पद्म का छद्म भी होता है सरकार!
कनक तिवारी
बुद्धिपुत्रों को आत्म श्लाघा के दलदल में डालना एक कुत्सित सरकारी षड्यंत्र है. इस संबंध में भारत सरकार के गृह मंत्रालय की निर्देशावली भी पब्लिक ऑडिट मांगती है.
संविधान के अनुच्छेद 18(1) में लिखा है “राज्य सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा”.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संविधान के मूल अंग्रेजी पाठ का हिंदी मानक पाठ विद्या संबंधी किया गया है जबकि वह अंग्रेजी में यह कहता है-” No title not being a military or academic distinction shall be conferred by the State”.
कोई बताए कि अंग्रेजी शब्द डिस्टिंक्शन का हिंदी अनुवाद विद्या संबंधी कैसे हो गया ? उसे तो प्रावीण्य होना चाहिए था. अर्थात अंग्रेजी में डिस्टिंक्शन और हिंदी में बिना प्रावीन्य पद्म पुरस्कार दिए जा सकते हैं.
पद्म पुरस्कारों का एक सरकारी तिलिस्म और है. इन्हें सरकारी नौकरी की तरह पदोन्नति की सीढ़ियां बना दिया गया है. आज पद्मश्री कल पद्मभूषण परसों पद्म विभूषण.
अपने जीवन की बौद्धिक सामाजिक उपलब्धि के कारण यदि कोई पद्मश्री के ही काबिल है तो वह कुछ वर्षों में पद्म भूषण या फिर पद्म विभूषण होने के लायक प्रोन्नत कैसे हो जाता है. क्या वह अचानक श्रेष्ठ होकर पांच 10 वर्षों में ज्यादा योग्य हो जाता है.
देश के सबसे बुजुर्ग और गांधीवाद के लगभग शीर्ष अध्येता डॉक्टर रामजी सिंह को 93 वर्ष की उम्र में पद्मश्री सम्मान दिया गया. 91 वर्ष के सच्चिदानंद सिन्हा जैसे श्रेष्ठ समाजवादी गांधीवादी ऋषि चिंतक को आज तक सरकार ने अन्य किसी सम्मान के लायक समझा ही नहीं.
ऐसे कई समाज विचारक हैं. उनके नाम से सत्ता प्रतिष्ठान की घिग्गी क्यों बंध जाती है?
संस्कृति के श्रेष्ठ विद्वान गोविंद चंद्र पांडेय को कुछ वर्ष पहले पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया था. उसी वर्ष हिंदी के एक चुटकुलेबाज हंसोड़ कवि कहलाते व्यक्ति को यही सम्मान दिया गया था.
देशद्रोह के आरोप से आरोपित व्यक्ति को भी पहले पद्मश्री सम्मान से नवाजा जाने की शिकायतें मिली हैं. सरकारी फाइलों में अपने नाम चुपके चुपके सरकारी अधिकारी या उनके मददगार चिपकाते रहते हैं. जैसे चूहे फाइलें चुपके-चुपके ही उतरते रहते हैं.
इस संबंध में जनता के सामने पारदर्शी ढंग से सरकार कभी कोई विचार नहीं करती क्योंकि उसे खतरा होता है कि उसके गलत काम शायद पकड़ लिए जाएंगे. हालांकि सरकारें सब काम गलत नहीं करती हैं.
यदि पद्म सम्मान की प्राथमिक सूचियों को देखा जाए तो उनमें सबसे ज्यादा नाम सरकारी अधिकारियों या उनसे जुड़े हुए लोगों के ही होते हैं. सरकारी संपत्ति, सूचनाओं, संपर्कों, योजनाओं वगैरह के आधार पर जो रचनात्मक कार्य किए भी जाते हैं, उनके लिए समाजचेता सम्मानों की योग्यता या वांछनीयता कैसे बन सकती है?
सुना है पद्म सम्मान के लिए आवेदन पत्र भी मंगाए जाते हैं. यदि ऐसा है तब तो उसके कई ठनगन भी होंगे.
यह तो शायद अच्छा ही होगा कि आवेदन पत्रों के साथ शपथ पत्र नहीं मंगाए जाते होंगे. अन्यथा झूठी सूचनाओं का दोषी पाकर फौजदारी मुकदमा भी चलाया जा सकता है. कोई नहीं जानता कि जूरी या निर्णायक मंडल में किसे रखा जाता है और किन आधारों पर.
यह तो लोकतांत्रिक उत्कृष्टता का तकाजा है कि यह बात पारदर्शी ढंग से जनता को मालूम होनी चाहिए.
सरकारी सम्मानों का एक अर्थ यह भी है कि किसी की पीठ पर छुरे मारे जाते हैं और किसी की पीठ थपथपाई जाती है.
अखबारों में वैवाहिक विज्ञापन प्रकाशित होते रहते हैं. उसमें विवाह के लिए युवक युवतियों के ऐसे फोटो और विवरण छपते हैं. जो सही नहीं होते. खुद का प्रतिष्ठित कारोबार के नाम से देशी दारू के गद्दीदार विज्ञापित होते हैं. सुगठित डीलडौल वाले मधुमेह उच्च रक्तचाप वगैरह के मरीज होते हैं. घर के सभी कार्यों में दक्ष सुलक्षणा चाय तक बनाने में रुचि नहीं रखती.
क्या लेखकों कलाकारों बुद्धिजीवियों संस्कृति कर्मियों और समाज सेवकों से इसी तरह की जानकारी या आवेदन सरकार मांगना चाहती होगी?
कई इलाकों में सम्मान देने की फूहड़ परंपराएं इस देश में हैं. खेल रत्न या अर्जुन पुरस्कार पाने के लिए अच्छे खिलाड़ियों को भी अपना बायोडाटा लेकर मंत्रियों के दरवाजों पर उनकी ड्यौढि़यों पर खड़े रहना पड़ता है. कोई भी सरकार अपने विपक्षी नेताओं को विद्यार्थियों को और श्रमिकों की यूनियनों के नेताओं को पद्म सम्मान उसे नवाजना उचित नहीं समझती.
पद्म सम्मान मिल जाने का खतरा उनके लिए भी बढ़ता जा रहा है जो कतई लेखक या संस्कृति कर्मी नहीं हैं लेकिन सरकारी फाइलों में इसी योनि में पैदा कर दिए जाते हैं.
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक दो प्रकरणों में पद्मश्री को अपनी उपाधि की तरह लिखने वाले सज्जनों के खिलाफ आदेश दिया था कि यह बंद हो. नहीं तो उनकी पद्मश्री की सम्मान वाली उपाधि वापस ले ली जाए. कई हैं जिनके लेटर हेड पर विजिटिंग कार्ड पर पद सम्मान का ठसका अंकित रहता है.
जिस तरह खलवाट में बाल ढूंढे जाते हैं वैसे ही सरकार कई नए साहित्य परिवार अन्वेषित करती रहती हैं. हर लेखक बड़ा नहीं हो सकता. बड़ा होना ही पुरस्कार पाने का पैमाना नहीं है. लेकिन बड़े पुरस्कार पाने का पैमाना जरूर बन गया है.
केंद्रीय सरकार के कार्यालय साहित्य संस्कृति कला विद्वता समाज सेवा के मीना बाजार कांजी हाउस या रोजगार कार्यालय नहीं है, जहां पंजीयन कराया जाए. लाइसेंस लिया जाए या मनुष्य की प्रतिभा की फौती पैदाइश का प्रमाण पत्र जारी कराया जाए.