हमारा धर्म
ध्रुव गुप्त | फेसबुक
धर्मों ने मनुष्यता को जितना दिया है, उससे कम हमसे छीना भी नहीं है. दुनिया के सबसे ज्यादा नरसंहार धर्म के नाम पर ही हुए हैं. भूख, बीमारी और युद्ध से ज्यादा इंसानी जानें धर्मों ने ली हैं. आज के वैज्ञानिक युग में भी धार्मिक कट्टरता ने दुनिया को नर्क बनाकर रखा हुआ है. और यह भी तब है जब दुनिया का कोई भी धर्म हिंसा का समर्थन नहीं करता.
सभी धर्म प्रेम, अमन, करुणा और भाईचारे की ही बात करते हैं. तो चूक आख़िर कहां, कब और कैसे हो गई ? चूक शायद यहां है कि हममें से कोई अपना धर्म अपने होशोहवास में ख़ुद नहीं चुनता. जन्म के साथ ही हम सब पर यह हमारे परिवार और समाज द्वारा जबरन लाद दिया जाता है.
मैं एक हिन्दू इसीलिए हूं क्योंकि मैं हिन्दू मां-बाप की संतान हूं. मैं किसी मुस्लिम, सिख, बौद्ध, यहूदी या ईसाई परिवार में भी पैदा हो सकता था. एक बच्चे के होश संभालने के पहले ही उसे किसी भी धर्म का मान लेना उसके मानवाधिकारों का हनन ही नहीं, उसकी वैचारिक आज़ादी और सोच को कुंद कर देने की साज़िश भी है. और जहां जन्म लेते ही स्वतंत्र सोच और विचार को भोथरा करने की कोशिशें शुरू हो जायं, वहां संवेदना कम, कट्टरता ही ज्यादा पैदा होगी.
धर्म के नाम पर दुनिया भर में दहशत फैलाने वाले लोग इसी मूर्खतापूर्ण सोच और वातावरण की उपज हैं. ईमान की बात तो यह है कि पैदा होने वाले किसी भी बच्चे को किसी धर्म का नहीं माना जाना चाहिए. वयस्क होने तक उसे सभी धर्मों की बुनियादी शिक्षा दी जाय. संस्कृति, नैतिकताऔर सामाजिकता के निर्माण में धर्मों के योगदान की जानकारी दी जाय. उसे यह भी बताया जाय कि धर्मों की आड़ में अबतक दुनिया में कितनी विनाशलीलाएं हुई हैं. बालिग़ हो जाने के बाद उसे अपना धर्म ख़ुद चुनने की आज़ादी हो.
और हां, आज़ादी उसे इस बात की भी हो कि वह किसी भी धर्म को नहीं चुने.