Social Media

मैं यहां आकर कोई दूसरा हो गया

लीलाधर मंडलोई | फेसबुक: दो मोहपाश हैं. क़ायनात की इन ज़ुल्फ़ों में हूं. और वो ज़ुल्फें ..जो मुझे छोड़ चुकीं और मैं बंधा हुआ मुक्त हूं, इन गलियों में घूमता आबाद होने की सोचता. हां! पार्वती टेल्स एक ठिया है. एक सघन छांह..
‘यहाँ कोई नहीं जो
आंसुओं की दरयाफ़्त करे
नहीं है कोई जो
उदासी का सबब पूछे
हर कोई,हर कुछ यहाँ
मुस्कुराता स्वागत करता है
बांहों में प्रेम के क़सीदे हैं और मैं हूं’
*
जब आप अपने से मुक्त होना चाहते हैं, हो नहीं पाते.
चाहे आप हिमालय ही क्यों न पहुंच जाए. कोई हरदम साथ होता है. उसके होने से आप भाग नहीं सकते. वह चांद में दिखता है और हां ! वह सूरज में भी दिखता है. वह कहीं भी हो सकता है. आंखें बंद कर लीं और वह उनमें भी है. कलगा में मेरी आंखें सूरज में फ्रीज़ हो गयी हैं.
*
इतना बेख़ौफ़ होके न घूमो. यहाँ नैना योगिन के जादू कम नहीं हैं. वे चोटी पे उतर आई चांदी सी चमकती जादुई बर्फ़ की तरह लुभावनी हैं. एक बार मोहित हुए तो अपनी कस्तूरी खो दोगे.
*
इस बेहिजाब वादी में आज़ादी इतनी हसीन है कि सारी दासताएं भूलने के भ्रम में ख़ुश हूं. अपुन के इस रंग पर हिमालय हंसता जाए हैं.
*
दो घंटे के लिए धूप आती है और देह को भरपूर ताप दे जाती है. कपड़े सूखने का सुखद अहसास. भीगे कपड़ों को भी विटामिन डी की दरकार होगी. धूप आने के पहले नहाना, कपड़े धो लेना एक ज़रूरी और प्रिय काम है.

अधिकतम दो घंटे दोपहर एक बजे तक है.फिर धूप के जाते ही बादलों का आसमान में रोमांचक जमावड़ा और हल्की बारिश का भीगा सौंदर्य. आज मणिकर्ण और कसौल की यात्रा. दिन कच्चे और ऊबड़खाबड़ रास्ते के नाम रहा. शरीर नृत्यमग्न रहा. मानो अधिक व्यायाम कर लिया हो. पैदल छोटी-छोटी पथरीली राहों से. पहाड़ से उतरती जलधारा से युगों की प्यास पूरी हुई. पानी का यह मौलिक स्वाद उपलब्धि की तरह है. रास्ते में पत्थर पर तरह-तरह के रेखांकन और चेहरों से मुलाक़ात हुई.

हरी-भरी वनस्पतियों से मिला, नयनसुख अतीव था.

पार्वती नदी को आज जी भरके निहारा. और वह अपनी कल-कल की ध्वनियों के साथ भीतर बह रही है. वह भीतर जमा प्रदूषण से मुक्त कर रही है. मणिकर्ण में एक तरफ़ सल्फ़र वाली गर्म पार्वती तो दूसरी तरफ़ एकदम ठंड में लिपटी पार्वती. एक हाथ में पार्वती का उष्ण अनुभव तो दूसरे पर एक कंपा देने वाला. मैं दो अलग अनुभव के रोमांच की पुलक में पार्वती में बहता हुआ. समय यहीं थमा हुआ सा और मैं उसमें बहा जा रहा हूं. अर्धचेतन अवस्था में इस तरह पहले कभी नहीं रहा.मैं यहां आकर कोई दूसरा हो गया हूं. दूसरे का अर्थ फ़िलवक़्त शब्दों से परे है.
* * * *
बचपन में चांद में चरखा चलाती दादी मां को देखना चाहा, देखा भी लेकिन धुंधला सा बिंब याद है. यहां आकर उसे जीभर के देखा. और रोज़…वहाँ तुम चरखा कातते दिखे..और दादी आंखें पोछतीं हुई.
*
न फंसते इश्क़ में तो न होतीं हथकड़ियां, न इस तरह
तेरी रूदाद पहाड़ों को हम बयां करते.न हंसते -हंसते रोते,न रोते -रोते हंसते.
*
बेएतबार यहाँ कुछ नहीं. तुममें न बह सके तो क्या, पार्वती तो है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!