छत्तीसगढ़ में निजी विश्वविद्यालय
कनक तिवारी
वैश्वीकरण और निजीकरण के दैत्य युग में सार्वजनिक क्षेत्र को इस तरह जिबह किया जा रहा है मानो उसका खाद्य सुलभ कीमा तक नहीं बनाया गया. उसकी अस्मिता और अस्तित्व को ही नोचकर कूड़ेदान में फेंका जा रहा है. आज़ादी की दहलीज़ पर भविष्य का कारगर सपना देखते प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की समझ थी कि सार्वजनिक क्षेत्र का ढांचा खड़ा किया जाए जिसमें पूरी तौर पर लोकप्रिय जनभागिता को जगह मिले.
संविधान बनाते समय नेहरू और अम्बेडकर सहित सभी सदस्यों में यह चुभन थी कि भारत जैसे बड़े देश में आज़ादी की लड़ाई में दलित आदिवासी, किसान, मज़दूर, छात्र सभी को धर्म, वर्ण, प्रदेश और क्षेत्र की संकीर्ण सरहदों से बाहर निकालकर आज़ादी के युद्ध का सैनिक बना दिया गया. सब चाहते थे देश की दौलत और ज्ञान का इस्तेमाल सभी के लिए हो. उसमें किसी तरह का भेदभाव नहीं रहे. उनकी यह ख्वाहिश धरी की धरी रह गई.
व्यापारी अंगरेज़ ने भारत में अपनी आर्थिक सत्ता बनाए रखने कई भारतीय दलाल पैदा कर लिए थे. ये आर्थिक ढांचे के तहत तो थे लेकिन नौकरियां देने के कारण उनका ब्लैक मेलिंग समाज रसूख का असर आज़ादी के बाद नेताओं और जनता के सिर चढ़कर बोलने लगा.
बार बार लुभावने भाषण देते भी नेहरू और बाकी सदस्य भारत के संविधान के मकसद में ‘समाजवाद‘ शब्द नहीं लिख सके. उन पर पूंजीवाद की अर्थसत्ता का सीधा दबाव था. उसे वे मुखर होकर कह भी नहीं सकते थे. बड़ी मुश्किलों में मिली आज़ादी के साथ कोई जोखिम पैदा करना हमारे नेताओं का मकसद हो नहीं सकता था.
अम्बेडकर ने अलबत्ता पहले ही भाषण में दो टूक कहा कि मैं तो इस संविधान सभा में बड़े जोश से नेहरू का भाषण सुन रहा था. वे एक मशहूर समाजवादी के रूप में जाने जाते हैं. मुझे यह सुनकर अचरज और परेशानी है कि उनके पूरे भाषण में संविधान के मकसद के रूप में समाजवाद को लिखा तक नहीं जा सका.
मन मसोसकर रहते नेहरू ने इसकी सैद्धांतिक नहीं राजनीतिक मजबूरियों की गोलमोल सपाटबयानी की. इसी तरह धर्मनिरपेक्षता को भी संविधान के मकसद के रूप में लिख पाने को लेकर कई सियासी, मजहबी दबाव तैर रहे थे.
नेहरू के प्रधानमंत्री काल के बाद राजनीतिक मुश्किलों के चलते इंदिरा गांधी ने अलबत्ता समाजवाद और पंथनिरपेक्षता को भारत के संविधान की उद्देशिका में साफ साफ लिखा. दक्षिणपंथी तत्व आज तक उसका बावेला मचा रहे हैं जबकि वह पूरी तौर पर संविधान की मंशा के अनुरूप है. धीरे धीरे पूंजीवाद और निजी क्षेत्र ने यूरो-अमेरिकी कोख से पैदा होकर पूरी दुनिया को गिरफ्त में लेना शुरू किया.
आज हालत है कि पूरी दुनिया कम्युनिस्ट मुल्कों सहित पूंजीपतियों और कॉरपोरेटियों की हुक्मउदूली नहीं कर सकती. सरकारें गिरा दी जाती हैं. नेताओं का कत्ल कर दिया जाता है. देश की पूरी दौलत कॉरपोरेटी खरीद रहे हैं. सत्ता में बैठे तथाकथित जनप्रतिनिधि उनकी गुलामी कर रहे हैं. इसके बाद भी वे उसे सुशासन कहते हैं.
82 करोड़ गरीबों को हर महीने मुफ्त राशन देकर उसे भी मोदी की गारंटी कहते हैं. बेरोजगारी, बेकारी, भुखमरी, कुपोषण, अत्याचार और अदालतों की नाकामी सब बढ़ते जा रहे हैं.
इसी में एक इलाका शिक्षा और दूसरा इलाज कॉरपोरेटियों का भी उपजा. देश के ज़्यादातर बड़े अस्पताल निजी क्षेत्र में हैं. वहां विशेषज्ञ डॉक्टर हैं, दवाइयां हैं, अन्य उपकरण और प्रबंध हैं. लेकिन उनकी काले बाज़ार की दरों पर महंगी कीमत चुकानी पड़ती है. मध्यवर्ग और निम्न वर्ग के बच्चे मां बाप की गाढ़े पसीने की कमाई को फीस के नाम पर घूस देते निजी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं. फिर निजी क्षेत्र में ही नौकरी करते उसे देशसेवा कहते हैं.
सार्वजनिक क्षेत्र के कॉलेज और विश्वविद्यालय बिसूर रहे हैं. किंडरगार्टन कक्षाओं से ही औसत भारतीय मां बाप को अपने बच्चों को अंगरेज़ी फितरत का बाबू या मेमसाब बनाने की इच्छा होती है. वे अपना पेट काटकर ये सब शगल करते हैं. उसे शिक्षा कहा जाता है. अब तो शिक्षा के इलाके में निजी विश्वविद्यालय और कॉलेजों ने बाज़ या गिद्ध बनकर सार्वजनिक क्षेत्र की गौरेया को पंजों में जकड़ लिया है. उनकी तरक्की अंकगणित और बीजगणित के सभी सिद्धांतों को पार कर आसमान में कुलांचे भर रही है. अलबत्ता कुछ अपवाद ज़रूर हैं.
छत्तीसगढ़ में जोगी प्रशासन ने एक साथ करीब 136 विश्वविद्यालय संविधान के प्रावधानों की गलत व्याख्या करते स्थापित कर दिए. संविधान की अनुसूची 7 के अनुसार उच्च शिक्षा में गुणात्मक स्तर पर शिक्षा देना केन्द्र सरकार, संसद का काम है. मुख्यमंत्री जोगी की हठवदिता के कारण राज्य ने अवैध हस्तक्षेप किया.
मुझसे बिलासपुर के नौजवान लोकधर्मी जनसेवक सुदीप श्रीवास्तव ने इस संबंध में बात की थी. हाईकोर्ट की असमर्थ और लाचार हालत को देखते बल्कि उसकी सांठगांठ मुख्यमंत्री से होने से शिकायतें मिलने के कारण सलाह के अनुसार सुदीप इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट चले गए.
उन्हें प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे प्रोफेसर यशपाल का संरक्षण मिला. दोनों की याचिका में सुप्रीम कोर्ट की 3 सदस्यीय बेंच ने बहुत महत्वपूर्ण फैसला किया. फैसला लिखने वाले जज जी पी माथुर ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा बनाए गए निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय (स्थापना और विनियमन) अधिनियम 2002 की धज्जियां उड़ा दीं. अधिकांश विश्वविद्यालय जो केवल एक एक कमरे से संचालित हो रहे थे. इस तरह रफूचक्कर हो गए. जैसे गधे के सिर से सींग. अब इने गिने ही बचे हैं.
तीन चार विश्वविद्यालय और खुलने हैं. एक दो बंद होने की कगार पर हैं. बड़ी चिंता यह है कि निजीकरण की लूट के बावजूद छत्तीसगढ़ में राज्य के सरकारी विश्वविद्यालयों की खत्ता हालत है. सरकार भले अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकती रहे. राज्य का कोई भी विश्वविद्यालय राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक उच्च शिक्षा के प्रतिमानों के आधार पर नामचीन नहीं है.
छत्तीसगढ़ वह राज्य है, जहां विधायकों के नाम पर विश्वविद्यालय स्थापित हैं. कोई पूछे स्वेच्छा से सियासत में जाकर पद हासिल कर और फिर दुखद मौत भी हो जाना शिक्षा के उच्चतर उन्नयन से किस तरह संबंधित है.
पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय सबसे पुराना और व्यापक है. राज्य के बाहर रविशंकर विश्वविद्यालय बोलने से लोग उसे सितारवादक रविशंकर के नाम से समझते रहे. निजीकरण की भूख इतनी है कि उसे अजीर्ण हो जाता है. तब पाचक दवाइयां सरकारी घूस के रूप में उसका स्वास्थ्य सुधारती हैं. वह अगली लूट के लिए तैयार हो जाता है. तब तक उसने गरीब और मध्यवर्ग के बच्चों से अवैधानिक रूप से लाखों की फीस डकार ली होती है. बल्कि परीक्षा में पास कराने और प्रैक्टिकल में गुणांक देने के लिए अलग से रिश्वत ली जाती है.
सरकार तो उनके लिए ‘गरीब की लुगाई सबकी भौजाई’ की तरह होती है. पता नहीं पिछले 23 वर्ष में बने छत्तीसगढ़ के राजनेता अपने हाथों अपनी पीठ कब तक ठोंकते रहेंगे!