगमंच में विश्वास करते हैं, जो समाज व समय के प्रति अपने को जिम्मेदार मानता है और खासकर हाशिये पर पड़े समुदायों, गांवों को, झुग्गियों को, फुटपाथियों को, बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को संबोधित करने को अपनी रंगमंचीय प्राथमिकता मानते हैं. वे रंगमंच के समस्त औजारों का उपयोग इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं. उनके नाटकों में चरित्र महत्वपूर्ण नहीं होते जो मुद्दे उठाते हैं, बल्कि वे मुद्दों को उठाने के लिए चरित्रों का निर्माण करते हैं. इसलिए वे बने-बनाये नाटकीय विधान को नकारने का साहस भी जुटाते हैं. अतः वे नाटक को किसी उत्पाद के रुप में नहीं, प्रक्रिया के रुप में देखते हैं जो प्रतिरोधी चरित्रों को जन्म देते हैं. इस प्रकार, प्रोवीन गुहा प्रतिरोध के रंगमंच के अगुवा प्रतिनिधि हैं.
12वें मुक्तिबोध नाट्य समारोह में दिवंगत हबीब तनवीर ने भी ‘विसर्जन’ को ‘राजरक्त’ के रुप में प्रस्तुत किया था. प्रोवीर ने अपनी प्रस्तुति में बांग्ला गीत-संगीत तथा हिन्दी-अंग्रेजी के संवादों का मिला-जुला उपयोग किया है, तो तनवीर साहब ने बांग्ला के गीतों तथा हिन्दी-छत्तीसगढ़ी के संवादों का खूबसूरती से प्रयोग किया था. तनवीर के हाथों छत्तीसगढ़ी लोकरंग में बंगाल की आत्मा पूरी तरह जीवित थी.
टैगोर एक, उनका उपन्यास ‘राजश्री’ और नाटक ‘विसर्जन’ एक–लेकिन दो एकदम भिन्न प्रस्तुतियां ‘विषदकाल’ और ‘राजरक्त’ रंग-दर्शकों ने दोनों का मजा लिया, दोनों को सराहा. हिन्दुस्तानी रंगमंच की यही खासियत है, जो हमारी साझा संस्कृति से विकसित होती है–अंधविश्वास, कट्टरता, पोंगा पंथ व रुढि़वाद के खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी जीवन-मूल्यों को आगे बढ़ाती हुई.
जिस छत्तीसगढ़ में सरकार बारिश के लिए यज्ञ करती है, जिसके मंत्री-संत्री अपने अंधविश्वासों के खुले प्रदर्शनों के लिए बलि देते हैं और कानून व्यवस्था की जर्जर स्थिति को ग्रहों का प्रकोप बताने से नहीं चूकते, वह छत्तीसगढ़ निश्चय ही ऐसे विषदकाल में है, जहां प्रोवीर गुहा की रंगमंचीय उपस्थिति बहुत जरूरी थी. इस कठिन राजनैतिक समय में इप्टा के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप को सराहा जाना चाहिए.
वाद-विवाद-संवाद की द्वंद्वात्मक पद्धति का प्रयोग इप्टा भिलाई की तीसरे दिन की प्रस्तुति मंथन में भी देखने को मिला. दिवंगत शरीफ अहमद लिखित इस नाटक का निर्देशन किया था त्रिलोक तिवारी ने. इस दो पात्रीय नाटक में संजीव मुखर्जी ने केवट और राजेश श्रीवास्तव ने पंडित की भूमिका अदा की थी. दोनों का अभिनय बेहतरीन था. मंच सज्जा साधारण थी और सुभाष धनगर की रुपसज्जा पात्रानुकूल. वस्त्र-विन्यास मणिमय मुखर्जी का था.
हमारे शास्त्रीय ग्रंथों में भी वाद-विवाद-संवाद की तार्किक पद्धति का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है. अतः साहित्य और संस्कृति तथा इसकी एक शाखा रंगमंच भी इससे अछूती नहीं है. यह पद्धति हर चीज को नकारने, उस पर अविश्वास करने तथा वाद-विवाद के जरिये संवाद स्थापित करने और वर्गीय सत्य उद्घाटित करने पर जोर देती है. जो लोग आध्यात्मिकता की आड़ में अंधविश्वास और भाग्यवाद को अपना जीवनाधार बनाते हैं, वे इस पद्धति को पचा नहीं पाते. इसीलिए चार्वाक नकारने की हद तक उनके निशाने पर रहे हैं.
लेकिन सच्चाई यही है कि संपूर्ण गति का सार द्वंद्व ही है, द्वंद्व से ही समय और समाज आगे बढ़ता है. द्वंद्व से ही किसी पुरानी चीज से नयी चीज निकलकर आती है. ‘मंथन’ में इस प्रक्रिया को बड़ी ही खूबसूरती से उभारा गया है. संवादों के जरिये इस द्वंद्व को उभारने में बस इतनी छोटी और सीधी-सादी कहानी का सहारा लिया गया है कि नदी का पुल टूट गया है और नदी पार जाने के लिए नाव और केवट का ही सहारा रह गया है. पूरे दिन थकान से चूर होकर केवट खाने-पीने में व्यस्त है और पंडित जी को नदी पार ले जाने के लिए तैयार नहीं. पंडित उसे पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, ईश्वर– सबकी बात कहकर डराता है, लेकिन केवट अपने मजेपन में खिलंदड़ी के साथ पंडित की बात को काटता जाता है. अंत में पंडित खुद खाने-पीने लगता है और इस पाप का बोझ केवट पर डालता है. संवाद की इसी प्रक्रिया में पंडित को सांप काट लेता है और केवट पंडित के शरीर का विष चूसकर उसे तो बचा लेता है, लेकिन स्वयं सिधार जाता है.
पूरा नाटक मंचस्थ दो पात्रों की संवाद अदायगी के सहारे आगे बढ़ता है, लेकिन मुखर्जी और श्रीवास्तव ने इसमें अपने रंग भर दिये हैं. ये रंगीन संवाद दर्शकों को हंसाते-गुदगुदाते हैं और उसकी चेतना पर जमी धूल को हल्के से झाड़ते भी है. पूरा नाटक आस्तिक और नास्तिक दोनों समूहों के लिए दर्शनीय है और यही इस नाटक की सफलता है.
इस समारोह का रंगारंग व भव्य समापन हुआ नादिरा बब्बर के ‘ये है बाॅम्बे मेरी जान’ से. रंगारंग इसलिए कि महाराष्ट्र मंडल के रंगमंच पर नादिरा के नाटक में जीवन के सभी रंग उपस्थित थे. ये सभी रंग मिलकर जादुई यथार्थवाद का सृजन कर रहे थे- जिसमें हास्य था, तो करूणा भी थी, संघर्ष था तो सुकून भी था, प्यार और नफरत भी थी.
नादिरा के इस रंग में बॉम्बे (मुंबई) नहीं कि झलक थी, लेकिन इसकी संवेदनायें किसी भी महानगर से जोड़ी जा सकती थीं और इसका विस्तार रोजी-रोटी और बेहतर जीवन की तलाश में संघर्ष कर रहे लोगों की संवेदनाओं तक किया जा सकता था. इसे संपूर्ण ड्रामा कहा जा सकता था, जिसमें सिनेमाई झलक और सीरियलों की स्पष्ट छाप थी. इसे देखते हुए मुझे ‘अमर अकबर एंथोनी’ और बहुत पुराने सीरियल ‘नुक्कड़’ की याद आ रही थी. लेकिन नादिरा के ये रंग बहुत ही सहज-स्वभाविक थे और इसमें किसी प्रकार की कृत्रिमता की गंध नहीं थी.
नादिरा के इस जीवन रंग को रंग-दर्शकों का भरपूर प्रतिसाद मिला. पिछले तीन दिनों की तुलना में सबसे ज्यादा रंग-दर्शक इसी नाटक में आये, प्रेक्षागृह में पैर रखने की जगह नहीं थी, फिर भी पूरी तरह अनुशासित. इसकी नादिरा ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की. वास्तव में इस नाटक को ‘हिन्दुस्तानी रंगमंच’ के रुप में रेखांकित किया जा सकता है, जिसकी चर्चा इस समारोह की विचार संगोष्ठी में हो रही थी.
बंबई एक लघु भारत है, जहां हर धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा और प्रांत के लोग बसते हैं. इनमें से अधिकांश बंबई के होकर रह जाते हैं और बहुत सारे बंबई से बहुत कुछ लेकर और बहुत कुछ देकर चले जाते हैं. बंबई केवल मुंबईवासियों या मराठियों की ही नहीं है, सबकी है. बंबई हमारे महान भारत की ‘साझा हिन्दुस्तानी संसकृति’ का प्रतिनिधित्व करता है. बंबई की यही साझा संस्कृति नादिरा के रंग में खिल उठी है, जहां हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई, मद्रासी-बिहारी-लखनवी सभी भाई-भाई के रंग बिखेरते हैं–अपनी मानवीय कमजोरियों, झगड़ों, तुच्छताओं और चालाकियों के बावजूद. उनमें गंगा-जमुनी तहज़ीब प्रवाहित होती है और हिन्दुस्तानी दिल धड़कता है. वे सभी अपने को स्थापित करने के संघर्ष में जुटे हैं और एक-दूसरे की परेशानियों में साथ हैं. इन परेशानियों में उनकी व्यक्तिगत परेशानियां तो हैं ही, महानगरीय जीवन जिस संकट की चपेट में आ रहा है, मसलन- धार्मिक आधार पर पुलिस प्रताड़ना, आतंकवाद, क्षेत्रीय उन्माद- उसकी भी परेशानियां हैं. लेकिन इन सब परेशानियों का एक ही हल है कि लोग-बाग एकजुट रहें. नादिरा की नाट्य संस्था ‘एकजुट’ एकजुटता के इस संदेश को रंग-दर्शकों तक सम्प्रेषित करने में कामयाब रही है.
इस नाटक की कामयाबी इस तथ्य में भी निहित है कि नादिरा मनोरंजन के जिस तत्व को नाटक के लिए प्रधान मानती हैं, वह तत्व भरपूर तो था ही, बिना किसी राजनैतिक हल्ले और प्रचार के बंबई की सामाजिक-आर्थिक तर्संबंधों को भी उजागर करता है, जिसकी रचना में कथित ‘बाहरी’ लोगों का काफी योगदान है.
नाटक अपने सम्पूर्ण गठन में सामूहिक प्रस्तुति ही होती है– एकल अभिनय सहित. यह सामूहिकता निर्देशन, अभिनय, गीत-संगीत, रुप-मंच सज्जा, प्रकाश, ध्वनि इन सभी में लयबंद्ध से पैदा होती है और तभी दर्शकों तक किसी नाटक का अपेक्षित प्रभाव सम्प्रेषित हो पाता है. यदि इनमें से किसी एक का भी तालमेल अन्य से बिगड़ जाये, तो अच्छे नाटक का भी सत्यानाश होने में देर नहीं लगती. नाटक की सामूहिकता को ‘एकजुट’ ने पूरी तरह उभारा. यही कारण है कि रंग-दर्शक भी तीजनबाई के हाथों नादिरा को स्वर्गीय कुमुद देवरस सम्मान से सम्मानित होते देखते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहे थे. यह मुंबई के किसी रंगकर्मी का सम्मान नहीं था, बल्कि हिन्दुस्तानी रंगमंच का हिन्दुस्तानी कलाकार के हाथों सम्मान था.
ये रायपुर है मेरी जान, जहां साझा हिन्दुस्तानी संस्कृति धड़कती है- सांस्कृतिक लठैतों के हमलों के बावज़ूद.