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सुप्रीम कोर्ट का नाजायज फैसला

सुनील कुमार
एक पखवाड़े पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में केन्द्र और तमाम राज्य सरकारों पर यह रोक लगा दी कि सरकारी पैसे पर दिए जाने वाले इश्तहारों या सड़क किनारे लगाए जाने वाले होर्डिंग्स पर देश के तीन लोगों के अलावा और किसी की तस्वीरें नहीं लगाई जा सकेंगी.

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस रोक से छूट दी गई है, और जरा सी छूट इस पर दी गई है कि गुजर चुके राष्ट्रीय नेताओं की तस्वीरें लगाई जा सकेंगी. इनसे परे किसी भी मुख्यमंत्री, केन्द्र या राज्य के मंत्री, या किसी और नेता, पार्टी पदाधिकारी, किसी की तस्वीर जनता के पैसों से न छपाई जा सकेगी, न टीवी के चैनलों पर इश्तहारों में दिखाई जा सकेगी, और न कहीं सार्वजनिक रूप से उसका प्रदर्शन हो सकेगा.

यह मामला सुप्रीम कोर्ट के एक नामी वकील और देश के एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण की दायर की हुई एक याचिका पर चल रहा था, और उस पर सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने यह फैसला दिया. चूंकि इसे कोई चुनौती अब तक नहीं दी गई है, इसलिए यह लागू हो गया है, और जब तक संसद में किसी कानून के मार्फत इसे पलटा न जाए, तब तक यह कानून ही है. एक और रास्ता इसे पलटने का बाकी है, वह है कि केन्द्र या राज्य सरकार के कोई लोग, या कोई आम नागरिक भी, इसे सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार के लिए चुनौती दें, और उस पर अदालत अगर अपना फैसला बदले.

एक पखवाड़े से मैं इस बात का इंतजार कर रहा था कि कोई इसके खिलाफ अदालत जाए, लेकिन अब तक ऐसी कोई खबर नहीं आई है. प्रमुखता से छपी खबरों में अब तक दो ही लोगों ने इसका विरोध किया दिखता है, एक शिवसेना ने, जो कि सुप्रीम कोर्ट के बहुत से फैसलों से अपनी असहमति खुलकर लिख रही है, और दूसरा तमिलनाडू की आज की विपक्षी पार्टी द्रमुक ने, जिसके मुखिया करुणानिधि ने इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही एक लंबा बयान दिया था.

ये दोनों ही पार्टियां किसी लोकतांत्रिक नजरिए के लिए नहीं जानी जातीं, लेकिन इन दोनों में एक बात एक सी है, कि दोनों ही एक प्रदेश की पार्टियां हैं, और दोनों ही उग्र क्षेत्रवाद पर बनी हुई, और टिकी हुई पार्टियां भी हैं. ये दोनों ही पार्टियां जाति या धर्म पर भी केन्द्रित हैं, शिवसेना मराठी अस्मिता की राजनीति करती है, और द्रमुक तमिलनाडू में इसी तरह हिन्दी-विरोधी, तमिल हितों को लेकर श्रीलंका-विरोधी पार्टी है.

लेकिन यह हैरानी की बात है कि इसी तरह की बहुत सी और पार्टियां जो कि एक राज्य तक सीमित हैं, और जो कि एक नेता के करिश्मे पर टिकी हुई हैं, और जो कि आज सत्ता में हैं, उन्होंने भी अपने नेता की तस्वीर छपने के खिलाफ आए इस फैसले को चुनौती नहीं दी है. अब बंगाल में ममता, उत्तरप्रदेश में मुलायम, आन्ध्र में चन्द्राबाबू, तेलंगाना में चन्द्रशेखर राव, पंजाब में बादल, ओडिशा में पटनायक, जैसे बहुत से नेता हैं जो कि अपने प्रदेश में सत्ता के अकेले चेहरे हैं, उनकी तरफ से भी कोई चुनौती नहीं आई है.

लेकिन हमारा यह मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पूरी तरह नाजायज है, और इस फैसले के खिलाफ अदालत जाकर इसे पलटवाने की पूरी बुनियादी संभावना बची हुई है. इस फैसले में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तस्वीरों को छूट दी गई है. भारत बिना भीतरी सरहदों वाला एक अकेला देश नहीं है. यह एक संघीय लोकतंत्र है जिसमें राज्यों की अपनी स्वायत्तता है, और राज्यों के इस पूरे ढांचे को केन्द्र के साथ जोड़ा जरूर गया है, लेकिन राज्य कहीं भी केन्द्र से कम अधिकार के नहीं हैं. केन्द्र के अधिकार अलग हैं, राज्यों के अधिकार अलग हैं. केन्द्र की भूमिका और राज्य की भूमिका अलग-अलग हैं, और दोनों एक-दूसरे का विकल्प नहीं हैं.

सच तो यह है कि भारत इन दो तहों का देश भी नहीं है. यह एक त्रिस्तरीय लोकतंत्र वाला ढांचा है जिसमें केन्द्र, राज्य, और स्थानीय संस्थाओं की अलग-अलग भूमिकाएं हैं, और इनके आपसी अंर्तसंबंध संविधान में ही बड़े साफ किए गए हैं. केन्द्र राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकता, और राज्य, म्युनिसिपल और पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकता.

हम इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दायर हुई थी उसकी सोच से सहमत हैं, और जनता के पैसों से कुछ चेहरों का प्रचार होना भी नहीं चाहिए. लेकिन यह एक अदालती फैसले के मार्फत लागू किए जाने लायक मामला नहीं है. लोकतंत्र में निर्वाचित सरकारों के अपने अधिकार हैं, अदालतों के अधिकार तभी काम आते हैं जब ये सरकारें अपना काम ठीक से न करें. अब सुप्रीम कोर्ट ने एक सपाट फैसले में पूरे देश में यह रोक लगा दी.

इससे जनता के पैसे की बर्बादी कम हो सकती है, लेकिन इस बर्बादी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट का पैमाना गलत है. किसी राज्य का एक मुख्यमंत्री किसी भी तरह प्रधानमंत्री के मुकाबले इस एक मामले में कम महत्वपूर्ण नहीं है.

जैसा कि करुणानिधि ने कहा है, ये दोनों ही पद जीते हुए विधायकों या सांसदों के बहुमत से चुनकर आए हुए लोगों से भरे जाते हैं, और प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अपने-अपने दायरे में बराबरी के हक रहते हैं. देश के संघीय ढांचे में केन्द्र और राज्य के संबंधों के चलते हुए कुछ मामलों में राज्यों को केन्द्र के अधिकार क्षेत्र के भीतर केन्द्र की बात सुननी होती है, लेकिन इससे बाकी मामलों में राज्यों के अपने अधिकार कहीं कम नहीं होते.

अदालती फैसले को चुनौती देने के लिए एक बड़ी कानूनी समझ की जरूरत होती है जो कि इस बात को लिखते हुए मुझमें बिल्कुल भी नहीं है. लेकिन बहुत आम समझबूझ, और प्राकृतिक न्याय के लिए एक आग्रह के तहत मैं इस बात को उसी मासूमियत से लिख सकता हूं जिस मासूमियत से एक अनजान बच्चा कुछ सवाल कर सकता है. संवैधानिक जटिलताओं में अधिक उलझने से प्राकृतिक न्याय अनदेखा रह जाने का एक खतरा रहता है.

ऐसे में साधारण समझ वाले लोग जो सवाल उठाते हैं वो सवाल कभी-कभी संविधान से अधिक न्यायसंगत हो सकते हैं. यह संविधान वही तो है जिसमें दर्जनों संशोधन करने पड़े हैं, और इन संशोधनों के बिना संविधान की बहुत सी धाराएं कानून ही थीं, और संशोधनों के बाद उनके कई हिस्से कानून में ही रह गए और उनसे अलग बातें कानून बन गईं.

मुझे इस बात पर भी बहुत हैरानी है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने अपने मुख्य न्यायाधीश को जनता के पैसों पर छपने और दिखने के लायक पाया है. इश्तहार हो या कि होर्डिंग, इन दोनों में छपने और दिखने का मतलब सार्वजनिक जीवन में लोगों तक पहुंचना है.

यह बात मेरी समझ से पूरी तरह परे है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को जनता को अपना चेहरा दिखाने की क्या जरूरत है? या तो जिन दो जजों ने यह फैसला दिया है उनके मन में अपने अदालती मुखिया का चेहरा रहा होगा कि देश की महत्वपूर्ण लोगों की फेहरिस्त में जब मुख्य न्यायाधीश का नाम है, तो उसके चेहरे को कैसे अलग रखा जाए, कैसे उसकी उपेक्षा की जाए? लेकिन सवाल यह है कि सार्वजनिक जीवन के परे से, सार्वजनिक जीवन से परे रहने की उम्मीद वाले इस अदालती ओहदे को किसी चेहरे की क्या जरूरत है?

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला हमको उस वक्त अच्छा लगता जब उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने हजारों करोड़ खर्च करके जीते जी अपने जो स्मारक बनवाए हैं, देश की सबसे बड़ी अपनी प्रतिमाएं जनता के पैसों से बनवाई हैं, उनको तोडऩे का हुक्म सुप्रीम कोर्ट देता. अदालत में आज मायावती और उनके बनाए हुए अपने दूसरे नेताओं के स्मारक हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार को लेकर कटघरे में खड़े हैं.

ऐसे में अदालत को यह क्रांतिकारी फैसला देना था कि मायावती की प्रतिमाओं को चूर-चूर करके पत्थर के उन टुकड़ों से सड़क बना दी जाती, उन्हें गिट्टी की तरह इस्तेमाल कर दिया जाता, ताकि वह देश के बाकी जिंदा नेताओं के लिए एक सबक होता. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा नहीं किया है, इस एक मामले में भी ऐसा नहीं किया है, और अपने ही किसी अहाते में चल रहे उत्तरप्रदेश के इस मायावी मामले को इस मामले से नहीं जोड़ा है. अदालत को यह कल्पनाशीलता दिखानी चाहिए थी, और मायावती के बुत तुड़वाने चाहिए थे.

किसी राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ अदालत जाने की जरूरत नहीं है. इस फैसले को तो कोई नागरिक भी चुनौती दे सकते हैं, और हमारा ख्याल है कि यह फैसला म्युनिसिपलों और पंचायतों पर भी लागू हो रहा है, इसलिए वहां के निर्वाचित लोग भी इसे चुनौती दे सकते हैं.

बेहतर यह होता कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में यह फैसला देता कि केन्द्र, राज्य, या स्थानीय संस्थाएं अपने बजट का कितना हिस्सों से विज्ञापनों पर खर्च कर सकती हैं जिनमें जिंदा नेताओं के चेहरे दिखें. ऐसा कोई पैमाना उसके इस फैसले के मुकाबले अधिक लोकतांत्रिक होता. और आज तो एक मजेदार नौबत तब भी आ सकती है जब कोई याचिका इस बात को लेकर लगे कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने मुख्य न्यायाधीश की तस्वीर को इजाजत किस पैमाने पर दी है, और मुख्य चुनाव आयुक्त की तस्वीर को इजाजत क्यों नहीं दी? उपराष्ट्रपति की तस्वीर को इजाजत क्यों नहीं दी?

यह जनता के पैसों को बचाने के लिए, जनता के हित में लिया गया एक फैसला जरूर है, लेकिन यह अलोकतांत्रिक है, और भारत के संघीय ढांचे का अपमान करने वाला फैसला है. हमारी समझ यह कहती है कि यह तभी तक कायम रहेगा जब तक कोई इसको चुनौती नहीं देता. पहली चुनौती में ही यह फैसला बदल जाएगा, ऐसा हमारा अंदाज है.

* लेखक रायपुर से प्रकाशित शाम के अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक हैं.

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