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मार्क्सवाद और जाति का प्रश्न

प्रभात पटनायक
एक बौद्धिक स्फुरण सामने आया है, जो उच्च शिक्षा तथा सर्जनात्मकता की संस्थाओं पर हिंदुत्ववादी ताकतों के हमलों की पृष्ठभूमि में, देश भर में अनेक परिसरों में एक नये वामपंथी विमर्श के निकलकर आने की ओर ले गया है, जो जाति के प्रश्न को समाहित कर के चलता है. इससे एक बार फिर, मार्क्सवादी दृष्टि और जातिवादी उत्पीडऩ के मुद्दे के बीच के रिश्ते का सवाल उठकर सामने आ गया है. हो सकता है कि इन दोनों के बीच के इस रिश्ते पर बहस का, मौजूदा संघर्षों पर व्यावहारिक रूप से शायद कोई प्रभाव न पड़े. फिर भी इसके सैद्धांतिक एजेंडा पर आ जाने के तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है.

अंतर्विरोधों के बीच के रिश्ते का सवाल
बेशक, इस रिश्ते पर लंबे अर्से से एक बहस चलती भी आयी है. यह बहस बहुत से लोगों द्वारा और खासतौर पर दलित बौद्धिकों द्वारा मार्क्सवाद के खिलाफ लगाए जाने वाले इसके आरोपों से निकली है कि वह तो ‘‘वर्ग’’ को ‘‘जाति’’ के ऊपर रखता है, वह समाज को सबसे बढक़र जाति-विभाजनों की दृष्टि से न देखकर वर्गीय विभाजनों की दृष्टि से ही देखता है और इसके चलते वह जाति विभाजन के महत्व को कम करके देखने की ओर प्रवृत्त होता है. इस बहस में हम अक्सर तीन अलग-अलग प्रकार के बौद्धिक रुख अपनाए जाते देखते हैं, जिसमें जाहिर है कि कोई सब के सब रुख नहीं आते हैं. इनमें से एक रुख तो यह कहता है और जाहिर है कि उसके ऐसा कहने का काफी औचित्य भी है कि भारत में वर्गीय तथा जातिगत उत्पीडऩ, कमोबेश एक-दूसरे को ढांपते हैं. उत्पीडि़त जातियां, उत्पीडि़त वर्गो का एक अंग ही नहीं हैं बल्कि बहुत हद उत्पीडि़त वर्ग उन्हीं से बनता है. इसीलिए, इस तर्क धारा को अपनाने वाले अनेक लेखक हमारे देश में शोषण की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए, ‘‘वर्ग-जाति’’ को जोड़े के तौर पर पेश करते हैं.

दूसरा रुख, उक्त दोनों अवधारणाओं के बीच के अंतर के महत्व को तो रेखांकित करता है, लेकिन दोनों में से किसी एक को समाज के रूपांतरण के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप के वास्ते, ध्यान के मुख्य केंद्र के रूप में दोनों में से एक को, दूसरी अवधारणा के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है. इस तरह का रुख अपनाने वाले कुछ लोग अगर वर्गीय आधार पर संगठित संघर्षों को प्राथमिकता देते हैं, तो दूसरे लोग जाति-आधारित उत्पीडऩ के गिर्द संगठित किए जाने वाले संघर्षों को ही प्राथमिकता देते हैं.

तीसरा रुख उस धारा में आता है, जो फ्रांसीसी कम्युनिस्ट दार्शनिक, लुई अल्थूज़र के सैद्धांतिक लेखन से प्रेरित है, जिन्होंने मार्क्सवाद की एक ‘‘संरचनात्मक’’ व्याख्या प्रस्तुत की थी. लेकिन, यह धारा वास्तव में अल्थूज़र की इसके लिए आलोचना भी करती है कि वह अपने दर्शन जहां तक ले गए थे, वहां से उसे आगे नहीं ले गए. यह तीसरा रुख यह कहता है कि किसी भी समाम में किसी भी एक समय में, अनेकानेक अंतर्विरोध एक साथ मौजूद होते हैं और इनमें से किसी एक को दूसरे के ऊपर रखने का कोई सवाल ही नहीं उठता है. इनमें से कोई भी अंतर्विरोध, किसी खास मुकाम पर उभरकर सामने आ सकता है और प्रगतिशील ताकतों को उस समय अपनी शक्तियां उसी पर केंद्रित करनी चाहिए. इस विचार के अनुसार, इस तरह से किसी मुकाम पर ऐसा परिस्थिति संयोग बन सकता है, जब समूची संरचना का ही रूपांतरण संभव होगा.

हमारे देश के संदर्भ में इस अंतिम तर्क का अर्थ यह होगा कि जाति, वर्ग तथा लिंग, अगल-अलग मुकामों पर संघर्ष के मुख्य ठिकाने बनकर सामने आ सकते हैं और प्रगतिशील ताकतों को, इनमें से जो भी संघर्ष का ठिकाना उभरकर सामने आता है, उसी पर संघर्ष में जूझना होगा. जाहिर है कि ‘‘वर्गीय अंतर्विरोध’’ को, दूसरे अंतर्विरोधों के ऊपर रखने का तो सवाल ही नहीं उठता है.

समाज की अचल तस्वीर बनाम मार्क्सवादी दृष्टि
बहरहाल, उक्त तीनों बौद्धिक रुखों में एक बुनियादी तत्व समान है. इनमें, इस पर विचार करते हुए कि किस अंतर्विरोध को ऊपर रखा जाना चाहिए, समाज की एक अचल तस्वीर को ही सामने रखा जा रहा होता है. दूसरे शब्दों में इनमें अंतर्विरोधों के सवाल को समाज की एक अचल तस्वीर के संदर्भ में रखकर देखा जाता है. यहां तक कि इन तीनों बौद्धिक रुखों में से अंतिम भी, जोकि किसी मोटे तौर पर गैर-रूपांतरित समाज के संदर्भ में, अलग-अलग मुकामों पर अलग-अलग अंतर्विरोधों के प्रधानता हासिल करने की कल्पना करता है, समाज की एक अचल तस्वीर ही लेकर चल रहा होता है. बेशक, पहली नजर में किसी को ऐसा लग सकता है कि यह बात इस अंतिम मामले में लागू नहीं होती है, क्योंकि इसमें अलग-अलग मुकाम पर अलग-अलग अंतर्विरोधों के प्रधानता हासिल करने की बात है और इसमें समाज के बदलने की कल्पना है, न कि उसकी किसी अचल तस्वीर की. लेकिन, सचाई यह है कि इसमें, प्रधानताओं के बदलने की जो कल्पना प्रस्तुत की गयी है, वह भी अचल तस्वीरों के बीच ही उनके बदलने की कल्पना है. इसके हिसाब से, समाज की एक खास अचल तस्वीर में, एक खास अंतर्विरोध की प्रधानता होगी, हालांकि समाज की ऐसी ही दूसरी अचल तस्वीर में, किसी और अंतर्विरोध की ऐसी ही प्रधानता हो सकती है.

संक्षेप में यह कि भारत में ‘‘वर्ग’’ और ‘‘जाति’’ पर बहस अक्सर समाज की एक अचल तस्वीर में रखकर चलायी जाती रही है. इसमें मार्क्सवादी रुख को भ्रमित तरीके से, इस जड़ तस्वीर के दायरे में, ‘‘वर्ग’’ को ‘‘जाति’’ से ऊपर रखने के रूप में पेश किया जाता है. यह समझ इसलिए भ्रांतिपूर्ण है क्योंकि मार्क्सवाद की चिंता यह है ही नहीं कि एक जड़ तस्वीर के दायरे में, इन दोनों श्रेणियों में से एक को दूसरी से ऊपर रखा जाए. मार्क्सवाद की तो मूल चिंता यह होती है कि कैसे एक संरचना से, दूसरी तक पहुंचा जाए. इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वर्ग, जाति, लिंग आदि, आदि के संबंधों का एक समुच्चय है, जो मार्क्सवादी दार्शनिक जार्ज लूकाच द्वारा प्रयोग की गयी संज्ञा का सहारा लें तो एक समष्टि या समग्रता का निर्माण करता है. यह समग्रता या इस चर्चा के ठोस संदर्भ में बात करें तो जाति-वर्ग का समुच्चय, समय के साथ बदलता रहता है. मार्क्सवाद जिस प्रश्न को उठाता है, वह यह है कि यह बदलाव क्यों और कैसे होता है?

दूसरे शब्दों में मार्क्सवाद के लिए मुद्दा यह नहीं है कि इस समुच्चय का कौन सा तत्व अपने आप में या अंतर्निहित रूप से ज्यादा महत्वपूर्ण है. वास्तव में अपने आप में ऐसे सवाल को तो मार्क्सवाद एक बेमतल सवाल ही मानेगा. मार्क्सवाद के लिए मुद्दा यह है कि इस समुच्चय को क्या चीज आगे ले जाएगी. और इस सवाल का जो जवाब मार्क्सवाद देता है, उसका संबंध इतिहास की भौतिकतावादी व्याख्या से है, जोकि इतनी जानी-मानी चीज है कि उसे यहां दोहराना जरूरी नहीं है. यह वही चीज है जिसे जी वी प्लेखानोव ने अपने महाग्रंथ, ‘मोनिस्ट व्यू ऑफ हिस्ट्री’ में ‘मार्क्सवाद की उसे अलग करन वाली खासियत’ के रूप में रेखांकित किया है. बहरहाल, हम समझते हैं कि यहां उक्त वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में आज के दौर पर, जिसकी पहचान पूंजीवाद से होती है, चर्चा करना ही उपयोगी होगा.

पूंजीवाद के संदर्भ में
पूंजीवाद पर चर्चा के क्रम में, जोकि उनके विश्लेशणात्मक कार्य का मुख्य केंद्र रहा था, मार्क्स ने इस व्यवस्था की स्वत:स्फूर्तता पर, इस तथ्य पर जोर दिया था कि यह एक स्वचालित व्यवस्था है, जो कुछ खास अंतर्निहित प्रवृत्तियों से संचालित होती है. ये प्रवृत्तियां मानवीय इच्छा व चेतना से स्वतंत्र हैं. मिसाल के तौर पर कोई नहीं चाहता था कि 1930 के दशक की महामंदी आती या मौजूदा विश्व पूंजीवादी संकट आता, जो उससे उबरने के सारे सचेत प्रयासों के बावजूद, आज भी बना हुआ है. इतना ही नहीं, इन अंतर्निहित प्रवृत्तियों में जहां मानवीय आचरण की भूमिका भी होती है, अपने आप में इन मानव (आर्थिक) एजेंटों के स्वेच्छा का मामला नहीं होता है. वास्तव में उन्हें खास तरीके से चलने के लिए मजबूर किया जा रहा होता है क्योंकि वैसा न करने की कीमत उन्हें आर्थिक व्यवस्था में अपनी हैसियत देकर ही चुकानी पड़ सकती है. मिसाल के लिए पूंजीपति अगर, पूंजी का संचय करते हैं तो आवश्यक रूप से ऐसा करना पसंद होने की वजह से नहीं करते हैं बल्कि इसलिए कर रहे होते हैं कि ऐसा न करना उन्हें पूंजीवादी व्यवस्था में अपनी हैसियत से ही वंचित कर सकता है और प्रतियोगिता उन्हें बुहार कर परे कर सकती है. दूसरे शब्दों में पूंजीपति भी पूंजीवादी व्यवस्था के तहत अलगाव के मारे एजेंटों की ही भूमिका में होते हैं.

इसका अर्थ यह हुआ कि पूंजीवाद के विकास के साथ, जाति-वर्ग समुच्चय की प्रकृति में बदलाव तो होते रह सकते हैं, लेकिन मनुष्य की मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक इस व्यवस्था की स्वत:स्फूर्तता को और इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था को ही नहीं लांघा जाता है. पूंजीवादी व्यवस्था का इस तरह लांघा जाना, जिस तरह वर्गीय शोषण के अंत की शर्त है, उसी तरह से जातिवादी उत्पीड़ऩ के अंत की भी शर्त है. इस शर्त को पूरा किए बिना, अगर उत्पीडि़त जातियों के कुछ लोग अपनी मजदूर वर्गीय हैसियत से, सीढ़ी चढक़र बाहर निकल भी जाते हैं तथा पूंजीपति वर्ग या उपरले प्रोफेशनल संस्तर में शामिल भी हो जाते हैं (वास्तव में विश्व बैंक तथा अन्य ऐसी ही एजेंसियों द्वारा दक्षिण अफ्रीका में कालों के लिए मुक्ति का ऐसा ही रास्ता दिखाया जा रहा है), तब भी चूंकि संबंधित उत्पीडि़त जातियों का अधिकांश हिस्सा वर्गीय शोषण की दलदल में धंसे रहने के साथ ही, जातिवादी शोषण की दलदल में भी धंसा रहेगा, उसकी मुक्ति संभव नहीं है.

पूंजीवाद को लांघने की जरूरत
मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में, जातिवादी उत्पीडऩ के वर्तमान यथार्थ को, ऐसे किसी वैकल्पिक यथार्थ ये शायद ही प्रतिस्थापित किया जा सकता होगा, जिसमें जाति पर आधारित उत्पीड़ऩ तो सिरे से मिट जाए, पर वर्गीय शोषण अपने किसी शुद्ध रूप में बना रहे. इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग जातिवादी उत्पीड़ऩ के अंत के लिए संघर्ष कर रहे हैं, पूंजीवादी व्यवस्था को लांघे बिना अपने संघर्ष में कामयाब नहीं हो सकते हैं. संक्षेप में यह कि जाति के अंत के लिए, पूंजीवादी व्यवस्था का अतिक्रमण जरूरी है. बेशक, पूंजीवादी व्यवस्था का इस तरह का अतिक्रमण, जातिवादी उत्पीडऩ के अंत की पर्याप्त शर्त नहीं है. लेकिन, यह जातिवादी उत्पीड़ऩ के अंत की आवश्यक शर्त जरूर है. यही मार्क्सवाद का बुनियादी निष्कर्ष है.

‘‘वर्ग’’ तथा ‘‘जाति’’ की श्रेणियों के बीच पहले या ऊपर होने के प्रश्न पर, ठीक इसी परिप्रेक्ष्य में बहस की जानी चाहिए न कि समाज को किसी स्थिर चित्र की तरह देखने के परिप्रेक्ष्य में, जिस परिप्रेक्ष्य में इस बसह का वैसे भी कोई खास मतलब नहीं है. अब मुद्दा यह है कि पूंजीवाद का अतिक्रमण करना, कोई जाति-आधारित मांग तो हो नहीं सकती है. एक ऐसी व्यवस्था के रूप में जिसका अतिक्रमण किया जाना है, पूंजीवादी व्यवस्था को पहचाना जाना, उसके संक्रमण की सूरत में जिस वैकल्पिक व्यवस्था को स्थापित किया जाना है उसकी संकल्पना, ये सब ऐसे मुद्दे हैं जो जाति की श्रेणी पर आधारित किसी भी विश्लेषण से आगे तक जाते हैं. बेशक, अगर कोई ईमानदारी तथा सतत रूप से जाति के अंत के लक्ष्य के रास्ते पर बढ़ता है, तो वह भी इन्हीं मुद्दों पर पहुंचेगा. लेकिन, ऐसा करते हुए जाति-आधारित परिप्रेक्ष्य का ही अतिक्रमण कर रहा होगा. दूसरे शब्दों में कहें तो अगर हम सिर्फ जाति-आधारित परिप्रेक्ष्य के ही दायरे में रहते हैं, तो हम कभी भी जाति-आधारित उत्पीडऩ का भी अंत नहीं कर पाएंगे.

मार्क्सवाद पर वर्गीय परिप्रेक्ष्य को, दूसरे परिप्रेक्ष्यों से ऊपर रखने का जो आरोप लगाया जाता है, उसका संबंध मार्क्सवाद की इस समझ पर जोर दिए जाने से है कि पूंजीवाद को लांघना, सिर्फ वर्गीय शोषण का अंत करने के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि जातिवादी उत्पीड़न तथा उत्पीड़न के अन्य रूपों को लांघने के लिए भी जरूरी है. बेशक, पूंजीवाद का अतिक्रमण करने भर से, जातिवादी उत्पीड़न दूर नहीं हो जाएगा. लेकिन, यह तो सचाई तो इसी की जरूरत को रेखांकित करती है कि जातिवादी उत्पीड़न को, सिर्फ वर्गीय शोषण में नहीं घटाया जा सकता है और उसके अनोखे चरित्र की सचाई को पहचानना जरूरी है. जाति-आधारित उत्पीड़न हमारे समाज में इतनी गहराई तक पैठा हुआ है, उसकी जड़ें इतनी गहरी जमी हुई हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में यानी पूंजीवाद के ही उखाड़ फैंके जाने के बिना उसका अंत होना या कम होना तो बहुत दूर की बात है, पूंजीवादी व्यवस्था के उखाड़ फैंके जाने के बाद भी, लंबे संघर्ष के बिना उसका अंत नहीं होगा. संक्षेप में यह कि जातिवादी उत्पीड़न हमारे समाज का एक ऐसा गहराई में पैठा अंतर्विरोध है, जिस पर आसानी से पार नहीं पायी जा सकती है.

लेकिन, इसके चीमड़पन को या इसके महत्व को पहचानना एक बात है और इसे अंतर्विरोधों में प्रधानता देना या ऊपर रखना दूसरी ही बात है. मार्क्सवाद का वर्गीय संघर्ष तथा वर्गीय अंतर्विरोध को प्रधानता देना, एक भिन्न तरीके से यही कहना है कि जातिवादी उत्पीडऩ समेत, उत्पीडऩ के सभी रूपों से उबरने की कुंजी, पूंजीवादी व्यवस्था से ही उबरने में छुपी है.

बहरहाल, पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष को प्रधानता देने का अर्थ, जातिवादी उत्पीड़न की अनदेखी करना या उसे किसी गौण मुद्दे की तरह लेना हर्गिज नहीं है. उल्टे, चूंकि जातिवादी उत्पीड़न की अनदेखी, पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष को ही कमजोर करती है, इस तरह की अनदेखी वर्गीय संघर्ष पर जोर देने का अपरिहार्य परिणाम होना तो दूर, वास्तव में वर्गीय संघर्ष को ही कमजोर करने का काम करती है. मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य मे वर्ग की श्रेणी की प्रधानता का इतना ही अर्थ है कि उत्पीड़न के खिलाफ सभी संघर्षों को, जिसमें जातिवादी उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्ष भी शामिल है, पूंजीवाद का अतिक्रमण करने की वृहत्तर अनिवार्यता को भूलना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें इस अनिवार्यता के दायरे में अपनी जगह लेनी चाहिए.

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