पीएसयू के खिलाफ साजिश तो नहीं !
सुदीप ठाकुर | फेसबुक: पीएनबी घोटाले के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को जिम्मेदार ठहराने वाले लोग दरअसल यह भूल कर रहे हैं कि यह कॉरपोरेट और निजीकरण के हिमायती लोगों का पुराना खेल है. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के खिलाफ किस तरह साजिश की जाती है, इसके दो उदाहरण मुझे याद आ रहे हैं. ये दोनों उदाहरण छत्तीसगढ़ से संबंधित हैं, जो यह बताने के लिए काफी हैं कि किस तरह से मुनाफा कमाने वाले सार्वजनिक उपक्रम यानी पीएसयू को श्रमिकों के हितों की कीमत पर निजी हाथों में बेचने की कवायद की जाती है.
इनमें से एक का संबंध कोरबा स्थित भारत एल्युमिनियम लिमिटेड यानी बालको के विनिवेश से है. इस सदी की शुरुआत में जब विनिवेश की बयार शुरू हुई थी, उस समय बालको के विनिवेश का फैसला किया गया था. ध्यान रहे यह फैसला उस समय किया गया था, जब वह उपक्रम मुनाफा कमा रहा था. इसको लेकर वहां श्रमिकों की तकरीबन दो महीने लंबी हड़ताल चली थी, जिसमें सारी ट्रेड यूनियन शामिल थीं. इस अभूतपूर्व हड़ताल का नतीजा था कि बालको में काम ठप पड़ गया था. उस समय छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की अगुआई वाली कांग्रेस की और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली एनडीए की सरकार थी. यह समझना इसलिए जरूरी है कि 1991 में लागू की गई आर्थिक नीतियों और उदारीकरण ने दिखा दिया है कि आर्थिक नीति के मामले में कांग्रेस और भाजपा दोनों में कोई फर्क नहीं है.
स्थिति यहां तक आ गई थी कि मजूदरों ने कहा कि वह खुद बालको प्लांट को चला सकते हैं, लेकिन सरकारों ने तो उनके खून-पसीने से खड़े किए गए इस पीएसयू को निजी हाथों में बेचने का फैसला कर ही लिया था. सो, उनकी हड़ताल का कोई असर नहीं हुआ और आखिरकार बालको का विनिवेश कर दिया गया और उसमें स्टरलाइट समूह वाले अनिल अग्रवाल की वेदांता कंपनी को 51 फीसदी की हिस्सेदारी दे दी गई. यह देश में किसी सार्वजनिक उपक्रम का पहला विनिवेश था. बालको में उसके बाद क्या हुआ? तो यह जानने के लिए इतना ही काफी है कि विनिवेश से पहले वहां 6500 नियमित श्रमिक-कर्मचारी थे और तीन हजार के करीब ठेका मजदूर थे, विनिवेश और उसके बाद हुई छंटनी के बाद नियमित श्रमिकों-कर्मचारियों की संख्या 14 सौ रह गई है और सात हजार के करीब ठेका मजदूर हैं! यही नहीं, निजीकरण के बाद श्रमिकों-कर्मचारियों को मिलने वाली सुविधाओं में भी भारी कटौती की जा चुकी है. इसके साथ ही वहां संयंत्र से जुड़ी कुछ इकाइयों को बंद किए जाने की खबरें भी आती ही रहती हैं. तो एक ऐसा उपक्रम जो देश के रक्षा और अंतरिक्ष जैसे अहम क्षेत्रों के लिए एल्युमिनियम पैदा करता है, उसे निजी हाथों में दे दिया गया, वह भी तब जब वह मुनाफा कमा रहा था.
दूसरा उदाहरण दंतेवाड़ा जिले में स्थित बैलाडीला की कीमती लोहे की खदानों से जुड़ा हुआ है. 1990 के दशक में वहां 11 बी खदान के निजी हाथों में सौंपने की कवायद शुरू की गई थी. आगे बढ़ने से पहले यह जान लीजिए कि 11 बी एशिया की लोहे की सबसे उम्दा खदान है, जहां लौह अयस्क में लोहे की मात्रा 67 फीसदी से भी अधिक है! 1960 के दशक में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम यानी एनएमडीसी को बैलाडीला की खदानों को विकसित करने की जिम्मेदारी दी गई थी. उसने वहां खदान नंबर पांच, चौदह, दस और खदान नंबर ग्यारह ए, और सी वगैरह से लौह अयस्क निकालना शुरू किया.
यहां से निकला लौह अयस्क देश के संयंत्रों के अलावा जापान जैसे देशों को भी भेजा जाने लगा. इस आदिवासी क्षेत्र को एनएमडीसी ने विकसित किया और वहां टाऊनशिप भी बनाई, अस्पताल और स्कूल वगैरह खोले गए, ताकि देश के दूसरे हिस्से से वहां आने वाले एनएमडीसी के कर्मचारियों और उनके परिजनों को किसी तरह की अड़़चन न हो. एक टाउनशिप पहाड़ी के ऊपर बनाई गई, जिसका नाम ही रखा गया था, आकाशनगर. इस तरह से स्थानीय आदिवासियों और इस सार्वजनिक उपक्रम के कर्मचारियों के बीच एक सहअस्तित्व स्थापित करने के प्रयास किए गए थे. एनएमडीसी की इन खदानों ने जमकर लोहा भी उगला, जिससे इस नवरतन कंपनी का मुनाफा भी बढ़ता चला गया. हालांकि यह भी सच है कि स्थानीय आदिवासियों को इतने बड़े सार्वजनकि उपक्रम के कारण जितना लाभ मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला.
इसी बीच, 1990 के दशक में बैलाडीला की खदान नंबर 11 बी को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी शुरू कर दी गई. इसके लिए बैलाडिला मिनरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का गठन किया गया, जिसमें एनएमडीसी की हिस्सेदारी महज 11 फीसदी रखकर 89 फीसदी हिस्सा निजी क्षेत्र को देने का प्रस्ताव था. हैरान होने की जरूरत नहीं है, इस खदान की लीज महज 11 करोड़ रुपये में हस्तांतरित करने की योजना भी बन गई. जिस निजी कंपनी को बैलाडीला की इस कीमती खदान को देने का फैसला किया गया उसका नाम था, निप्पन ऐंड डेनरो इस्पात लिमिटेड.
इस कंपनी में लक्ष्मीनारायण मित्तल की कंपनी की भी हिस्सेदारी थी. जब यह कवायद शुरू की गई थी, उस समय यह आंका गया था कि 11 बी खदान से अगले बीस वर्षों तक एनएमडीसी को 80 करोड़ रुपये सालाना का मुनाफा हो सकता था! इसके बावजूद उस दौरान बनी केंद्र और अविभाजित मध्य प्रदेश की सरकारों ने इसे निजी हाथों में देने की तैयारी कर ली थी. इस निजीकरण के खिलाफ मजदूरों ने लंबा आंदोलन किया. किरंदुल और बचेली में इन श्रमिकों की पीड़ा मैंने करीब से देखी. बालको के श्रमिकों की तरह बैलाडीला के श्रमिक संगठनों ने भी खुद ही खदान चलाने जैसी पेशकश की थी. निजीकरण के खिलाफ मामला अदालत तक भी पहुंच गया. आखिरकार 11 बी खदान का निजीकरण नहीं हो सका और आज यह खदान एनएमडीसी के पास ही है और वहां खनन शुरू हो चुका है. लेकिन कोई नहीं जानता कि कब बैलाडीला की अन्य खदानों या बस्तर की किसी और खदान को निजी हाथों में देने की तैयारी न कर ली जाए.
सवाल है कि सरकार मुनाफा कमाने वाली उपक्रमों को निजी हाथों में क्यों सौंपना चाहती हैं. पंजाब नेशनल बैंक के घोटाले से यह नहीं पता चलता कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक नकारा हैं, बल्कि इससे यह पता चलता है कि कॉरपोरेट सरकारों के साथ मिलकर इनका कैसे दोहन करते हैं. कुछ खराब कर्मचारियों के कारण पूरे उपक्रम को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. अभी तो यह भी सामने आना बाकी है कि पीएनबी के इस घोटाले में उसके अपने कर्मचारियों के अलावा और कौन-कौन लोग शामिल हैं? कॉरपोरेट को विकास का मंत्र बताने वालों को यह भी बताना चाहिए कि नीरव मोदी और मेहूल चौकसी किनका प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या वे कॉरपोरेट का हिस्सा नहीं हैं? बैकों के लाखों करोड़ के एनपीए के लिए बैंक यदि जिम्मेदार हैं, तो क्या कॉरपोरेट भी जिम्मेदार नहीं हैं? देश को सार्वजनिक उपक्रमों से नहीं बल्कि क्रोनी कैपेटेलिज्म से बचाने की जरूरत नहीं.
इस घोटाले उन लाखों करोड़ आम भारतीयों को मायूस कर दिया है जो सरकारी बैंक की नौकरियों का सपना देखते थे.
*सुदीप ठाकुर अमर उजाला, नई दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं.