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एयर इंडियाः महाराजा के साथ छलावा

2016-17 की आर्थिक समीक्षा में एयर इंडिया को हमेशा घाटे में रहने वाली सरकारी विमानन कंपनी कहा गया है. अब इसका निजीकरण किया जा रहा है. कैबिनेट ने नीति आयोग की सिफारिशों के तुरंत बाद इस प्रस्ताव को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है. यह इस सरकार की कार्यशैली का हिस्सा है कि बगैर सभी पक्षों से बात किए जल्दबाजी में निर्णय लिए जाएं. एयर इंडिया कर्मचारी संगठन ने इसके खिलाफ आंदोलन की चेतावनी दी है.

दूसरी विमानन कंपनियों की तरह एयर इंडिया भी मुश्किल में है. 2012 में इसके कायापलट के लिए 10 साल की एक योजना बनी थी और अब भी इसका क्रियान्वयन चल रहा है. उम्मीद से पहले यानी 2015-16 में एयर इंडिया ने परिचालन मुनाफा कमाना शुरू किया और इसके कुल घाटे में कमी की शुरुआत हुई. सस्ती सेवाएं देने वाली इसकी सहयोगी एयर इंडिया एक्सप्रेस तो फायदे में रही. 2016-17 में तो इन दोनों का प्रदर्शन और अच्छा रहा. विमानन कंपनियों के लिए सीट भरने की उनकी क्षमता को उनकी अच्छी सेहत का एक अहम संकेतक माना जाता है.

पिछले पांच साल में एयर इंडिया की इस क्षमता में लगातार सुधार हुआ है. पिछले साल भारतीय विमानन क्षेत्र का प्रदर्शन कई मुश्किल सालों के बाद सुधरा. माना जा रहा है जिस तरह का स्थिर विकास है उस हिसाब से दशक के अंत तक भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा विमानन बाजार बन जाएगा. उम्मीद का माहौल है. अनुमान है कि अगल साल तक घरेलू यात्रियों की संख्या 10 करोड़ तक पहुंच जाएगी. इससे साफ है कि दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले भारत में विमानन क्षेत्र का भविष्य अधिक उज्जवल है. भारत में विमानन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 100 फीसदी कर दी गई है. इन बातों को ध्यान में रखता हुए कहा जा सकता है कि सरकार सुधार के नाम पर महाराजा के साथ छलावा कर रही है.

सरकार हमें यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रही है कि इसका निजीकरण इसलिए जरूरी था क्योंकि एयर इंडिया की माली हालत बहुत खराब थी और यह कुप्रबंधन का शिकार है. लेकिन यह एक वैचारिक निर्णय है और इससे निजी विमानन कंपनियों को फायदा होगा. इससे न तो एयर इंडिया का भला होगा और न ही इसके कर्मचारियों का. यह विमानन क्षेत्र और यात्रियों के हित में भी नहीं है.

एयर इंडिया कोई अकेली विमानन कंपनी नहीं है जिसकी स्थिति खराब है. निजी विमानन कंपनियों की हालत भी ठीक नहीं है. किंगफिशर एयरलाइंस भी ऐसा ही एक उदाहरण है. उदारीकरण के बाद कई कंपनियों ने काम शुरू किया. इनमें से 23 या तो बंद हो गए या उनका किसी दूसरी कंपनी में विलय हो गया. कई कंपनियों को पिछले एक दशक से घाटा हो रहा है. कच्चे तेल की कीमतों में कमी से पहले तक विमानन ईंधन की कीमत अधिक होने की वजह से इस क्षेत्र की कंपनियों की हालत खराब रही.

यह सोचना अतिरेक है कि एयर इंडिया हमेशा घाटे में रही और कभी भी मुनाफे में नहीं आ सकती और यह कुप्रबंधन की वजह से है. कंपनी की खराब माली हालत की वजह से इसके बारे में इस तरह की बातें प्रचारित की गईं. पिछले डेढ़ दशक में इस सरकारी कंपनी के लिए 111 विमानों की खरीदारी विवादित रही है और इसकी जांच चल रही है. साथ ही बगैर किसी योजना के 2007 में इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया के विलय से जुड़े कई सवाल भी हैं. सरकार के इन दो निर्णयों से विलय के बाद की कंपनी का हाल बुरा रहा.

एयर इंडिया को बेचने से पहले सरकार को हर हाल में इसके कुल कर्ज के एक हिस्से से इसे मुक्त करना होगा. इसके कुछ कर्जों का निपटान इसकी संपत्तियों को बेचकर और कर्जों को पुनःसंगठित करके करना होगा. यह काम बगैर निजीकरण के भी किया जा सकता है कि क्योंकि कंपनी की परिचालन दक्षता सुधर रही है. साथ ही एयर इंडिया को अपने कर्जों को चुकाने का अवसर दिया जाना चाहिए. यह अवसर निजी कंपनियों को दिया जा रहा है जिनके पास बैंकों का सरकारी कंपनियों के मुकाबले अधिक कर्ज है.

कर्मचारियों से जुड़ी समस्याओं का समाधान एयर इंडिया ने एक हद तक कर लिया है. लेकिन सेवा गुणवत्ता के मामले में और सुधार की जरूरत है. इस सरकारी विमानन कंपनी को अपने कर्मचारियों में और निवेश करना चाहिए ताकि उच्च गुणवत्ता वाली सेवाएं यह दे सके.

दुनिया के कई दूसरे देशों की तरह भारत के विमानन बाजार में भी कुछ ही कंपनियों का दबदबा है. ऐसे में कुल भारतीय बाजार में दूसरे या तीसरे नंबर की सरकारी विमानन कंपनी को बंद करने से निजी कंपनियों का दबदबा और बढ़ेगा और प्रतिस्पर्धा में कमी आएगी. एयर इंडिया के पास भारतीय कंपनियों के कुल विमानों में से 31 फीसदी विमान हैं और दुनिया के प्रमुख हवाई अड्डों से परिचालन के लिए सबसे अच्छे समय स्लॉट हैं. कुछ निजी कंपनियों के दबदबे वाले विमानन क्षेत्र में इस तरह की सरकारी कंपनी न सिर्फ जरूरी है बल्कि अनिवार्य है.

महाराजा की अनावश्यक आलोचना के बजाए सरकार को इसे अपने कायाकल्प की योजना को लागू करने का अवसर देना चाहिए और जल्दबाजी में इसका निजीकरण नहीं करना चाहिए. ईंधन की कीमतों और दूसरी कारकों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पहले की तरह ही एक बार फिर से एयर इंडिया सरकार के लिए मुनाफा कमाने वाली कंपनी साबित होगी.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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