मंदी बढ़ाने वाला बजट
प्रभात पटनायक
सालाना बजट का उस साल में तो अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता ही है. जिस साल के लिए यह बजट बनाया जाता है, इसके अलावा इससे आने वाले वर्षों के लिए सरकार की नीति की दिशा का भी इशारा मिलता है. किसी भी बजट को इन दोनों ही पहलुओं से देखा जाना चाहिए. और इन दोनों ही पहलुओं से मोदी सरकार का 2017-18 का बजट, जनता के लिए असगुनी है. यह बजट उस मंदी के संकट को और बढ़ाने ही जा रहा है, जिसे सबसे बढ़कर इस सरकार की नोटबंदी ने भड़काया है. इसके साथ ही यह ऐसी आर्थिक रणनीति की ओर इशारा भी करता है, जो डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लाए जा रहे संरक्षणवाद के सामने, हमारे देश में और ज्यादा बेरोजगारी का ही आयात कर रहा होगा.
नोटबंदी से भड़की मंदी की मार
अब इतना तो पूरी तरह से साफ हो ही चुका है कि नोटबंदी, काले धन पर कोई भी चोट करने में पूरी तरह से विफल रही है. इसके ऊपर से उसने सकल मांग को बुरी तरह से सिकोड़ दिया है और ‘‘श्वेत’’ अर्थव्यवस्था में मंदी के रुझान को भड़काया है. इसकी वजह बिल्कुल आसान है. इसके जरिए, नकदी के रूप में जनता की जेबों में जो क्रय शक्ति थी, जो मालों तथा सेवाओं को खरीदने में इस नकदी के प्रयोग के रूप में सामने आती थी, अब बैंकों की तिजोरियों में पहुंच गयी है और निष्क्रिय पड़ी हुई है. इस मंदी का मुख्य असर तथाकथित ‘‘अनौपचारिक क्षेत्र’’ पर पड़ा है, जहां मौजूदा श्रम शक्ति का 80 फीसद से ज्यादा हिस्सा काम हासिल करता है और देश के सकल घरेलू उत्पाद का करीब पैदा करता है.
लेकिन, ‘‘अनौपचारिक’’ या लघु उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादन में इस गिरावट का बहुगुणनकारी प्रभाव, उस ‘‘औपचारिक’’ क्षेत्र पर भी दिखाई देता है, जहां बड़ी पूंजी का बोलबाला है. इस तरह मंदी, समूची अर्थव्यवस्था में ही फैल जाती है. यह भी याद रखा जाना चाहिए कि यह मोदी उत्प्रेरित मंदी ऐसे हालात में हो रही है, जहां अन्य दो कारक भी सक्रिय हैं जो मांग के संकुचन में योग रहे हैं. इनमें एक तो विश्व पूंजीवादी संकट का देरी से हो रहा असर है, जो अब भारत तथा चीन तक फैल चुका है. दूसरा कारक है अमरीका के ट्रंप प्रशासन द्वारा लाया गया संरक्षणवाद, जिस पर हम जरा बाद में चर्चा करेंगे.
जब अर्थव्यवस्था इस तरह मंदी में धंस रही है, बजट के लिए स्वाभाविक रास्ता तो यही बनता था कि बढ़े हुए सरकारी खर्चे के जरिए, मांग का विस्तार करे और इसके लिए पैसा धनवानों पर कर लगाकर और यहां तक कि राजकोषीय घाटे को बढ़ाने के जरिए भी उठाया जाए. इसके बजाय इस बजट ने मांग को और संकुचित करने का ही काम किया है. कुल सरकारी खर्च, जो 2015-16 तथा 2016-17 (संशोधित अनुमान) के बीच करीब 12 फीसद बढ़ा था, 2016-17 (संशोधित अनुमान) तथा 2017-18 (बजट अनुमान) के बीच सिर्फ करीब 6 फीसद बढऩे जा रहा है. सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में सरकारी खर्चा 2016-17 के 13.7 फीसद से घटकर, 2017-18 में 12.7 फीसद ही रह जाने वाला है.
राजकोषीय सहीपन के चक्कर में गंवाया मौका
बेशक, यह तो सही है कि चूंकि यह बजट, फरवरी के अंत में पेश न होकर, फरवरी के आरंभ में शुरू किया गया है, यह बजट तैयार करते समय तीसरी तिमाही के आंकड़े उपलब्ध ही नहीं थे और इसलिए बजट में दिए गए एकदम सही-सही आंकड़ों का शायद ही कोई अर्थ होगा. फिर भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है यह बजट अर्थव्यवस्था में पहले ही उन्मुक्त हो रहे मंदी के रुझान के प्रति पूरी तरह से उदासीन है और उसकी काट करने की कोशिश करना तो दूर, वास्तव में ‘‘राजकोषीय सहीपन’’ से ही ज्यादा ग्रस्त है, जो अपने आप में ही मंदी को बढ़ाने का काम करता है क्योंकि इसमें यह निहित होता है कि सकल घरेलू उत्पाद में कमी जब कर राजस्व को घटाती है, तो उसके साथ ही सरकार का खर्च भी घट जाना चाहिए.
मौजूदा मुकाम पर राजकोषीय घाटे के बढ़ने का, अर्थव्यवस्था पर निर्विवाद रूप से लाभकारी असर पड़ेगा, जिसके साथ वे सामान्य गड्ढो भी नहीं जुड़े होंगे जो सामान्यत: इसके साथ जुड़े हो सकते हैं. जैसाकि हमने पीछे बताया, क्रय शक्ति जनता के हाथों से छीन ली गयी है और बैंकों में निष्क्रिय पड़ी हुई है. जाहिर है कि पहली बात तो यही है कि इस क्रय शक्ति का इस तरह जब्त ही नहीं किया जाना चाहिए था. लेकिन, चूंकि इसे जब्त कर ही लिया गया है, अगर कुछ नहीं तो सरकार कम से कम इस क्रय शक्ति का अपने खर्चों में तो इस्तेमाल कर ही सकती थी और एक पंथ दो काज कर सकती थी.
पहला, इस क्रय शक्ति के अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिए जाने से मांग में जो संकुचन आया था, उसकी इस तरीके से भरपाई की जा सकती थी. वास्तव में इस तरह मांग में मे कमी की भरपाई से बढक़र, बढ़ोतरी भी हो सकती थी, बशर्ते सरकार द्वारा ये खर्चे उन क्षेत्रों में किए जा रहे होते जो कि ज्यादा श्रम सघन हैं, न कि उन क्षेत्रों में जहां यह जब्त हुई श्रम शक्ति ऐसा न होने की सूरत में खर्च हुई होती. दूसरे, इससे सरकारी खजाने में ऐसे संसाधन बच गए होते, जो अन्यथा बैंकों को हस्तांतरित करने पड़ते. इस दूसरे नुक्ते को कुछ स्पष्ट करने की जरूरत होगी.
जनता की बचतें और सरकारी खर्च बढ़ाने का मौका
जनता से जो जमा राशियां जबर्दस्ती हासिल की गयी हैं और बैंकों के पास निष्क्रिय पड़ी हुई हैं, उन पर भी बैंकों को ब्याज देना पड़ेगा. दूसरी ओर, बैंक जिन ऋण-ग्राहकों को ‘‘कर्जा देने लायक’’ मानते हैं, उनके बीच से ऋण की शायद ही कोई अतिरिक्त मांग आ रही होगी. पहली बात तो यह है कि इस तरह के ऋण-ग्राहकों के लिए ऋण की कोई तंगी नहीं है और इसलिए, उनके लिए अतिरिक्त ऋण लेने का कोई प्रोत्साहन ही नहीं है.
इसके ऊपर से, मंदी के खतरे के सामने, ऋण लेने के लिए उनके लिए प्रोत्साहन और कमजोर ही हुआ है. इस तरह, बैंकों के लिए घाटे में पडऩे का खतरा पैदा हो गया है क्योंकि मोदी सरकार ने उन पर अतिरिक्त जमाओं का बहुत भारी बोझ डाल दिया है. बैंकों को इन जमाओं पर ब्याज तो देना पड़ेगा, लेकिन खुद उनकी इन जमाओं से कोई कमाई नहीं हो रही होगी. इन हालात में सरकार बैंकों को अपने बजटीय संसाधनों में से, इन जमाओं पर बैंकों को कुछ ब्याज आय हासिल कराने की योजना बना रही है. वह ऐसा दो तरीके से कर सकती है.
पहला तरीका यह है कि रिजर्व बैंक, इन बैंकों को ऐसी सरकारी प्रतिभूतियां बेच दो, जो पहले ही उसके हाथों में हैं. ऐसा होने पर रिजर्व बैंक के हाथों से निकलकर, इन प्रतिभूतियों पर ब्याज की आय इन बैंकों के हाथों में पहुंच जाएगी. लेकिन, चूंकि रिजर्व बैंक के मुनाफे सरकारी बजट में ही आते हैं क्योंकि यह पूरी तरह से सरकार की मिल्कियत है, इसका अर्थ होगा सरकार के बजट से बैंकों के हाथों में हस्तांतरण. लेकिन, इसलिए कि रिजर्व बैंक के पास कहीं प्रतिभूतियों की कमी न पड़ जाए, सरकार एक और उपाय का भी सहारा ले रही है. यह उपाय है बैंकों के लिए प्रतिभूतियां जारी करना, जिन पर सरकार ब्याज तो दे रही होगी, लेकिन जिनकी प्राप्तियों को वह खर्च नहीं कर रही होगीं. इसलिए, यह भी सरकार के बजट से बैंकों के पक्ष में हस्तांतरण को ही दिखाता है.
लेकिन, बैंकों के पक्ष में सरकारी बजट में से शुद्ध हस्तांतरण के इन दोनों ही उपायों से भिन्न, अगर सरकार नयी प्रतिभूतियां बैंकों के नाम जारी करती और उनकी प्राप्तियों को वास्तव में खर्च किया जा रहा होता यानी अगर उतने ही परिमाण में राजकोषीय घाटा उठाया जा रहा होता, तो ब्याज के बोझ के पहलू से तो स्थिति उक्त उपायों के मुकाबले जरा भी भिन्न नहीं होती, लेकिन इन प्रतिभूतियों की प्राप्तियों से अर्थव्यवस्था का लाभ जरूर होता. दूसरे शब्दों में ऐसा नहीं करने यानी राजकोषीय घाटे से बचने का अर्थ है, बजट संसाधनों से ब्याज की आय बैंकों के हवाले करना, लेकिन इससे अर्थव्यवस्था का कोई लाभ नहीं होना. ऐसा करना बहुत ही मूर्खतापूर्ण नीति अपनाना होगा. लेकिन, इस बजट में यही किया गया है.
यह तो सही है कि बंदशुदा नोटों की जगह नये नोट छापे जा रहे हैं और इससे बैंकों के पास जमा राशियां घट जाने वाली हैं और इसके बाद ये संसाधन सरकार के ऋण लेने के लिए बैंकों के पास उपलब्ध ही नहीं होंगे. लेकिन, सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह बंदशुदा नोटों के पूरे मूल्य के बराबर नये नोट जारी नहीं करेगी और वह दोनों के बीच 1.5 लाख से 2 लाख करोड़ रुपये तक का अंतर रहने देगी ताकि लोगों को नकदीरहित लेन-देन की ओर धकेला जा सके. इसलिए, कम से कम इतनी राशि ‘‘जमा किए रखने’’ के लिए बैंकों के पास उपलब्ध रहेगी और सरकार चाहती तो इतना ऋण ले सकती थी. लेकिन, उसने ऐसा नहीं किया.
राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी समस्याहीन होती
वर्तमान संदर्भ में वे समस्याएं भी सामने आने वाली नहीं थीं, जो आमतौर पर राजकोषीय घाटों के साथ जुड़ी रहती हैं. राजकीय घाटे के साथ पहली समस्या तो यही लगी होती है कि इससे फालतू मांग पैदा हो सकती है और इसलिए, मांग के खिंचाई से पैदा होने वाली मुद्रास्फीति आ सकती है. लेकिन, चूंकि मौजूदा स्थिति अपने आप में अपर्याप्त मांग से उत्पन्न मंदी की है, इस समय मुद्रास्फीति का तो सवाल ही नहीं उठता है. सरकार के ऋण लेने के साथ दूसरी समस्या यह जुड़ जाती है कि इसी के अनुपात में सरकार पर निजी दावे बढ़ रहे होते हैं और इसलिए निजी संपदा बढ़ रही होती है. सामान्यत: इसका अर्थ होता है, समाज में आय की असमानता का बढऩा.
लेकिन, वर्तमान संदर्भ ये जमा समाज के सभी तबकों से आए हैं, जिसमें अमीर तथा साधारण लोग समान रूप से शामिल हैं, राजकोषीय घाटे के बढऩे का मतलब मुख्यत: अमीरों की संपदा का बढऩा नहीं होगा जो कि सामान्यत: होता है क्योंकि अमीर सामान्यत: अपनी आय का कहीं बड़ा हिस्सा बचाते हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकारी प्रतिभूतियां मुख्य रूप से इन अमीरों के ही हाथों में रहती हैं, मौजूदा मामले में तो सरकार पर सभी के दावे में बढ़ातरी हो रही होती और इस तरह आय असमानता में इससे कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई होती.
इसलिए, शुद्ध सहजज्ञान का तकाजा था कि मौजूदा मुकाम पर राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी की जाती. लेकिन, इस बजट में सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में रूप में राजकोषीय घाटे को, 2016-17 के स्तर पर ही बनाए रखा गया है. और ऐसा किया गया है मनरेगा के खर्चे को करीब-करीब 2016-17 के स्तर पर ही बनाए रखने के जरिए, 2017-18 के बजट अनुमान में इसके लिए 48,000 करोड़ रुपये रखे गए हैं, जबकि 2016-17 के संशोधित अनुमान के हिसाब से यही खर्च 47,499 करोड़ रुपये था. इसी प्रकार यह किया गया है सामाजिक क्षेत्रों पर खर्चों को दबाए रखने के जरिए. मिसाल के तौर पर सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के तौर पर शिक्षा व स्वास्थ्य पर खर्चे को 2016-17 के ही स्तर पर बनाए रखा गया है. मंदी के बीच ‘‘राजकोषीय सहीपन’’ का यह बचकाना रास्ता इसीलिए अपनाया गया है कि सरकार विश्व वित्तीय खिलाडिय़ों को नाराज नहीं करना चाहती है, जो राजकोषीय घाटों से नफरत करते हैं. लेकिन, विश्व वित्त को खुद करने की कोशिश करना, जो कि वैसे भी जनता के हितों के खिलाफ पड़ता है, ट्रंप के संरक्षणवाद की पृष्ठïभूमि में खासतौर पर बेतुका हो जाता है.
ट्रंप के संरक्षणवाद के दौर में
ट्रंप का संरक्षणवाद, ऐसे हालात में आया है जब विश्व अर्थव्यवस्था में सकल मांग में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है. ट्रंप खुद भी अमरीका में सरकारी खर्च में किसी बढ़ोतरी की कल्पना नहीं कर रहा है बल्कि सिर्फ पूंजीपतियों को और ज्यादा रियायतें देना चाहता है, जो अपने आप में सकल मांग में बढ़ोतरी नहीं कर सकता है. ऐसे हालात में ट्रंप का संरक्षणवाद, ‘‘पड़ौसी जाए भाड़ में’’ की ही नीति अपनाना यानी अन्य देशों से जिनमें भारत भी शामिल है, कहीं बड़ी मात्रा में आर्थिक गतिविधियां तथा रोजगार छीनना ही है. ट्रंप की इस नीति से भारत में रोजगार की रक्षा करने के लिए, भारत सरकार को खुद अपना ही संरक्षणवाद थोपना पड़ेगा और चूंकि ऐसे किसी भी कदम से वित्त का पलायन शुरू हो सकता है, भारत को पूंजी नियंत्रण लागू करने होंगे. इस तरह के पूंजी नियंत्रणों की छाया तले हमारी सरकार, विश्वीकृत वित्तीय पूंजी के तुष्टीकरण की परवाह किए बिना, घरेलू सकल मांग का विस्तार कर सकती है.
भारत सरकार का यही रास्ता होना चाहिए क्योंकि ट्रंप की ‘‘पड़ौसी जाए भाड़ में’’ की नीति का, जो महज एक बचकानी नीति नहीं है और कोई जवाब ही नहीं है. इसे देखते हुए 2017-18 के बजट से, राजकोषीय घाटा बढ़ाकर एक शुरूआत की जा सकती थी और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के तुष्टीकरण की नीति की से मुंह मोड़ा जा सकता था, जो नवउदारवाद ने हमारी अर्थव्यवस्था पर थोपी थी. ऐसा न कर के सरकार ने स्पष्ट रूप से यह दर्शाया है कि वह, ट्रंप के संरक्षणवाद से विश्व अर्थव्यवस्था में उत्पन्न हुई नयी परिस्थिति को समझती ही नहीं है.
इसलिए, 2017-18 के बजट के इस वर्ष के लिए तो गंभीर प्रतिकूल नतीजे होंगे ही, इसके अलावा यह बजट यह भी दिखाता है कि यह सरकार, जो ऐसी मानसिकता में फंसी हुई है जो यह समझ ही नहीं पा रही है कि विश्व अर्थव्यवस्था में क्या हो रहा है, वास्तव में बेरोजगारी का ही आयात करने तुली है, जिसका ट्रंप शेष सारी दुनिया के लिए निर्यात करने की कोशिश कर रहा है.