ऑक्सिजन सिलेंडर, बच्चों की मौत और कमीशन के खेल
संदीप पांडेय
गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कालेज चिकित्सालय में 10 अगस्त को 23 बच्चों की मौत के बाद जब मामला प्रकाश में आ गया उसके बाद भी बच्चों का मरना बंद न हुआ और कुल मिला कर 10-11 अगस्त, 2017, दो दिनों में 30 बच्चे मर गए और 7-11 अगस्त, यानी 5 दिनों में 60 आॅक्सीजन की मौत, यह बड़ी गम्भीर बात है और दिखाती है कि योगी सरकार का स्थिति पर कोई नियंत्रण नहीं था.
योगी का कहना है कि वे 1996-97 से दिमागी बुखार से होने वाली मौतों को रोकने के लिए काम कर रहे हैं किंतु यदि स्थिति में कोई सुधार नहीं है तो इसकी जिम्मेदारी तो तय होनी चाहिए.
मुख्य मंत्री बनने के बाद एक से ज्यादा बार योगी कह चुके हैं कि वे पूर्ण कालिक राजनीतिज्ञ नहीं है. यह बात समझ से परे है कि वे फिर चार कार्यकाल गोरखपुर के सांसद क्यों रहे? यदि वे समझते हैं कि राजनीति को पूरा समय नहीं दे सकते तो उन्हें मुख्य मंत्री पद छोड़ देना चाहिए. वैसे भी भारत की ऐतिहासिक परम्परा में साधु राजसत्ता ग्रहण करे इसके उदाहरण कम हैं. साधु राजा को सलाह-मशविरा दे सकते हैं लेकिन सीधे सत्ता संचालन करें इसकी आवश्यकता नहीं है.
योगी कहते जरूर हैं कि जितनी चिंता उन्हें दिमागी बुखार से मरने वाले बच्चों की हो सकती है उतनी और किसी को नहीं लेकिन यह कहने भर से कैसे काम चलेगा जब तक बच्चों की मौतें बंद नहीं होतीं.
घटना के चौंथे दिन ही वे बयान देते हैं कि जब तक सड़क पर नमाज पढ़ना नहीं रोका जा सकता तब तक थाना में जन्माष्टमी नहीं रोकी जानी चाहिए. वे कहते हैं कि कांवर यात्रा में जब तक बाजा, डमरू, ढोल, चिमटा नहीं बजेगा और लोग नाचेंगे-गाएंगे नहीं तब तक यह कैसे लगेगा कि वह कांवर है. फिर उन्होंने कहा कि यदि कांवर यात्रा में माइक के इस्तेमाल पर रोक लगाई जानी है तो सभी धार्मिक स्थलों में माइक के इस्तेमाल पर रोक लगनी चाहिए और किसी भी धार्मिक स्थल से बाहर कोई आवाज नहीं आनी चाहिए. वे अपने अधिकारियों से पूछते हैं कि क्या वे इसे लागू करा सकते हैं? यदि नहीं, तो वे किसी तरह का प्रतिबंध लागू नहीं होने देंगे. उन्होंने लोगों से कावंरियों पर फूल की पंखुड़ियां बरसाने को कहा है.
क्या यह माना जा सकता है जो व्यक्ति बच्चों के प्रति संवेदनशील होगा वह अभी बच्चों के मरने की खबरें अखबारों में मुख्य पृष्ठ से हटीं भी नहीं हैं, इस तरह की बातें करने की सोच सकता है और वह भी आक्रामक तेवर के साथ. जाहिर है कि योगी की प्राथमिकता अपने धर्म का प्रतिनिधित्व करना और उसका वर्चस्व स्थापित करना है. उन्हें बच्चों से ज्यादा कावंरियों की चिंता है.
जो ऐसे संतानहीन लोग हैं जिन्हें परिवार में जीने का अनुभव नहीं, यानी मानवीय सम्बंधों में कैसे जिया जाता है इसका उन्हें ज्ञान नहीं, उन्हें भी सत्ता अपने हाथों में नहीं लेनी चाहिए. जिसके अपने बच्चे और परिवार नहीं वह बच्चों के मरने का दर्द कैसे समझ सकता है? परिवार में जीने से इंसान कई मानवीय कठिनाइयों को बेहतर ढंग से समझ सकता है और उसका हल भी बेहतर ढंग से निकाल सकता है. इसलिए मोदी-योगी सरकारों में जनता की परेशानियां बढ़ गई हैं.
गोरखपुर की घटना ने एक बार फिर दिखा दिया कि चिकित्सा क्षेत्र को निजी हाथों में देने के क्या परिणाम हो सकते हैं. जो निजी कम्पनी आॅक्सीजन आपूर्ति करती थी उसने भुगतान न होने पर आॅक्सीजन रोक दिया. निजी अस्पताल गरीब मरीजों का इलाज नहीं करते. वे तो मुनाफे के बदले में इलाज करते हैं. गरीब के लिए तो सरकारी अस्पताल ही सहारा हैं.
एक लोकतांत्रिक देश में शिक्षा व चिकित्सा की निःशुल्क व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए तभी सभी नागरिक, खासकर गरीब, उसका लाभ उठा पाएंगे. इन क्षेत्रों का निजीकरण गरीब विरोधी कदम है. भारत में सरकार को शिक्षा और चिकित्सा की पूरी जिम्मेदारी लेकर इन क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता वाली सेवाएं नागरिकों को उपलब्ध कराए. बच्चों की मौत की खबरें राष्ट्रीय स्तर पर उठने के बाद भी गोरखपुर के अस्पताल में सफाई की व्यवस्था में भारी कमी रही. नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की इससे ज्यादा कहां धज्जियां उड़ सकती थीं?
केन्द्र सरकार से आई एक तीन सदस्यीय समिति ने जांच के बाद पाया कि गोरखपुर की मौतें आक्सीजन की कमी के कारण नहीं हुईं. पहले दिन से ही यह बहस का मुद्दा बना हुआ है. चाहे बच्चों की मौत आक्सीजन की कमी से हुईं अथवा दिमागी बुखार या अन्य किसी बिमारी से, यह तो साबित हो चुका है कि आॅक्सीजन के आपूर्तिकर्ता के करीब 70 लाख रुपए बकाया थे जबकि अस्पताल के पास पैसे थे. जाहिर है कि यह मामला कमीशन न मिलने अथवा जितना मांगा जा रहा था उतना न मिलने का था.
इस देश में भ्रष्टाचार का मूल स्वरूप यही कमीशन का लेन-देन है जिसको समाप्त करने के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने का दावा करने वाली मोदी सरकार ने अभी तक कुछ नहीं किया है.
यही कमीशन का पैसा अंततः राजनीतिक दलों के पास पहुंचता है जिसे वे चुनाव में अनाप-शनाप खर्च करती हैं. जाहिर है इस पैसे का कोई हिसाब किताब नहीं होता. यदि कमीशन की व्यवस्था पर रोक लग गई तो भ्रष्टाचार खत्म करने की कार्यवाही की शुरुआत होगी और इस देश के चुनाव साफ-सुथरे ढंग से होने शुरू हो जाएंगे.
यह इस देश का अभिशाप है कि यहां के हरेक सरकारी विभाग, कार्यालय, योजनाओं, परियोजनाओं में कमीशन तय हैं. यदि आपको किसी सरकारी योजना का लाभ लेना है तो एक तय रकम देनी होगी. यदि कहीं कोई निर्माण का काम होना है तो विकास प्राधिकरण से लेकर मंजूरी देने वाला हरेक अधिकारी अपना-अपना हिस्सा मांगेगा. यदि कोई सरकारी फाइल एक मेज से दूसरी मेज जानी है तो उसकी दर तय है. यदि किसी ने कोई सरकारी ठेका लिया तो उसे अधिकारियों को कमीशन देनी पड़ेगी. अलग-अलग काम की, विभिन्न विभागों की, वस्तुओं की आपूर्ति की, परीक्षा में नकल कराने की, कई बार जो दल सत्ता में हैं और जो अधिकारी कुर्सी पर बैठे हैं उनकी दरें अलग-अलग होती हैं. फिर जो घूस ली जाती है उसका ऊपर और नीचे तक बंटवारा भी होता है. यह कमीशन की व्यवस्था इसलिए फल-फूल रही है क्योंकि इससे हमारे राजनीतिक दलों का वित्तीय पोषण होती है.
क्या योगी या मोदी सरकार इस कमीशन की व्यवस्था को हाथ लगाने का माद्दा रखती हैं?
* लेखक मैग्सैसे से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं.