इप्टा का 17वां ‘मुक्तिबोधी’ नाट्य समारोह
समारोह के तीसरे दिन ‘विवेचना’, जबलपुर ने भी तेंदुलकर के नाटक ‘खामोश! अदालत जारी है’ का मंचन किया. इस नाटक का मंचन कई टीमों द्वारा रायपुर में हो चुका है, लेकिन निर्देशक विवके पांडे इसमें अपना रंग भरने में सफल रहे और कई बार देखे-सराहे जा चुके इस नाटक को प्रस्तुत कर एक बार फिर से उन्होंने सराहना बटोरी.
विजय तेंदुलकर कोई क्लासिक नहीं रचते, लेकिन इस नाटक में हिंसा-प्रतिहिंसा का एक ऐसा खेल जरूर खेलते हैं कि सभ्यता की खाल ओढ़े वकील सुखात्मे (आशुतोष द्विवेदी), नाट्य मंडली के मालिक काशीकर (नवीन चैबे), उसकी पत्नी (अर्पणा शर्मा), सेवक बालू , सावंत (अमित निमजे), कार्णिक (सूरज राय), रोकड़े (मनीष तिवारी) और पोंछे (रविन्द्र मुर्हार) आदि सभी की परतें धीरे-धीरे खुल जाती है और उनका ओछापन तथा लघुता सबके सामने आ जाती है. पूरी थीम नाटक के अंदर नाटक की है. इस काल्पनिक नाटक में जिस मिस बेणारे (अलंकृति श्रीवास्तव) पर भ्रूण हत्या का आरोप लगाया जाता है, उसके खिलाफ फैसला दिया जाता है कि समाज व सभ्यता को कलंकित होने से बचाने के लिए वह अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को गिरा दे. इस प्रकार तेंदुलकर मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति को उजागर करते हैं.
निर्देशन, संगीत, प्रकाश, अभिनय– सब मिलाकर नाटक को बेहतरीन तरीके से आगे बढ़ाते हैं और पूरा नाटक रंग-दर्शकों की चेतना को झकझोरने में कामयाब होता है. मिस बेणारे की भूमिका में अलंकृति श्रीवास्तव के अभिनय को अलग से रेखांकित अवश्य करना चाहिए कि उन्होंने चरित्र के अंदर घुसकर अभिनय किया है और उनका अभिनय इतना बेहतरीन था कि नाटक समाप्त होने के बाद भी वे चारित्रिक अवस्था से बाहर नहीं आ पाई थीं. इतने संवेदनशील और विवादित विषय पर अभिनय के बल पर वे रंग-दर्शकों की सहानुभूति और समर्थन मिस बेणारे के लिए ले पाई. एक दूसरे दृष्टिकोंण से यह नाटक स्त्री देह की स्वतंत्रता, उसकी निजता और गरिमा तथा वर्तमान में साहित्य में चल रहे स्त्री विमर्श से भी जुड़ता है. अपने समय में तेंदुलकर ने भारतीय समाज में स्त्री की जिस स्थिति को रेखांकित किया था, ‘विवेचना’, जबलपुर ने उसे पुनः रेखांकित करने का सार्थक प्रयास किया.
इस समारोह का दूसरा दिन प्रोवीर गुहा के नाम था, जो अपना ‘अल्टरनेटिव लीविंग थियेटर लेकर आये थे. इस नाट्य दल ने उनके निर्देशन में ‘विषदकाल’ पेश किया. यह नाटक गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘विसर्जन’ पर आधारित है. इस नाटक को टैगोर ने अपने उपन्यास ‘राजश्री’ के आधार पर लिखा था.
मूल कहानी बहुत ही सरल व मर्मस्पर्शी है. गोमती के किनारे एक छोटा सा गांव है त्रिपुरा. रघुपति इस गांव का पंडित है, जो लोगों को सुख-शांति के लिए पशु बलि व मानव बलि देने पर मजबूर करता है, अन्यथा गांव में अशांति और दुखों का पहाड़ टूटने का भय दिखाता है. इस बलि से गोमती लाल नदी में बदल जाती है. इस बलि प्रथा पर राजा रोक लगा देता है, इससे रघुपति बौखला जाता है और राजा की बलि लेने के लिए षड़यंत्र करता है. राजा का भाई अंत में अपना राजरक्त देता है इस शर्त के साथ कि आगे से कोई बलि नहीं ली जाएगी.