टैंक का राष्ट्रवाद
सैन्य बलों और आम भारतीयों की राष्ट्रवाद के प्रति सोच के आपसी संबंधों में काफी बदलाव हुए हैं. एक समय जैसे गोरे लोगों ने सभी को सभ्य बनाने का बीड़ा उठाया था, उसी तरह मौजूदा सरकार भारतीय लोगों के राष्ट्रवादी बनाने में लगी हुई है. यह काम इस सोच पर टिका है कि भारतीय अब तक कम राष्ट्रवादी थे. इसके लिए जो तरीका अपना जा रहा है उसमें सैन्य बलों के प्रति सम्मान और उनसे डर पैदा करने की कोशिश की जा रही है. सेनाध्यक्ष विपिन रावत ने कहा कि लोगों को हमसे डरना चाहिए. यह भारतीय लोगों में राष्ट्रवाद के प्रति सोच और सैन्य बलों के आपसी संबंधों में बदलाव का दिखा रहा है. सैनिक की छवि जनता के पैसे से जनसेवा करने वाले के बजाए लोगों को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने वाले की गढ़ी जा रही है.
सैनिकों की पूजा करने की हालिया अपील जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति एम. जगदीश कुमार ने की है. उन्होंने परिसर में टैंक लगाने का आग्रह किया है. उनकी योजना है कि इसे ऐसी जगह लगाया जाए जिससे छात्रों में राष्ट्रवाद की भावना जगे और उन्हें भारतीय सेना की कुर्बानियों और साहस का सबक मिले. पहली बार इस विश्वविद्यालय में कारगिल विजय दिवस मनाया गया. इस मौके पर पहुंचे दो केंद्रीय मंत्रियों वीके सिंह और धर्मेंद्र प्रधान से कुलपति ने टैंक लगवाने का आग्रह किया. इसके बाद कई ऐसे फॉर्मूले आए जिनके जरिए ‘देशद्रोही’ छात्रों को राष्ट्रवादी में बदला जा सकता है.
तकरीबन साल भर पहले उस समय की मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने देश के हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय ध्वज लगवाने की बात कही थी. उन्हें जल्द ही पता चल गया कि जेएनयू में तो पहले से राष्ट्र ध्वज फहराता है. मन मसोस कर उन्होंने सैन्य अधिकारियों को बुलाने और उनसे राष्ट्रवाद पर छात्रों के बीच बोलने का विचार सामने रखा. लेकिन कुछ ही समय बाद उन्हें कपड़ा मंत्रालय में भेज दिया गया. कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा सरकार को यही नहीं पता है कि विश्वविद्यालय होते किस लिए हैं. लेकिन जिस तरह से सैनिकों को भगवान बनाने की कोशिश हो रही है, यह खतरनाक है. अगर इसे आगे बढ़ाया जाता है कि यह लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरे की घंटी होगी.
देशभक्ति दिखाने के लिए सैनिकों के तस्वीर का इस्तेमाल नया नहीं है. लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद साम्राज्यवादी पृष्ठभूमि से उभरा है और यह सैन्य बलों के साथ बेहद सहज नहीं रहा. आजादी के बाद के शुरुआती सालों में इसे पूरी तरह से पेशेवर और असैन्य लोगों के नियंत्रण में रहने वाला बल बताया जाता था. उस वक्त सच्चे राष्ट्रवादी खद्दर पहनने वाले सत्याग्रही या जान की परवाह नहीं करने वाले क्रांतिकारी होते थे. आज इन दोनों की जगह सैनिकों ने ले ली है.
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था. 1962 में चीन युद्ध में हार से हताश सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिए उन्होंने ऐसा किया था. लेकिन उन्होंने जवान को किसान के साथ रखकर आदर्श देश सेवक के तौर पर पेश करने की कोशिश की थी. जब तक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे बढ़ाकर ‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान’ किया तब तक भारतीय राष्ट्रवाद सैन्य ताकत का पर्याय बन गया था. 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद इस भावना को और मजबूती मिली. इन दो नारों के बीच एक युद्ध 1971 में लड़ा गया और पहला परमाणु परीक्षण 1974 में हुआ. लेकिन 90 के दशक में शांति और निरस्त्रीकरण की खोखली प्रतिबद्धताओं को भी भारत ने त्याग दिया. 1999 के कारगिल युद्ध को याद करते हुए टैंक को राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया गया है.
सैनिकों को आदर्श राष्ट्रवादी के तौर पर पेश करने की प्रक्रिया में सेना में राजनीतिक हस्तक्षेप भी बढ़ा है. सेना प्रमुख के तौर पर बिपिन रावत की नियुक्ति में ही दो वरिष्ठ अधिकारियों की अनदेखी की गई. लोग इंदिरा गांधी के दौर में अरुण वैद्य की नियुक्ति की याद भी कर रहे हैं. लेकिन रावत को जिस तरह से सार्वजनिक बयानबाजी की छूट मिली हुई है, वह किसी अपवाद से कम नहीं है. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर मानव कवच के इस्तेमाल को सही ठहराया. इस पर सरकार में किसी ने आपत्ति नहीं की. जिन लोगों ने भी उनकी आलोचना की उन्हें राष्ट्रविरोधी कहकर उलटे उन्हीं पर हमले किए गए.
उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय में 40 साल से सैन्य टैंक लगा हुआ है. लेकिन वहां इसकी पहचान दूसरी है. यह पाकिस्तान का टैंक है जिसे 1971 की लड़ाई में कब्जे में लिया गया था. यह टैंक भारतीय सेना की विदेशी ताकत के खिलाफ जीत का प्रतीक है. लेकिन जेएनयू के कुलपति तो परिसर में ही टैंक लगाने की बात कर रहे हैं. वैसे भी इस विश्वविद्यालय को कुछ स्वघोषित राष्ट्रवादी राष्ट्रविरोधी लोगों का अड्डा मानते हैं. अब भी अगर कोई संदेह हो तो उस कार्यक्रम के दूसरे वक्ताओं की बातों को जान लेते हैं.
पूर्व क्रिकेटर गौतम गंभीर ने कहा कि आम लोगों के सेना पर सवाल उठाने का कोई हक नहीं है. लेखक राजीव मलहोत्रा ने कहा कि यह न सिर्फ विदेशी युद्ध में कारगिल जीतने का जश्न है बल्कि आंतरिक युद्ध में जेएनयू जीतने का भी जश्न है. सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी जीडी बख्शी ने कहा कि सिर्फ जेएनयू पर कब्जा जमाकर नहीं रुकना चाहिए बल्कि जाधवपुर विश्वविद्यालय और हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय पर भी कब्जा जमाना चाहिए. यह बिल्कुल साफ है कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रवाद की वह धारा अपने चरम पर है जिसकी शुरुआत सदी की शुरुआत के साथ हुई थी.
1966 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय