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राष्ट्रपति के हाट पर भई नेतन की भीड़

कनक तिवारी
संविधान के अनुच्छेद 52 से लेकर 62 तक राष्ट्रपति की नियुक्ति और पद के रिक्त होने तथा महाभियोग चलाने के प्रावधान हैं.देश की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी. वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार खुद या मातहत अधिकारियों द्वारा करेगा. राष्ट्रपति में ही सेनाओं की शक्ति निहित होगी. राष्ट्रपति पदग्रहण की तारीख से पांच वर्ष तक कायम रहेगा. उसे महाभियोग के जरिए हटाया जा सकेगा. अनुच्छेद 77 के अनुसार भारत सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से ही की हुई कही जाएगी.

राष्ट्रपति को अधिकार होगा वह भारत सरकार के कार्यों को सुविधापूर्वक किए जाने के लिए तथा मंत्रियों में कार्य आवंटन के लिए नियम बनाए. अनुच्छेद 78 में है प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य होगा वह संघ के कार्यकलाप के प्रशासन विधान विषयक संबंधी सभी विनिश्चय राष्ट्रपति को संसूचित करे. जो जानकारी राष्ट्रपति मांगे, वह दे, और राष्ट्रपति द्वारा अपेक्षा किए जाने पर विषय मंत्रिपरिषद के समक्ष रखे. अनुच्छेद 54 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन लोकसभा और राज्यसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य करेंगे. यथासंभव सभी राज्यों के मतों के मूल्य में एकरूपता लाने की कोशिश की जाएगी. चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति से एकलसंक्रमणीय मत द्वारा होगा. मतदान गुप्त रहेगा.

इतने महत्वपूर्ण संवैधानिक पद के लिए देश की राजनीति में जैसी हरकतें और हलचलें होती हैं. वे राष्ट्रपति पद की गरिमा के अनुकूल नहीं होतीं. पहला मुद्दा तो यही है कि राष्ट्रपति को चुनने के लिए विधायकों और सांसदों में संवैधानिक अधिकार तो हैं. लेकिन जिस तरह किसान की पैदावार उपभोक्ता तक पहुंचाने में आढ़तियों तथा दलालों की अनिवार्य उपस्थिति हो जाती है.

उसी तरह संविधान के प्रावधानों का पालन करने में संसदीय संस्थाओं और अधिकारियों की दोयम दर्जे की भूमिका होती है. पूरा मामला राजनीतिक पार्टियों के सरगनाओं की मुट्ठी में कैद होता है. कद्दावर नेता पार्टी के सांसदों और विधायकों के वोट अपनी मुट्ठी में बंद करते हैं. फिर लेन देन की मेज पर बैठकर पत्ते खोलते और छिपाते हैं. जिसके हाथ में तुरूप का पत्ता होता है. वह बाजी जीत लेता है.

पहले राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद का कार्यकाल पूरा होने पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दूसरा कार्यकाल देेने के बदले उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन को तरक्की देनी चाही. सरदार पटेल जैसे कद्दावर नेता उस समय तक जीवित नहीं थे. राजेन्द्र प्रसाद दूसरे कार्यकाल के लिए इच्छुक थे. कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू का साथ नहीं दिया. कांग्रेस के पास इतना बहुमत था कि अकेले ही उम्मीदवार को जिताया जा सकता था. उन्होंने कई बार पार्टी में लोकतंत्र का सम्मान किया. 1960 में कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के सामने भी नेहरू ने केरल के मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर हार मान ली थी. कांग्रेस में नेहरू के वक्त सामूहिकता की ऐसी फुलझड़ियां देखने से जम्हूरियत को अंधेरे का डर नहीं लगता था.

इसके बरक्स 1969 में कांग्रेस विभाजन कर अलग थलग प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने अस्तित्व का सवाल आया. उन्होंने साहसिक निर्णय लेते पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के मुकाबले उपराष्ट्रपति वीवी गिरि को अड़ाया. भारी राजनीतिक उथलपुथल के बाद बहुत कम मतों से वीवी गिरि जीत ही गए. इंदिरा गांधी के लोकतांत्रिक तेवर में तानाशाही के गुण आते गए. आपातकाल लगाना भी इसी कारण हुआ. एक पार्टी को असंतुलित बहुमत नहीं मिलने से राष्ट्रपतियों के निर्वाचन में आपसी समझदारी का भी उदाहरण मिलता है.

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में कई घातों प्रतिघातों के बाद सहमति बनी. प्रख्यात परमाणु वैज्ञानिक और बेहतर इंसान डॉ. अबुल कलाम देश के प्रशंसित राष्ट्रपति बने. कांग्रेस को मौका मिलते ही उसने जातीय और प्रादेशिक ताश के पत्ते खोलते लगभग नामालूम राजनीतिज्ञ प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनवा ही दिया. राष्ट्रपति पद की गरिमा को चार चांद नहीं लगे. राष्ट्रपति और रिश्तेदारों पर आर्थिक अनिमितताओं के आरोप भी लगे.

अजूबा है जब प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनना हो. तो बयान पार्टियां जारी करती हैं. विधायकों या सांसदों की राय के अनुसार उच्च कमान नेताओं को नामजद करेगा. बैठकें अमूमन पांच सितारा होटलों में आयोजित होती हैं. पहले से तयशुदा स्क्रिप्ट के अनुसार कोई खड़ा होकर पार्टी हाईकमान को अधिकार दे देता है. बाकी हाथ उठाते या सिर हिलाते हैं.

लगता है लोकतांत्रिक कौरव सभा की कार्यवाही चल रही थी. सांसद और विधायक खुलकर नहीं बोलते कि उन्हें कैसा राष्ट्रपति चाहिए. छोटी पार्टियों के सांसद और विधायक तक को भी सांप सूंघ जाता है. सांसद और विधायक बंधुआ मजदूरों की तरह अपनी पार्टी या नेता को अपने विवेक का अधिकार दे देते हैं. यह संविधान का सीधा उल्लंघन ही नहीं अपमान भी हुआ. वे गुप्त मतदान करते हैं. बंद लिफाफे में भी अपनी पार्टी को उम्मीदवार का नाम नहीं सुझाते. सांसद और विधायक संविधान में वर्णित प्रावधान के अनुसार शपथ लेते हैं.

विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेंगे. संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि लोकप्रतिनिधित्व कानून के तहत बनी और पंजीकृत पार्टियों के रहनुमा या प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री वगैरह उनके विवेक का थोकबंद इस्तेमाल करें. हो यही रहा है. गुप्त मतदान की क्या जरूरत है. सांसद और विधायक खुले आम अपने दल के रहनुमाओं को खाली चेक दे दें वे उम्मीदवारों के नाम भर लें.

मौजूदा समय में संभावना है कि भाजपा के नेतृत्व में चल रहे एनडीए का उम्मीदवार राष्ट्रपति बन सकेगा. फिर भी विपक्ष के पास काफी वोट हैं. इसलिए राष्ट्रीय सहमति बनाने सभी पार्टियां ​​​शिगूफा छेड़ रही हैं. भाजपा ने राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू और अरुण जेटली की उपसमिति को सभी से बात करने का अधिकार दे दिया है.

इतने बड़े मसले पर भी जेटली हेकड़ी रखते हैं. अपना नाम तो नामांकित करा लिया लेकिन दूत बनाया बाकी दोनों मंत्रियों को. दिलचस्प है मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस से मिलने गए भाजपाई मंत्रियों ने पत्ते नहीं खोले. उलटा कांग्रेस से पूछा कि उन्हें कौन पसंद है. जिस तरह नाम के लिए कयास लग रहे हैं. संघ प्रमुख मोहन भागवत राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के साथ भोजन कर रहे हैं. उससे राष्ट्रपति को तो चुना जाएगा लेकिन राजनीति के प्रणेताओं ने संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करने का कई वर्षों से अपना आचरण सिद्ध किया है.

*लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता, गांधीवादी चिंतक और संविधान विशेषज्ञ हैं.

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