स्वास्थ्य बीमा का सच
स्वास्थ्य के अधिकार की मांग के बदले में स्वास्थ्य बीमा का प्रावधान किया गया है. अधिकारियों के स्तर पर यह सोचा गया कि स्वास्थ्य की गारंटी का काम अस्पताल में भर्ती होने पर बीमा कवर देकर किया जा सकता है. भारत में सरकारी स्वास्थ्य तंत्र पर काफी कम पैसा खर्च किया जा रहा है और इससे इसकी हालत खराब हो गई है. वित्त मंत्री ने इस सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पेश करते हुए स्वास्थ्य क्षेत्र पर खास ध्यान देने की बात कही. ‘आयुष्मान भारत’ को लेकर जो बड़े दावे उन्होंने किए उसके मुकाबले में स्वास्थ्य क्षेत्र को आवंटन नहीं मिला. बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को 54,600 करोड़ रुपये आवंटित किया गया है. पिछले साल 53,294 करोड़ आवंटित किए गए थे.
अगर महंगाई के प्रभाव की गणना करें तो वास्तविकता यह है कि इस साल स्वास्थ्य बजट में कटौती कर दी गई. इतने पैसे में केंद्र की जीडीपी का कम से कम एक फीसदी और राज्यों की जीडीपी का डेढ़ फीसदी स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करने का लक्ष्य पूरा नहीं होगा. किसी भी देश में अनिवार्य स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए ये न्यूनतम खर्च है. इसे कई समितियों ने बार-बार दोहराया है. इसका जिक्र राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में भी है.
वित्त मंत्री ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना की घोषणा करते हुए इसे दुनिया का सबसे बड़ा सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रम कहा. इसके तहत उन्होंने दस करोड़ परिवारों को अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति में पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा कवरेज देने की बात कही है. बजट भाषण में कहा गया कि इस योजना के लिए जरूरी रकम उपलब्ध कराई जाएगी लेकिन बजट दस्तावेजों में रकम का जिक्र नहीं है.
अगर हर परिवार को बीमा देने का खर्च 3,000 रुपये भी सालाना आता है तो एक साल का खर्च 30,000 करोड़ रुपये आएगा. मौजूदा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत गरीब परिवारों को सालाना 30,000 रुपये का कवरेज मिलता है. इसके लिए 2018-19 के बजट में 2,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. बाद में स्वास्थ्य मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग के अधिकारियों के जो बयान आए उससे यह लगता नहीं कि इस साल राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना लागू हो पाएगी.
प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के मकसद से 1.5 लाख स्वास्थ्य केंद्रों के लिए 1,200 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. ताकि वे व्यापक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करा सकें. बजट आवंटन प्रति केंद्र 80,000 रुपये का है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन केंद्रों में कितना सुधार हो जाएगा. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का आवंटन 658 करोड़ रुपये घटाकर 30,634 करोड़ रुपये कर दिया गया है. इसके तहत प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तंत्र में सुधार किया जाना शामिल है. ऐसे में इसके आवंटन में कमी करने से पिछले दस सालों में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत किए गए कार्य भी प्रभावित होंगे.
देश में स्वास्थ्य सेवाओं की उपेक्षा तब की जा रही है जब कि पांच साल से कम उम्र के एक तिहाई बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और गैर संक्रामक और संक्रामक बीमारी का बोझ लगातार बढ़ रहा है. कई सरकारी रिपोर्ट में यह बात आई है कि लोगों को इलाज के लिए अपनी जेब से काफी पैसा खर्च करना पड़ रहा है.
स्वास्थ्य बीमा इसे कम करने और गरीबों को राहत देने में नाकाम रहा है. भारत में चिकित्सा के कुल खर्चे में इस तरह के खर्चे की हिस्सेदारी 67 फीसदी है. मौजूदा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत उन मामलों की संख्या कम है जिसके बदले आंशिक या पूर्ण रूप से पूरा खर्च लाभार्थियों को मिलता है. इसके अलावा मान्यता प्राप्त अस्पताल शहरी क्षेत्रों में हैं और इनमें भी निजी अस्पतालों की संख्या सरकारी अस्पतालों के मुकाबले काफी अधिक है.
सरकार बीमा आधारित व्यवस्था पर जोर देती दिख रही है. इससे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी हो रही है. इससे बीमा कंपनियों को कितना फायदा होने वाला है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि बजट के बाद स्वास्थ्य बीमा देने वाली कंपनियों के शेयर के भाव लगातार बढ़े.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी कहा गया है कि स्वास्थ्य बीमा की विकास दर दोहरे अंकों में रहने वाली है. सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों में न तो बुनियादी ढांचा ठीक है और न ही पर्याप्त संख्या में डॉक्टर और दूसरे स्वास्थ्यकर्मी हैं. ऐसे में गरीबों के पास भी निजी अस्पतालों में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा. निजी अस्पतालों में सेवा की जगह सिर्फ मुनाफे पर जोर होता है. प्रस्ताविक स्वास्थ्य बीमा योजना से यह चीज और बढ़ेगी.
पूरी दुनिया के अनुभव यह बताते हैं कि बगैर मजबूत नियमन और अच्छे सरकारी स्वास्थ्य तंत्र के निजी क्षेत्र पर निर्भर स्वास्थ्य तंत्र लोगों को प्रभावी स्वास्थ्य सेवाएं देने में नाकाम रहा है. ऐसे में भारत का जोर सरकार स्वास्थ्य तंत्र पर निवेश बढ़ाने और इसे मजबूत बनाने पर होना चाहिए. साथ ही तेजी से बढ़ते निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के नियमन के लिए भी जरूरी उपाय किए जाने चाहिए.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के ताजा संपादकीय का अनुवाद