निजी क्षेत्र की लूट
हाल ही में दो हाईप्रोफाइल निजी अस्पताल के मामले आए. डेंगु के इलाज के लिए 22 दिन में एक अस्पताल ने 16 लाख रुपये वसूले तो दूसरे ने 15 दिन की इलाज के लिए 15.6 लाख रुपये का बिल दिया. ये मामले बताते हैं कि हमारे यहां स्वास्थ्य क्षेत्र किस हाल में है. सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई हैं और निजी अस्पताल तेजी से बढ़ रहे हैं. ऐसे में अधिकांश भारतीय इलाज कराने में संकट झेल रहे हैं.
हाल ही में नैशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017 जारी हुआ है. इससे यह पता चलता है कि वास्तविकता में स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार की ओर से खर्च की जाने वाली रकम नहीं बढ़ रही है. निजी क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है और अपनी जेब से पैसा लगाकर इलाज करवाने की वजह से खास तौर पर ग्रामीण भारत में गरीबों की स्थिति और खराब होती जा रही है. इनका खर्च किसी सरकारी योजना या स्वास्थ्य बीमा के तहत नहीं आता. जिन दोनों मामलों का जिक्र पहले किया गया है, दोनों मामले में मरीज की जान चली गई.
सरकारी अस्पतालों की ऐसी हालत है कि गरीब से गरीब आदमी निजी अस्पतालों में जाने को मजबूर है. एनएचपी 2017 के मुताबिक निजी अस्पतालों में इलाज का खर्च दो गुना से नौ गुना अधिक होने के बावजूद 61 फीसदी ग्रामीण मरीज और 69 फीसदी शहरी मरीज निजी अस्पतालों में जा रहे हैं. अस्पताल में इलाज करने के लिए 20 फीसदी शहरी मरीजों को और 25 फीसदी ग्रामीण मरीजों को या तो उधार लेना पड़ रहा है या अपनी कोई जायदाद बेचनी पड़ रही है. देश के कुल स्वास्थ्य खर्च में 63 फीसदी हिस्सेदारी अपनी जेब से होने वाले खर्च की है.
इसके बावजूद सरकार निजी क्षेत्र को फायदा पहुंचाने के मकसद से अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही है. निजी क्षेत्र बगैर किसी जवाबदेही और ठोस निगरानी तंत्र के काम कर रहा है. इसके बुरे नतीजे दिखने लगे हैं. एक दूसरे मामले में दिल्ली सरकार ने एक बड़े अस्पताल समूह के एक अस्पताल का लाइसेंस रद्द कर दिया. इस अस्पताल में एक समय से पहले जन्मे एक नवजात बच्चे को मृत घोषित कर दिया गया था. जब पता चला कि बच्चा मरा नहीं है तो आनन-फानन में उसका इलाज शुरू हुआ लेकिन हफ्ते भर के संघर्ष के बाद वह बच्चा नहीं बचा. लेकिन लाइसेंस रद्द करना का निर्णया बगैर सोचे-समझे ले लिया गया था. क्योंकि इससे अस्पताल में भर्ती कई मरीजों को परेशानियों का सामना करना पड़ा.
अगर केंद्र और राज्य सरकार ने क्लिनिकल इस्टैबलिशमेंट एक्ट, 2010 को ठीक से लागू कराया होता तो यह नौबत ही नहीं आती. इस कानून में गलत कामों के लिए सजा का प्रावधान है. इसे अब तक 10 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों ने अपनाया है. इन राज्यों में भी यह सिर्फ कागजों पर ही है. जब केंद्र ने हृदय में लगने वाले स्टेंट की कीमतों का नियमन किया तो अस्पतालों ने दूसरे तरीके से इसके पैसे वसूलने शुरू कर दिए.
कर्नाटक का उदाहरण यह बताता है कि निजी क्षेत्र के अस्पताल कितने ताकतवर हैं. पहले जिस कानून का जिक्र आया है उसे कुछ बदलावों के साथ स्वीकार करने वाला जो कानून कर्नाटक ने अपनाया है उसमें 2017 में कुछ संशोधन प्रस्तावित किया गया. लेकिन डॉक्टरों और निजी अस्पतालों के दबाव में इन संशोधनों को नरम कर दिया गया. नवंबर में राज्य विधानसभा से पारित विधायक में लापरवाही और अनियमितता के खिलाफ कार्रवाई के प्रावधान हैं.
स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के मुताबिक डॉक्टरों ने हड़ताल करके सरकार पर दबाव बनाया. हड़ताल की वजह से लोगों को काफी दिक्कतें हुईं क्योंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं और बुरी हालत में हैं. ऐसे में लोगों का गुस्सा भी बढ़ रहा था. इस परिस्थिति में सरकार को झुकना पड़ा. एनएचपी के मुताबिक कर्नाटक स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपनी एसजीडीपी का सिर्फ 0.7 फीसदी खर्च करता है. जबकि राष्ट्रीय औसत 1.1 फीसदी है.
एनएचपी 2017 में यह भी बताया गया है कि भारत की 1.3 अरब की आबादी के लिए 10 लाख से थोड़े ही ज्यादा डॉक्टर हैं. इसमें से भी सिर्फ दस फीसदी ही सरकारी अस्पतालों में काम करते हैं. नर्स और दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या भी काफी कम है. रिपोर्ट में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर क्षेत्रीय असंतुलन भी दिखता है. भारत में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान छात्रों को एक गरीब देश की जरूरतों के बारे में संवेदनशील नहीं बनाया जाता. स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में शहरों और गांवों के बीच काफी अंतर है. गैर संक्रामक बीमारियां भी लगातार बढ़ रही हैं.
एनएचपी 2017 में स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च 2020 तक कुल जीडीपी का 1 फीसदी से बढ़ाकर 2.5 फीसदी करने का प्रस्ताव है. यह 5.99 फीसदी के विश्व औसत से काफी कम है. एनएचपी 2017 का लक्ष्य यह है कि नीतियों के निर्माण के लिए सही आंकड़े मुहैया कराए जाएं. पर्याप्त तथ्य सामने हैं जो बता रहे हैं कि सरकार को तुरंत कदम उठाने चाहिए. गरीब लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने और उन्हें निजी क्षेत्र के शोषण से बचाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय